सुबह सुबह माँ का फोन आया। पिछले कई वर्षों का क्रम है कि जिउतिया के दिन प्रातःकाल में फोन आता है, मैं अधनींदा फोन उठाता हूँ, वो फोन पर ही जिउतिया पहनाने का यत्न करती है, मैं वर्चुअल जिउतिया के गले में डाले जाने की कन्फर्मेशन देता हूँ, फिर आशीर्वादों की अंतहीन श्रृंखला.. यह क्रम तब भी कायम रहा जब ग्रेजुएशन के दौरान हॉस्टल में मोबाइल पर प्रतिबन्ध रहा। एक दिन के लिये छुप-छुपाकर फोन लाया करता था। अब सोचता हूँ जब टेलिकॉम क्रांति नहीं हुई थी तब परदेस में बैठे बेटों की माँए कैसे जिउतिया मनाती होंगी..? फिर गाँव में बीता बचपन याद आ जाता है, और आज के दिन पोखरे में मचने वाली धमाचौकड़ी.. मुस्कराते हुए सोच रहा हूँ कि कभी अपने ग्राम्य-बचपन के संस्मरण लिखूंगा। क्या पता एक और लपूझन्ने का पोटेंशियल छुपा हो.. सनातन कालयात्री (आपको टैग नहीं कर पा रहा हूँ) आज सुनने के लिये कोई गीत बतायेंगे क्या..?
7:03 AM
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By कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra)
कल एक ऐसी घटना से साबका हुआ कि अब तक दिमाग
उसी में उलझा हुआ है।
शनिवार दिन होने के नाते कल सभी पाँचों मित्र-
विवेक, धीरेन्द्र, एके, आनन्द और मैं सब्जी लेने साप्ताहिक बाजार गये हुए थे। बाजार
का सबसे अच्छा समय रात को होता है, तो करीब 8 बजे हम सभी बाजार में टहल-घूम रहे थे।
एक दुकान पर कई सारी हरी सब्जियाँ थीं, तो हम बैठकर छाँटने लगे।
तभी मेरे पीछे आठ-नौ साल का एक बच्चा अपना थैला
लिये आकर खड़ा हुआ और बड़ी मासूमियत से पूछा कि- “लौकी कैसे है..?” दुकानदार ने तीस के
भाव बतलाए। बच्चे ने दुबारा पूछा- “कम नहीं होगा?” उसकी मासूमियत को देखते हुए हम लोगों
ने दुकानदार से पैसे कम करने को कहा, वह भी तुरंत 25 में देने को तैयार हो गया। और
उसे इंतजार करने को कहकर हमारी सब्जी देने लगा। बच्चा मेरे पीछे कुछ यूँ खड़ा था कि
उसका थैला मेरे आगे फैला हुआ मुझे आधा ढँक रहा था।
तभी मुझे अपनी शर्ट की जेब में कुछ सरसराहट सी
महसूस हुई। मुझे लगा कि मेरा गैलेक्सी S-2 वाइब्रेट कर रहा है, मैनें हाथ लगाकर चेक
किया, मेरा वहम मात्र था। मैं शिमला मिर्च छाँटने हेतु आगे झुका, तभी वह सरसराहट दुबारा
हुई। सचेत मस्तिष्क ने सुझाया कि मामला कुछ गड़बड़ है। मैनें कनखियों से देखा तो लगा
कि वह बच्चा असहज रूप से आगे की ओर झुका हुआ है। मुझे मामला समझते देर नहीं लगी, लेकिन
स्वाभाविक रिफ्लेक्स एक्शन को रोकते हुए मैनें प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया। हम सब्जियाँ
लगभग ले चुके थे, लेकिन मैनें कुछ समय और व्यतीत कर कोशिश की कि उसे फोन चुराने का
पूरा अवसर मिले। मैनें जबरदस्ती और सब्जियाँ लेने का निर्णय किया। मित्र समझ नहीं पा
रहे थे कि मामला क्या है। बच्चे और अन्य का ध्यान बँटाते हुए मैनें शर्ट की तंग जेब
में फँसे मोबाइल को ढीला किया और अगले 10-15 सेकेण्ड उसके उत्साहित हाथों से मोबाइल
चुराये जाने की प्रक्रिया का आनन्द लेता रहा। साथ ही बगल में खड़े विवेक को फुसफुसाकर
पीछे चल रही गतिविधि के बारे में बताया। वे सब चतुराईपूर्वक उसके पीछे खड़े हो गये।
दुर्भाग्यवश जेब उसकी कल्पना से ज्यादा चुस्त निकली। हताश होकर मुझे तीन-चौथाई बाहर
निकले फोन से ही संतोष करना पड़ा और पलटकर उसका हाथ पकड़ लिया। हम सब उसे लेकर अगले
20 मिनट बाजार में टहलते रहे और अपने सामान खरीदते रहे। बच्चे के चेहरे पर कोई भाव
नहीं थे। न ही भय, न भागने का प्रयास, न रोना-गाना। पहली बार में ही उसने स्वीकार कर
लिया कि वह चोरी करने का प्रयास कर रहा था।
किनारे लाकर पूछताछ करने पर उसने अपना नाम रोहन
बताया। पुरानी दिल्ली स्टेशन पर माँ-बाप के साथ रहता है। वे भागलपुर के रहने वाले हैं,
जगह कोई साहबगंज। दोनों मजदूरी करते हैं, वह स्कूल नहीं जाता, चोरी करता है। आज पहली
बार फोन चोरी करने का प्रयास कर रहा था, बोहनी बिगड़ गई। माँ का फोन नंबर दिया।
बात करने पर उसकी माँ अनीता ने बताया कि वह अपने
पति की तबीयत खराब हो जाने के कारण भागलपुर वापस आ गई है और रोहन उसी के साथ है। दुबारा
कड़ाई से पूछने पर उसने कहा कि वह बच्चे को उसकी मौसी के सुपुर्द कर आई थी कि उसे कुछ
दिन बाद भागलपुर पहुँचवा दे। वे बहुत गरीब हैं, एक बच्चा गोद में है आदि रोना धोना..
हम उसके बेटे को छोड़ दें और पुलिस के पास न ले जायें। दाल में कुछ काला पाकर मैनें
कहा कि बच्चा पहले ही पुलिस को सौंपा जा चुका है और वे मुखर्जीनगर थाने में आकर बच्चे
को रिसीव कर लें। उसने अपनी दूरी का रोना रोया और कहा कि हम बच्चे को छोड़ दें।
रोहन और उसकी माँ की बातों में कई विरोधाभास
देखकर हमने मामले को आगे बढ़ाने का निश्चय किया। पुलिस की एक पैट्रोलिंग पार्टी आई,
जिसे सारी स्थिति समझाई गई। लेकिन दिल्ली पुलिस की लिंग व बच्चों के प्रति संवेदनशीलता
के खराब ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए मुझे बच्चे को सीधे उन्हें सौंपने में कोई समझदारी
नहीं दिखी। मैनें चाइल्डलाइन को 1098 पर फोन किया, और उन्हें सारी स्थिति समझाई। उन्होंने
इस क्षेत्र में काम करने वाले संबद्ध एनजीओ ’प्रयास’ से मुझे कनेक्ट किया। उनसे बात
करता-करता मैं थोड़ा आगे आ गया तभी सेकेण्डों में एक विचित्र घटना घटी—
मेरे फोन पर लगे होने के दरमियान बच्चे ने मित्रों
व पुलिस को बताया कि वे दो-तीन एक साथ काम करते हैं। एक ऑटोवाला उन्हें रोज सुबह लाकर
किसी बाजार में छोड़ता है, और शाम को वही वापस ले जाता है। उनके वापस जाने का समय हो
चुका है, अत: वो ऑटो उसे ढूँढ रहा होगा।
बाकी मित्र व पुलिस पार्टी जहाँ खड़े थे वह रास्ता
आगे जाकर डेड-एंड में समाप्त होता है। बच्चे के बताने के दो-तीन मिनट के भीतर उसी डेड-एंड
की तरफ से एक ऑटो तेज गति से आता दिखा और बच्चे ने चिल्लाकर बताया कि यह वही ऑटो है।
कॉन्सटेबल ने उसे रुकने का इशारा दिया, तो ऑटो बेहद तेज गति से भागने का प्रयास करने
लगा। पैट्रोलिंग पार्टी ने गाड़ी दौड़ाकर उसे पकड़ लिया। वह इस बात का कोई संतोषजनक उत्तर
दे पाने में अक्षम था कि आखिरकार वह किस तरफ से आ रहा था? उसने बच्चे को पहचानने से
इनकार किया, बच्चे ने उसकी शिनाख्त करते हुए बताया कि वह उसी के घर में रहता है। ड्राइवर
के पास न तो कागज़ात पूरे थे, न ही ऑटो मालिक के फोन नम्बर पर बात हो पा रही थी। वह
कसमें खा रहा था कि वह बच्चे को नहीं जानता, बच्चा अड़ा हुआ था कि वह उसी के घर में
रहता है। यह पूछे जाने पर कि ड्राइवर के घर में कौन-कौन है, उसने बताया कि उसकी बीवी
और बच्चे। ड्राइवर ने तुरंत कहा कि उसकी तो शादी ही नहीं हुई है, हम चाहें तो तस्दीक
कर लें। थोड़ी देर बाद वह अपनी बात से पलट गया, कि शादी तो हुई है लेकिन कोई बच्चा नहीं
है। वह अब बुरी तरह से फँस चुका था और मामला सुलझता नजर आ रहा था।
मैनें एनजीओ ’प्रयास’ को दुबारा संपर्क किया
और उनसे आगे की कार्यवाही के बारे में पूछा। उन्होंने मुझे बच्चे को पैट्रोलिंग पार्टी
को सौंप देने को कहा। पार्टी का फोन नंबर लेकर मैनें बच्चे को उन्हें सौंप दिया और
हम सब बातचीत करते 9 बजे घर लौट आये।
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई थी। घर लौटने
के आधे घंटे के भीतर पुलिस ने मुझसे संपर्क किया और कॉलोनी के बाहर आने का अनुरोध किया।
इस बीच उसकी माँ ने मेरे फोन पर कॉल करके बच्चे को दुबारा छोड़ देने का अनुरोध किया,
अपनी ग़लती की माफी माँगी और अपनी ग़रीबी की दुहाई दी।
मैं जब बताई जगह पहुँचा तो पुलिस पार्टी, ऑटोवाला,
बच्चा आदि सब हमारा इंतजार कर रहे थे। पता चला कि बच्चा साफ झूठ बोल रहा था। ऑटोवाला
निर्दोष था। बच्चे ने बताया कि उसका मौसेरा भाई उसका हैंडलर है। उन्होंने उसे सिखा
रखा है कि पुलिस के चंगुल में बेतरह फँस जाने पर दिखने वाले पहले ऑटो की तरफ इशारा
कर दो।
तुरत-फुरत एक योजना बनी। फोन को स्पीकर पर रखकर
बच्चे ने अपने मौसेरे भाई को कॉल किया और उसे लंबा हाथ लगने की सूचना दी। मौसेरे भाई
ने बताया कि वह करनाल बाईपास पर है और दो घंटे से पहले वहाँ नहीं पहुँच सकता। लेकिन
थोड़ी देर बात करने के बाद उसे शक हो गया और उसने फोन काट दिया। कॉन्स्टेबल के नौसिखियेपन
ने एक संभावित लीड खत्म कर दी। अबतक मामला इतना ज्यादा उलझ चुका था कि समझ आना बन्द
हो गया था कि कौन सही है कौन गलत? बच्चे द्वारा बताई जाने वाली हर बात दस मिनट के भीतर
गलत साबित हो जा रही थी। उन्होंने मुझसे थाने चलकर आधिकारिक रपट दर्ज कराने को कहा।
मैनें उनकी बात मान ली और उन्हीं के साथ तीमारपुर थाने पहुँचा।
विवेचक मुकेश कुमार (एस.आई) ने हमारा स्वागत
किया। उन्होंने अबतक की प्रगति हमें बताई (जो हमें पहले से मालूम थी) और पूछा कि हमलोग
इस मामले में आगे किस तरह बढ़ना चाहते हैं?
यह एक जटिल प्रश्न था। चाइल्डलाइन को फोन करने
और आगे के आपाधापी वाले दो-तीन घंटों में हमें ठंडे दिमाग से विचार करने का मौका नहीं
मिला था। पुलिस प्रणाली का एक हिस्सा होने के बावजूद मेरे मन में स्वाभाविक भय था कि
औपचारिक शिकायत का बच्चे का भविष्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है। यदि हम एफ.आई.आर
दर्ज कराते तो निश्चित रूप से वह बच्चा अवैध हाथों में जाने से बच जाता। फिर उसकी पृष्ठभूमि
की पूरी जाँच होती, यदि वह किसी रैकेट या सिंडिकेट का हिस्सा होता तो उसका पर्दाफाश
होने की संभावना थी, वह ट्रायल होने तक किसी शेल्टर में रहता न कि थाने में।
दूसरी तरफ औपचारिक शिकायत करने का भय यह था कि
दोषसिद्धि पर उसे बाल/किशोर सुधार गृह में भेजा जाता। जहाँ से 99% संभावना थी कि वह
एक शातिर अपराधी बनकर निकलता। (इन सुधार गृहों का ट्रैक रिकॉर्ड हताशाजनक स्तर तक खराब
है) पुन: एन.जी.ओ. के कार्यकरण पर भी पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता था। रैकेट का
पर्दाफाश इस बात पर निर्भर करता कि विवेचक ने तफ्तीश कितनी गहराई में जाकर की है और
चार्जशीट कितनी मजबूत है?
इन सबको देखते हुए सामने मौजूद बच्चे का भविष्य
बचाना एक चिंता की बात थी। यदि हम अपनी शिकायत वापस लेते तो बच्चा अपने विधिक अभिभावक/माँ-बाप
को सौंप दिया जाता। ऐसी स्थिति में आगे कोई औपचारिक तफ्तीश नहीं होती, लेकिन वह सुधार
गृह जाने से बच जाता। यह एक अच्छी स्थिति थी, लेकिन इसमें डर यह था कि माँ-बाप के आने
तक बच्चा पुलिस अभिरक्षा में रखा जात्ता, जहाँ उसके साथ जाने कैसा सुलूक होता? और सबसे
बढ़कर यदि उसके अभिभावक ही उसके हैंडलर हुए तो क्या? कहीं पुलिस अपना पल्ला झाड़ते हुए
उसे किसी ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे को सौंपकर ही निश्चिंत न हो ले।
लेकिन विवेचना अधिकारी मुकेश का व्यवहार आश्चर्यजनक
रूप से ग़ैर-पुलिसिया लगा। उन्होंने हमें भरोसा दिलाया कि वे अपने स्तर से अनौपचारिक
तफ्तीश किसी औपचारिक तफ्तीश से ज्यादा गंभीरता से करेंगे तथा बच्चे को उसके स्थानीय
अभिभावक को नहीं बल्कि उसके असली माँ-बाप को ही सौंपा जायेगा। तथा इस दरम्यान बच्चा
किसी सज्जन के घर पर रहेगा।
मुझे पता था कि इन दावों/वादों के गलत साबित
होने की संभावना बहुत ज्यादा है लेकिन दूसरे विकल्प में उसके भविष्य के बर्बाद होने
की संभावना कहीं ज्यादा लग रही थी। यह एक एथिकल डाइलेमा था, जिसमें कानून/नैतिकता का
झुकाव पहले विकल्प की तरफ स्पष्टत: था, लेकिन हम लोगों ने अंतरात्मा की आवाज पर ज्यादा
भरोसा करते हुए मुकेश जी की सद्भावना पर दाँव लगाने का निश्चय किया। फोन नंबरों तथा
जानकारी के आदान-प्रदान हुए और मैनें लिखित तौर पर अपनी शिकायत वापस ली। मुकेश ने हमें
धन्यवाद दिया और हम रात के 11:30 बजे घर वापस लौटे।
सोचा था कि मामले से जुड़ी कुछ तस्वीरें भी पोस्ट
करूँगा, लेकिन मन नहीं कर रहा। शायद फिर कभी..
अपडेट: रात के 3:30 बजे मेरा फोन बजा। मुकेश
का फोन था। वे 4 बजे मेरे कमरे पर आये, नींद से जगाने के लिये माफी माँगी। मुझे जो
बात बताई, उसका शक तो था लेकिन सुनकर पाँव तले जमीन खिसक गई। जिनका दावा बच्चा कर रहा
है, वे उसके माँ-बाप नहीं हैं। उन सबके फोन अब बंद हो चुके हैं। वह शायद अनाथ है या
बहुत पहले अपहृत। फिलहाल उसके बांगलादेशी होने की संभवानाएं टटोली जा रही हैं। मुकेश
मुझे अपडेट देकर, दुबारा माफी माँगकर, एक गिलास पानी पीकर सीढ़ियों से नीचे उतर चुके
हैं। मैं नीचे देखता हूँ, बच्चा अँधेरे में उनका हाथ पकड़कर चल रहा है। दिल्ली पुलिस
का यह दुर्लभ मानवीय चेहरा ड्यूटी खतम होने के बाद भी पसीने से लथपथ दौड़धूप कर रहा
है और मुझे महसूस हो रहा है कि शायद मेरी अंतरात्मा ने सही सलाह दी थी। जानता हूँ कि
अभी उम्मीद करना Hopelessly Early होगा, लेकिन एक चुटकी उम्मीद अभी कायम है।
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