भारतीय लोकतंत्र का एक पर्व और बीत गया। अब तो रोजमर्रा की बात हो गई है। बल्कि अब अगर सुबह का अखबार खून के छींटों से तर न आए, तो लगता है अभी रात ही चल रही है, अभी ख्वाब टूटा नही है, अभी सुबह ठीक से हुई नही है।
सही ही है। आम आदमी की जेब में पैसे न हों तो ईद, होली, दीवाली चार साल में एक बार आयें तो भी मँहगे लगते हैं। हमारी लोकशाही की नजरे इनायत है कि हर महीने मुहर्रम का त्यौहार मनाने का मौका मिल रहा है। जय लोकतंत्र, जय छक्कई ।
अब कुछ सही है। गुस्से की जगह बेचारगी ने ले ली है। सब शांत हो रहा है। कई प्रतिक्रियाएं सामने आयीं। कई शेड्स थे इनमें- रौद्र, शोक, स्ट्रेटेजी, गुस्सा, क्षोभ, व्यंग । लेकिन एक बात कॉमन थी- सिस्टम के लिए अनास्था।
अपनी प्रतिक्रियाओं में अभिषेक ओझा जी, प्रशांत प्रियदर्शी जी, सतीश पंचम जी अत्यधिक मुखर और क्रुद्ध दिखे। इस दौरान आप की टिप्पणियां नब्बे प्रतिशत राष्ट्रवादी जनमानस का प्रतिनिधित्व करती दिखीं। आप लोगों का विशेष आभार। निस्संदेह अगर परिस्थितियां नहीं बदलीं, तो ब्लॉग की भाषा जरूर बदल जायेगी। यह ध्यान रहे कि मैनें नब्बे फीसद राष्ट्रवादी जनमानस की बात की। यह व्यापक सर्वे का विषय है कि ११० करोड़ में राष्ट्रवादिता का प्रतिशत कितना है!
वहीं कुछ लोगों की प्रतिक्रिया में गज़ब का संतुलन दिखा। परिवार के वरिष्ठ सदस्य की तरह दिनेशराय द्विवेदी जी ने लगभग हर किसी कों यथोचित प्रतिक्रिया दी। कहीं संबल, कहीं उलाहना, सब कुछ। ज्ञानदत्त जी काफी शांत रहकर भी दूर की कौड़ी सोचते रहे। अनुराग जी, जिनकी कलम की काफी इज्ज़त करने लगा हूँ, वे भी हर थोथे गुस्से कों हकीकत का आईना दिखाते मिले, और हर जायज चिंगारी कों हवा भी देते रहे। एक तरफ़ अनिल पुसदकर जी लोकतंत्र के पहरुओं के गैरवाजिब कृत्यों के बारे में बताते रहे, वहीं चिपलूनकर जी मीडिया की शर्मनाक हरकतों के बारे में। धन्यवाद रंजना जी कों भी,इस आड़े समय में सभी कों सहेजने के लिए।
कुछ अत्यन्त उग्र प्रतिक्रियाएं भी सामने आयीं। एक 'वी हेट पाकिस्तान' नामक ब्लॉग भी। वैसे जाती तौर पर मैं फैन क्लब या हेट क्लबों के खिलाफ हूँ, लेकिन आज इनका विरोध करने कि स्थिति में ख़ुद कों नहीं पाता. देखिये, ये स्पोंटेनियस ओवरफ्लो ऑफ़ इमोशंस हैं, इन्हें तो आप रोक नहीं सकते। कितनी भी अहिंसा झाड़ लीजिये, समता-सहिष्णुता जैसी बातें कर लीजिये, लेकिन इस सच्चाई से आप मुंह नहीं मोड़ सकते कि अवाम की आवाज़ कमोबेश यही है।
इन्हीं राष्ट्रवादी सुरों में एक साहब अपना बेसुरा राग भी अलापते हुए मिले। उनका नाम लिए ही बताना चाहूँगा, कि प्रतिक्रियाओं कों अलग ही मोड़ देना चाहते थे। एक पुरानी पोस्ट पर आह भरते उन्हें पाया था कि 'हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम , वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।' वहीं त्रासदी के तुरंत बाद की पोस्ट में हमारे पूरे रवैये कों ही ग़लत ठहराते हुए दिखे। याद दिला रहे थे गाँधी बाबा का अजीम कौल कि अगर कोई एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो। समझाइश दे रहे थे कि किसी का भी काम हो, हमें क्या मतलब। जबतक हमारे सुरों में शोक, भाईचारा और सरकार के लिए गुस्सा है, तबतक सही है। लेकिन गुस्सा जहाँ पड़ोसी मुल्क की जानिब मुड़ा, वहीं जनाब के पेट में मरोड़ उठनी शुरू हो जाती है। समझाते हैं कि नफरत का परचार करके गुलाब के फूल नहीं हासिल किए जा सकते। पता नहीं एक हिन्दुस्तानी का इतना दर्द पाकिस्तान के लिए क्यों!
देखिये साहब, हम फ्रस्टेटेड लोग हैं। अब खुश! हमें तो गरियाना है, सामने चाहे कोई हो। रही बात पाकिस्तान की, तो उसे गरियाये बिना न तो आठ साल कि उम्र में कंठ फूटता है, न अठारह में रेखें उभरतीं हैं, और न ही अठहत्तर में मरणासन्न व्यक्ति कों मोक्ष मिलता है। अब आपको तकलीफ होती है, तो आदत डाल लीजिये, बहुत जरूरत पड़ने वाली है।
अग्रज डॉक्टर सिद्धार्थ जी ने बड़ी सार्थक टिप्पणी की -'सब हमने ही तय करना है, वोट हमारे हाथ में है।' प्रश्न यह भी उठा कि क्या बिना वक्त गंवाए पीओके के आतंकी ठिकानो पर हमला कर देना चाहिए? यह यक्षप्रश्न पिछले पन्द्रह सालों से सरदर्द बना हुआ है, लेकिन जवाब आजतक नहीं मिला।
शायद जवाब है भी नहीं। रिनोवेशन हमेशा अन्दर से बाहर की तरफ़ होता है। पहले घर का आंगन लीपा जाए, तभी दुआर पर खरहरा उठाना चाहिए। अफजल की फाँसी रोकने के लिए जो हमदर्द सामने आए, वे आम आदमी नहीं थे। एक राष्ट्रीय पार्टी के मुखिया थे, एक मुख्यमंत्री की नाजों में पली साहबजादी थीं जिन्होंने रो-रोकर दुपट्टे भिगो दिए। साहब, हमें घर के दीमकों से फुर्सत मिले तब तो बाहर के दुश्मनों की सोचें।
प्रशांत भाई की पोस्ट 'जल्द ही सब लखपति बनने वाले हैं' के प्रत्युत्तर में युवा कवि विनीत चौहान कि चार पंक्तियाँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ-
तुमने दस-दस लाख दिए हैं सैनिक की विधवाओं कों,
याने कीमत लौटा दी है वीर प्रसूता माँओं कों,
लो मैं बीस लाख देता हूँ तुम किस्मत के हेठों कों,
हिम्मत है तो मंत्री भेजें लड़ने अपने बेटों कों।
सलाम करता हूँ मेजर संदीप के पिता को, करकरे साहब की विधवा कों। आपकी प्रतिक्रिया तो फ़िर भी शिष्ट रही। आपकी जगह अगर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कोई औरत होती, और सामने कोई खान साहब, या यदुवंश कुलभूषण होते तो उन्हें लतमरुआ, दहिजरा, ** पियना जैसे विशेषणों से नवाज चुकी होती. करकरे साहब की शहादत के विषय में काफी कुछ अनुचित लिखा जा रहा है, जो ठीक नहीं. उनकी शहादत को व्यक्तिगत आलोचना से ऊपर रखना चाहिए. अगर सीमा पर गोली खाकर मुख्तार अंसारी, शहाबुद्दीन, अबू आज़मी, या राज ठाकरे जैसा कोई मरता है, तो भी उसकी मौत को सलाम करना चाहिए (बशर्ते गोली किसी पाकिस्तानी सैनिक ने चलाई हो, भले ही इन्होंने पीठ पर खाई हो.) करकरे साहब की तो इनसे कोई तुलना ही नहीं, लाख दर्जा बेहतर हैं इनसे.
पोस्ट में आपकी बात ही करता रह गया. अपनी बात फ़िर कभी. 'गमे दुनिया भी गमे यार में शामिल कर लो, नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें.'
