लोकसेवा में अंग्रेजी की अनिवार्यता से जुड़े भ्रम और रची गई साजिशें...


सिविल सेवा में अंग्रेजी के लिए बढ़ते फेवेरेटिज्म के विरोध में हिंदीभाषी अभ्यर्थी कई दिनों से विरोध कर रहे हैं| कल सरकार द्वारा दिये गए आश्वासन के बाद 8 दिनों से चल रहा अनशन तोड़ दिया गया| आन्दोलन में कुछ कमियाँ अवश्य रहीं, लेकिन कई दिशाओं से इस आन्दोलन की मूल मांगों को मिसगाइड करने और भ्रम फैलाने का भी कार्य किया गया| इसे सी-सैट विरोधी, इंजीनियर-डॉक्टर विरोधी आदि रूपों में भी प्रचारित करने की साजिश हुई.. कई विचित्र प्रश्न भी उठे- जैसे, बिना अंग्रेजी जाने दक्षिण भारत में कोई कैसे कार्य कर सकता है? अंग्रेजी दुनिया से जुड़ने के लिये कितनी जरुरी है? केवल 8 अंग्रेजी के प्रश्नों के लिये इतनी मारामारी..!! थोड़ी बहुत अंग्रेजी तो हर किसी को जाननी ही चाहिये.. आदि, आदि..

2007 तक मुख्य परीक्षा में 40-45% तक हिन्दीभाषी हुआ करते थे और फाइनल मेरिट में 30-40% स्थान ले आते थे, दो-तीन तो टॉप-10 में भी होते थे, और आज गिरते पड़ते ऐसी हालत में हैं कि हालिया परीक्षा में अंतिम रूप से चयनित 1122 छात्रों में से मात्र 26 हिंदी माध्यम से हैं, जबकि प्रारम्भिक परीक्षा हेतु आवेदन करने वालों में हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा के आवेदकों का अनुपात आज भी 50-50 है| दुर्भाग्यपूर्ण यह ज्यादा है कि टॉप-100 में भी हिंदी का कोई छात्र नहीं है| अर्थात इस वर्ष संभवतः कोई हिन्दीभाषी आईएएस नहीं बनेगा| बात केवल 26 सेलेक्शन तक सीमित रहती तो भी कोई बात नहीं थी| बात तो यह है कि हिंदीभाषी जो चयनित भी हो रहे हैं, वे आईएएस-आईपीएस-आईएफएस नहीं बन रहे| हिंदी के 20-22 सेलेक्शन देकर सबको 18-20वें रैंक की अलाइड सेवाएं दे भी दी गईं तो क्या फायदा..

यूपीएससी ने हमेशा इस बात की दुहाई दी है कि वे हिंदी के साथ कोई पक्षपात नहीं करते| लेकिन जब "What are the implications of the report considered?" का हिंदी अनुवाद "आलोच्य प्रतिवेदन की क्या-क्या विवक्षाएं हैं?" किया जाता है, प्रारंभिक परीक्षा में पूछा जाता है कि "What is the reason of thunder in clouds?" और इसी प्रश्न का हिंदी अनुवाद "मेघों में तड़ित के क्या कारण हैं?" किये जाने के कारण कोई प्रतिभागी सवाल गलत कर आता है तो साजिश का शक होता ही है| मुख्य परीक्षा में कई प्रश्नों में जानबूझकर कई अंग्रेजी शब्दों का हिंदी अनुवाद किया ही नहीं जाता.. 2011 मुख्य परीक्षा में कई हिंदी भाषी छात्र 20 अंक का यह प्रश्न छोड़कर चले आये कि "PCPNDT एक्ट की क्या विशेषताएं हैं?" जबकि "जन्मपूर्व लिंग परीक्षण अधिनियम" के बारे में उन्हें सारी जानकारी थी| हद यह कि आन्दोलन के दौरान ही ली गई केन्द्रीय पुलिस बल की परीक्षा में यूपीएससी ने 20 अंक का अंग्रेजी में निबंध पूछा- "Mass transit systems are key to reduce fuel consumption" वहीँ यही प्रश्न हिंदी में पूछा गया "तीव्रगामी परिवहन सुविधाएं ईंधन की खपत कम करने और पर्यावरण सुधार हेतु आवश्यक हैं".. यूपीएससी को आज तक 'Implicit' हेतु 'अन्तर्वलित' से उपयुक्त कोई शब्द नहीं मिला| अवश्य ध्यान दीजियेगा कि अधिसूचना में यह स्पष्ट तौर पर वर्णित है कि अनुवाद में किसी किस्म की त्रुटि होने पर अंग्रेजी वर्जन को मान्यता दी जायेगी|

इस प्रक्रिया में सैकड़ों ऐसे योग्य लोगों को जानता हूँ जो अपने अंग्रेजी सहअभ्यर्थियों से न केवल बराबर बल्कि कई गुना योग्य थे, लेकिन किसी अलाइड सर्विस को पा सकने में भी सफल नहीं हो सके| सिविल सेवा के अपने पहले प्रयास में हिंदी से इंटरव्यू देने का खामियाजा मुझे 35% अंक पाकर चुकाना पड़ा| इस दुर्घटना के मात्र 2 महीने बाद उसी यूपीएससी के उसी बोर्ड में मैंने केन्द्रीय पुलिस सेवा का इंटरव्यू हिंदी माध्यम से होने के बावजूद अंग्रेजी में दिया और 77% अंकों के साथ अखिल भारतीय स्तर पर चौथी रैंक हासिल की| मेरे जैसे योग्य सैकड़ों छात्र केवल हिंदी मोह के कारण परीक्षा से बार-बार छंट रहे हैं| 

हिन्दी माध्यम से परीक्षा देने वाल छात्र उत्तर भारत के कुछ गिने-चुने केन्द्रों तक सीमित रहते हैं.. यह एक विचित्र संयोग है, कि यूपीएससी की स्केलिंग प्रक्रिया में सबसे ज्यादा कम अंक इन्हीं केन्द्रों पर आते हैं| अविश्वसनीय रूप से छात्रों को भूगोल और समाजशास्त्र जैसे विषयों में 250 में 2 अंक, 3 अंक तक हासिल हुए हैं| निगवेकर समिति ने सिफारिश की थी कि एक ही शिक्षक से पूरे सामान्य अध्ययन की कॉपी जंचवाने की बजाय अलग-अलग विषय के विशेषज्ञों से जंचवाई जाये| स्वाभाविक है कि इतिहास के शिक्षक को भूगोल-अर्थव्यवस्था-विज्ञान-अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध-लोक प्रशासन की भी गंभीर जानकारी हो, यह संभव नहीं| इस पर यह मुद्दा तब और गंभीर हो जाता है जब अन्ना यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी माध्यम में इतिहास पढ़ाने वाले उस शिक्षक के पास बिहार के किसी हिन्दीभाषी छात्र की कॉपियां जंचने को आयें| यह ध्यान रखें कि हिंदी और अंग्रेजी की उत्तर पुस्तिकाएं अलग-अलग प्रोफेसर नहीं चेक करते.. जब प्रश्नों का तात्पर्य ठेठ हिन्दी के विद्यार्थियों की समझ से बाहर है तो अंग्रेजी का प्रोफेसर उसे कितना समझ पायेगा, और समझ कर कितना अंक देगा, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है|       

लेकिन बात इतनी छोटी नहीं है| बात यह है कि लोकसेवा हेतु अंग्रेजी की आवश्यकता क्यों पड़े? अगर कोई तमिल या मलयाली बिना हिंदी जाने यूपी या बिहार में सेवा दे सकता है तो कोई हिन्दीभाषी बिना अंग्रेजी जाने तमिलनाडु में क्यों नहीं? और उससे भी बढ़कर यह कि तमिलनाडु या केरल में सेवा देने हेतु अंग्रेजी की जानकारी अनिवार्य क्यों हो भला..? क्या वे यूरोप के हिस्से हैं..? अनिवार्यता तो तमिल या मलयालम जानने की होनी चाहिये। आमजन से संवाद बनाने की भाषा वही हैं.. और आपकी जानकारी के लिये बता दूँ कि कैडर आवंटित होने के बाद उस राज्य की भाषा और अंग्रेजी भी प्रशिक्षण अकादमी में काम भर की सिखा दी जाती है। 

वस्तुतः अंग्रेजी का आग्रह भाषाई सहूलियत के लिये है ही नहीं। अंग्रेजी की जरुरत अधिकारी को केवल अपने वरिष्ठों से बात करने में पड़ती है। अंग्रेजी की अनिवार्यता मात्र इसलिए है ताकि शोषणकारी नौकरशाही का आदिम औपनिवेशिक स्वरूप बनाये रखा जा सके.. अंग्रेजी इसलिये जरुरी है ताकि नौकरशाही का अभिजात्यवर्गीय स्वरूप यथावत बनाये रखा जा सके और जनसरोकारों से निर्लिप्त रहकर, आमजन के दुःख-दर्द से अनभिज्ञ रहते हुए अपने राजनैतिक आकाओं की हुकुमपरस्ती की जा सके। अगर नौकरशाही को लोकसेवा में परिवर्तित करना है तो अपने तुच्छ सरोकारों को किनारे रखते हुए हर एक को इस आन्दोलन को अपना वैचारिक समर्थन देना होगा। 

आप जैसे भी चाहें, इस आन्दोलन में भागीदार बनें.. आप मोदी समर्थक हैं, उन्हें सही सलाह देने के लिए साथ आइये.. आपका मोदी विरोध का एजेंडा है, साथ आइये.. आप अराजकतावादी हैं, साथ आइये.. आप नौकरशाही से घृणा करते हैं, साथ आइये.. आप वामपंथी हैं, व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं, साथ आइये.. आप संघी हैं, नेहरू की विरासत पर आखरी चोट करना चाहते हैं, साथ आइये.. आप भूतपूर्व/वर्तमान नौकरशाह हैं, सेवा की शुचिता बनाए रखना चाहते हैं, साथ आइये.. आप प्रिंट/इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हिंदी की कमाई खाते हैं तो जरुर साथ आइये वरना जनता माफ़ नहीं करेगी.. बाकी तो "समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध.."

राहुल क्या वाकई इतने ही भोले हैं, या यह पीआर एजेंसी का मास्टरस्ट्रोक है..

राहुल द्वारा अर्नब को दिये गये इंटरव्यू के लतीफे बन रहे हैं| लेकिन इस इंटरव्यू से कुछ बातें खुलकर सामने आई, जो सबको समझ लेनी चाहिये- कांग्रेस के समर्थकों को भी, बीजेपी के भी..

1. राहुल की परवरिश बेहद ट्रॉमेटिक माहौल में हुई है.. वे भावनात्मक रूप से वंचित रहे हैं| वैवाहिक या गंभीर रोमांटिक सम्बन्ध इस कमी को पूरा कर सकते थे, जो नहीं हो पाया है|

2. उनका आईक्यू ख़राब से औसत के बीच में है.. समाज और देश के बारे में उनकी समझ एक औसत बीससाला ग्रेजुएट के बराबर है..

3. वे बहुत ज्यादा अंतर्मुखी, भयभीत, असुरक्षा के शिकार हैं| आवाज को ऊँचा करना, तैश दिखाना, पलट कर सवाल पूछना, बढ़ी हुई दाढ़ी, त्यौरियां उनका Ego Defense Mechanism है| उनका भय और असुरक्षा उनकी बॉडी लैंग्वेज से स्पष्ट है|

4. राहुल एनजीओ वालों के साथ बहुत ज्यादा समय बिता रहे हैं और देश के विकास की रणनीति के बारे में उन्हें लोक प्रशासन के किसी पहुंचे हुए प्रोफेसर ने चार बातें बता दी हैं| वे घुमा-फिरा कर वही सिस्टम-प्रोसेस-स्ट्रक्चर का पहाड़ा रट रहे हैं|

5. राहुल बेईमान नहीं हैं| वे खुद को बदलने और सीखने के लिए बेचैन हैं, लेकिन उनकी अपनी बौद्धिक सीमायें है| वे कुछ करने के लिये व्यग्र हैं, लेकिन समझ नहीं रहे हैं कि पिछले चार सालों में उनकी पार्टी की सरकार ने इतनी ज्यादा गंद मचा दी है, कि अब उनके द्वारा डिफेंस के लिये कुछ बचा नहीं है| इसी व्यग्रता में वे समकालीन विमर्श की दिशा बदलने का असफल, होपलेस प्रयत्न कर रहे हैं|

6. वे मोदी से फेस-टू-फेस लड़ना चाहते हैं, लेकिन घाघ राजनीतिज्ञ माँ ऐसा नहीं होने देना चाहती, क्योंकि हार की सूरत में फिर प्रियंका को लाने की आवाज उठेगी| सोनिया चाह रही हैं कि राहुल या तो बैकडोर से पीएम बन जाएँ या बीजेपी सुसाइड बटन दबा ले ताकि राहुल का मार्ग प्रशस्त हो|

7. राहुल राजनीति बिलकुल नहीं जानते हैं| उनके जैसे साधारण IQ वाले अतिभावुक व्यक्ति से राजनीति का मंझा खिलाड़ी होने की उम्मीद नहीं की जा सकती| लेकिन कोई अंतिम निर्णय देने से पहले यह याद रखना होगा, कि मोरारजी जैसे घाघ लोगों ने भी इंदिरा को शुरू में गूंगी गुड़िया समझने की गलती की थी|

मैं राहुल से सहानुभूति रखता हूँ| इस इंटरव्यू के बाद एक व्यक्ति के नाते राहुल के लिए मेरे मन में स्नेह और बढ़ गया है| बचपन के न भरे हुए जख्मों से जेहन पर पड़े अनगिनत घाव के साथ राहुल प्रेम और स्वीकार्यता के भूखे प्रतीत होते हैं| सोनिया की एक माँ के तौर पर यह असफलता है कि वे अपने पुत्र को ऐसी पीड़ा से गुजरने दे रही हैं|

लेकिन राहुल राजनीति में रहकर गलती कर रहे हैं| उनके टेम्परामेंट के हिसाब से राजनीति उनके लिये सही जगह नहीं.. अपनी इस कमी को उन्हें ईमानदार तरीके से स्वीकार करना चाहिये कि जिन हाई-फाई विचारों को वे आगे बढ़ा रहे हैं, अपने अल्पज्ञान के कारण ऐसा करते हुए वे बेहद हास्यास्पद लग रहे हैं| ऐसा ही, जैसा पांचवी का छात्र पोस्ट-ग्रेजुएशन का प्रश्नपत्र हल कर रहा हो|

उन्हें प्रेम करना चाहिये, एक समर्पित स्त्री से विवाह करना चाहिये खासतौर पर यह देखते हुए कि उनके खानदान के ज्यादातर वैवाहिक सम्बन्धी समर्पित कम, सत्ता के आतुर ज्यादा रहे हैं|

मैं उम्मीद करता हूँ कि नरेन्द्र मोदी भी अपनी मैस्कुलिन छवि और अहम् को दरकिनार करते हुए, अपने व्यक्तित्व की तमाम कमजोरियाँ उद्घाटित करने का रिस्क लेते हुए मुख्यधारा के किसी निष्पक्ष पत्रकार(?) को कोई ऐसा ही इंटरव्यू देंगे| हालांकि राहुल के पास मुख्यधारा की सेक्युलर मीडिया का कुशन है, और दस साल बाद मुंह खोलने की लक्ज़री.. मोदी दोनों ही चीज़ें अफ्फोर्ड नहीं कर सकते|

(या तो ऊपर लिखी सारी बातें सत्य हैं, या फिर जापानी पीआर एजेंसी का दाँव काम कर गया..)

प्रेम एक ही व्यक्ति से क्यों हो जबकि आमोर कुएर्दो नो एस आमोर..?

प्रेम एक ही व्यक्ति से क्यों हो? और एक बार शुरू हुई प्यार की तलाश किसी एक ही व्यक्ति पर जाकर क्यों थमे? क्या जरुरी है कि प्यार का कोई मकसद हो ही? बेमकसद प्यार क्या प्यार नहीं?

प्रेम की परिणति एक ही व्यक्ति क्यों हो? एक समय में एकाधिक व्यक्तियों से प्रेम क्यों नहीं किया जा सकता? ऐसा क्यों  है कि एक शख्स पर जाकर ख़त्म हुई प्यार की तलाश वहीँ से एक नए क्वेस्ट की तरफ प्रयाण नहीं कर सकती?

चित्र गूगल से साभार
कितना प्रेम जरुरी है? कितने से इंसान की प्यास बुझ सकती है? कैसे पता चले कि जितना प्रेम किया जा सकता था उतना हो चुका? कैसे पता चले कि अब प्रेम की जरुरत पूरी हो चुकी? प्रेम मे सैचुरेशन पॉइंट आया कि नहीं, कैसे पता चले? ये भी तो हो सकता है कि जिसे अपने जीवन में प्रेम ही प्रेम चहुँओर दिख रहा हो, उसे पता ही न हो कि प्रेम की सीमा यही नहीं? प्यास प्यास का फ़र्क है| किसी की प्यास दो घूंट में बुझ सकती है किसी के लिए समंदर भी कम पड़े! यह भी हो सकता है कि जिसकी प्यास अभी बुझ गई है, वह दुबारा पनप उठे! यह भी हो सकता है कि किसी को उठ रही प्यास का पता ही न चले! कोई ऐसा भी हो सकता है कि जो समझ रहा हो कि उसकी सारी तृष्णा शांत हो चुकी है और अन्दर से उठने वाली यह चीज़ प्यास तो हो ही नहीं सकती! कोई प्यासा ऐसा भी हो सकता है जो सिर्फ लोक-लाज से अपनी प्यास दबाये बैठा है! उसकी प्यास क्या प्यास नहीं?

नहीं ! प्रेम सीमाओं में नहीं बंध सकता| प्रेम जैसी उदात्त भावना शर्ते नहीं जानती, बंधनों से अनभिज्ञ होती है| उसे शर्तों और सीमाओं में बांधना प्रेम के साथ क्रूर अत्याचार है| सीमाबद्ध प्रेम भले ही कुछ और हो लेकिन प्रेम तो नहीं ही हो सकता| प्रेम के साथ किया जा सकने वाला सबसे बेहया मज़ाक यही है कि उसे सीमाओं में बांध दिया जाए|

मानव बंधा होता है, प्रेम की भावना उसे स्वतन्त्र करती है, उसे पंख देती है| उसके ह्रदय में नए सपने उगाती है, उसे ऐसे शख्स से मिलाती है जिसके दिल में भी ऐसी ही भावना हो| समाज दायरे तय कर देता है और फिर उसी दायरे में उन्हें प्रेम ढूँढना पड़ जाता है| कितना क्रूर मज़ाक है! ऐसा ही है, जैसा कि डाल पर सहमे बैठे कपोतशिशु को कोई हौसला दे कि उसके पंख मजबूत है और उसके जीवन की सार्थकता निर्बाध उड़ान में ही है, और एक बार जब वह कपोत साहस भर उड़ना सीख ले तो उसे सींखचों में बंद कर दिया जाय कि अब तुम्हारी उड़ान की सीमा इन दीवारों तक ही है| इससे भी बड़ा अपराध वह कपोत तब अपने साथ स्वयं ही करेगा जब उसे यह सत्य लगने लगे कि उड़ान इतनी ही सही जितनी इन दायरों के भीतर हो|

मनुष्य ससीम है, परम तत्व या प्रकृति असीम|  जो भी शुभ है, सत्य-शिव-सुन्दर है, उसका उत्स भी असीम में है और उसकी चरम परिणति भी असीम मे| प्रेम से शुभ क्या होगा? तो प्रेम भी अपनी सत प्रकृति में असीम ही हो सकता है| अन्यथा जो भी सीमित है, वह असत है, प्रेम का आभास है| प्रेम नहीं, उसकी मिथ्या प्रतीति है!

मनुष्य स्वभावत: ससीम है, लेकिन है परम तत्व का अंश (या पूर्ण!) अतः असीम के प्रति आकर्षण महसूस करता है| यदि यह भाव सीमित हो जाए तो असहज होने लगता है| प्रेम के प्रति आकर्षण भी ऐसी ही वृत्ति है| जबतक निर्बाध हो, तभी तक सहज है| जब सीमित हुआ तो कचोटने लगता है|

कैसी भी सीमा हो- कितनों से हो सकने की/कितनी बार हो सकने की/एक बार में कितनों से हो सकने की/वासना की हद तक शारीरिक हो जाने की, या आराधना की हद तक प्लेटोनिक हो जाने की/एक बार हो जाने के बाद दूसरे से हो सकने की.. सभी सीमाएं प्रेम को भ्रष्ट करती हैं, उसे दैवीय धरातल से पाशविक तक ले जाती हैं| मनुष्य को असहज करती हैं| 

असहज मनुष्य दुखी होता है| वह प्रेम में नई शुरुआत से डरता है, शुरू हो जाने पर जारी रखने से डरता है, जारी प्रेम के भवितव्य से डरता है, प्रेम की परिणति विरह में होने पर पर अवसाद में चला जाता है, जीवन निरुद्देश्य पाने लगता है, शनैः शनैः उससे हार मान लेता है, असफल होता है| प्रेम का झूठा आभास उसे जीवन की निकृष्टता की ओर उन्मुख कर देता है|

और ऐसे असहज मनुष्य के प्रेम की परिणति यदि संयोग में होती है तो उसका भय अनंतकाल तक जारी रहने को अभिशप्त हो जाता है| प्रेम के भवितव्य का डर समाप्त हो जाने पर नये नए डर घर करने लगते हैं| बच्चों का डर, उनके भविष्य का डर, समाज का डर, आकांक्षाएं पूरी न हो पाने का डर..

चित्र विकिपीडिया से साभार
इन सबमें वह प्रेम कहाँ है? कहाँ है उसकी पवित्र अनुभूति? कहाँ है वह पहली बार उठने वाला रोमांच? कहाँ है वह कुछ वर्जित करने का संतोष? कहाँ है वह सभी बंधन तोड़ देने का साहस देने वाली 'हाँ'..?

ऐसे अपूर्ण प्रेम में पहली परिणति को प्राप्त हुए लोग जितने अभागे हैं, उससे कहीं ज्यादा वे जो दूसरी परिणति को प्राप्त हुए| अपूर्ण, मिथ्या प्रेम का भ्रम जितना जल्द टूट जाए बेहतर है| जीवनपर्यंत चलने वाला यह मिथ्याभास मनुष्य को खोखला कर देता है|

अपनी सत प्रकृति में प्रेम अनंत है| एक बार में कईयों से हो सकता है, एक के बाद कईयों से हो सकता है| प्रेम की अपनी यह माँग हमेशा कसक पैदा करती है| एक ही प्रेम को जीवन का आलंबन बना बैठे लोग हमेशा दुखी रहेंगे| एक सुन्दर उदाहरण "मैसेज इन अ बोटेल" है..

प्रेम में ये शर्तें नहीं चलेंगी| प्रेम तो सीमाएं जानता ही नहीं| एक सच्चा प्रेमी जितनी गहनता से अपनी प्रेमिका को चूम सकता है, वह उतनी ही शिद्दत से अपने खेत की मिट्टी भी जोत सकेगा| उसके चुम्बन में जितनी गरमाहट होगी, उतनी ही मुल्क की सरहद पर बह रहे उसके लहू में भी| सच्चे प्यार में दीवानगी जरुर होगी| लातिनी कहावत है- "आमोर कुएर्दो नो एस आमोर" माने "बाहोश मुहब्बत, मुहब्बत नहीं"                   

(जाड़ों की किसी दुपहर इन्द्रियातीत तन्द्रा के दौरान आये इनकोहेरेंट विचार)

जिउतिया..

सुबह सुबह माँ का फोन आया। पिछले कई वर्षों का क्रम है कि जिउतिया के दिन प्रातःकाल में फोन आता है, मैं अधनींदा फोन उठाता हूँ, वो फोन पर ही जिउतिया पहनाने का यत्न करती है, मैं वर्चुअल जिउतिया के गले में डाले जाने की कन्फर्मेशन देता हूँ, फिर आशीर्वादों की अंतहीन श्रृंखला.. यह क्रम तब भी कायम रहा जब ग्रेजुएशन के दौरान हॉस्टल में मोबाइल पर प्रतिबन्ध रहा। एक दिन के लिये छुप-छुपाकर फोन लाया करता था। अब सोचता हूँ जब टेलिकॉम क्रांति नहीं हुई थी तब परदेस में बैठे बेटों की माँए कैसे जिउतिया मनाती होंगी..? फिर गाँव में बीता बचपन याद आ जाता है, और आज के दिन पोखरे में मचने वाली धमाचौकड़ी.. मुस्कराते हुए सोच रहा हूँ कि कभी अपने ग्राम्य-बचपन के संस्मरण लिखूंगा। क्या पता एक और लपूझन्ने का पोटेंशियल छुपा हो.. सनातन कालयात्री (आपको टैग नहीं कर पा रहा हूँ) आज सुनने के लिये कोई गीत बतायेंगे क्या..?

ए सैटरडे (A Saturday)


कल एक ऐसी घटना से साबका हुआ कि अब तक दिमाग उसी में उलझा हुआ है।

शनिवार दिन होने के नाते कल सभी पाँचों मित्र- विवेक, धीरेन्द्र, एके, आनन्द और मैं सब्जी लेने साप्ताहिक बाजार गये हुए थे। बाजार का सबसे अच्छा समय रात को होता है, तो करीब 8 बजे हम सभी बाजार में टहल-घूम रहे थे। एक दुकान पर कई सारी हरी सब्जियाँ थीं, तो हम बैठकर छाँटने लगे।

तभी मेरे पीछे आठ-नौ साल का एक बच्चा अपना थैला लिये आकर खड़ा हुआ और बड़ी मासूमियत से पूछा कि- “लौकी कैसे है..?” दुकानदार ने तीस के भाव बतलाए। बच्चे ने दुबारा पूछा- “कम नहीं होगा?” उसकी मासूमियत को देखते हुए हम लोगों ने दुकानदार से पैसे कम करने को कहा, वह भी तुरंत 25 में देने को तैयार हो गया। और उसे इंतजार करने को कहकर हमारी सब्जी देने लगा। बच्चा मेरे पीछे कुछ यूँ खड़ा था कि उसका थैला मेरे आगे फैला हुआ मुझे आधा ढँक रहा था।

तभी मुझे अपनी शर्ट की जेब में कुछ सरसराहट सी महसूस हुई। मुझे लगा कि मेरा गैलेक्सी S-2 वाइब्रेट कर रहा है, मैनें हाथ लगाकर चेक किया, मेरा वहम मात्र था। मैं शिमला मिर्च छाँटने हेतु आगे झुका, तभी वह सरसराहट दुबारा हुई। सचेत मस्तिष्क ने सुझाया कि मामला कुछ गड़बड़ है। मैनें कनखियों से देखा तो लगा कि वह बच्चा असहज रूप से आगे की ओर झुका हुआ है। मुझे मामला समझते देर नहीं लगी, लेकिन स्वाभाविक रिफ्लेक्स एक्शन को रोकते हुए मैनें प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया। हम सब्जियाँ लगभग ले चुके थे, लेकिन मैनें कुछ समय और व्यतीत कर कोशिश की कि उसे फोन चुराने का पूरा अवसर मिले। मैनें जबरदस्ती और सब्जियाँ लेने का निर्णय किया। मित्र समझ नहीं पा रहे थे कि मामला क्या है। बच्चे और अन्य का ध्यान बँटाते हुए मैनें शर्ट की तंग जेब में फँसे मोबाइल को ढीला किया और अगले 10-15 सेकेण्ड उसके उत्साहित हाथों से मोबाइल चुराये जाने की प्रक्रिया का आनन्द लेता रहा। साथ ही बगल में खड़े विवेक को फुसफुसाकर पीछे चल रही गतिविधि के बारे में बताया। वे सब चतुराईपूर्वक उसके पीछे खड़े हो गये। दुर्भाग्यवश जेब उसकी कल्पना से ज्यादा चुस्त निकली। हताश होकर मुझे तीन-चौथाई बाहर निकले फोन से ही संतोष करना पड़ा और पलटकर उसका हाथ पकड़ लिया। हम सब उसे लेकर अगले 20 मिनट बाजार में टहलते रहे और अपने सामान खरीदते रहे। बच्चे के चेहरे पर कोई भाव नहीं थे। न ही भय, न भागने का प्रयास, न रोना-गाना। पहली बार में ही उसने स्वीकार कर लिया कि वह चोरी करने का प्रयास कर रहा था।

किनारे लाकर पूछताछ करने पर उसने अपना नाम रोहन बताया। पुरानी दिल्ली स्टेशन पर माँ-बाप के साथ रहता है। वे भागलपुर के रहने वाले हैं, जगह कोई साहबगंज। दोनों मजदूरी करते हैं, वह स्कूल नहीं जाता, चोरी करता है। आज पहली बार फोन चोरी करने का प्रयास कर रहा था, बोहनी बिगड़ गई। माँ का फोन नंबर दिया।

बात करने पर उसकी माँ अनीता ने बताया कि वह अपने पति की तबीयत खराब हो जाने के कारण भागलपुर वापस आ गई है और रोहन उसी के साथ है। दुबारा कड़ाई से पूछने पर उसने कहा कि वह बच्चे को उसकी मौसी के सुपुर्द कर आई थी कि उसे कुछ दिन बाद भागलपुर पहुँचवा दे। वे बहुत गरीब हैं, एक बच्चा गोद में है आदि रोना धोना.. हम उसके बेटे को छोड़ दें और पुलिस के पास न ले जायें। दाल में कुछ काला पाकर मैनें कहा कि बच्चा पहले ही पुलिस को सौंपा जा चुका है और वे मुखर्जीनगर थाने में आकर बच्चे को रिसीव कर लें। उसने अपनी दूरी का रोना रोया और कहा कि हम बच्चे को छोड़ दें।

रोहन और उसकी माँ की बातों में कई विरोधाभास देखकर हमने मामले को आगे बढ़ाने का निश्चय किया। पुलिस की एक पैट्रोलिंग पार्टी आई, जिसे सारी स्थिति समझाई गई। लेकिन दिल्ली पुलिस की लिंग व बच्चों के प्रति संवेदनशीलता के खराब ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए मुझे बच्चे को सीधे उन्हें सौंपने में कोई समझदारी नहीं दिखी। मैनें चाइल्डलाइन को 1098 पर फोन किया, और उन्हें सारी स्थिति समझाई। उन्होंने इस क्षेत्र में काम करने वाले संबद्ध एनजीओ ’प्रयास’ से मुझे कनेक्ट किया। उनसे बात करता-करता मैं थोड़ा आगे आ गया तभी सेकेण्डों में एक विचित्र घटना घटी—

मेरे फोन पर लगे होने के दरमियान बच्चे ने मित्रों व पुलिस को बताया कि वे दो-तीन एक साथ काम करते हैं। एक ऑटोवाला उन्हें रोज सुबह लाकर किसी बाजार में छोड़ता है, और शाम को वही वापस ले जाता है। उनके वापस जाने का समय हो चुका है, अत: वो ऑटो उसे ढूँढ रहा होगा।

बाकी मित्र व पुलिस पार्टी जहाँ खड़े थे वह रास्ता आगे जाकर डेड-एंड में समाप्त होता है। बच्चे के बताने के दो-तीन मिनट के भीतर उसी डेड-एंड की तरफ से एक ऑटो तेज गति से आता दिखा और बच्चे ने चिल्लाकर बताया कि यह वही ऑटो है। कॉन्सटेबल ने उसे रुकने का इशारा दिया, तो ऑटो बेहद तेज गति से भागने का प्रयास करने लगा। पैट्रोलिंग पार्टी ने गाड़ी दौड़ाकर उसे पकड़ लिया। वह इस बात का कोई संतोषजनक उत्तर दे पाने में अक्षम था कि आखिरकार वह किस तरफ से आ रहा था? उसने बच्चे को पहचानने से इनकार किया, बच्चे ने उसकी शिनाख्त करते हुए बताया कि वह उसी के घर में रहता है। ड्राइवर के पास न तो कागज़ात पूरे थे, न ही ऑटो मालिक के फोन नम्बर पर बात हो पा रही थी। वह कसमें खा रहा था कि वह बच्चे को नहीं जानता, बच्चा अड़ा हुआ था कि वह उसी के घर में रहता है। यह पूछे जाने पर कि ड्राइवर के घर में कौन-कौन है, उसने बताया कि उसकी बीवी और बच्चे। ड्राइवर ने तुरंत कहा कि उसकी तो शादी ही नहीं हुई है, हम चाहें तो तस्दीक कर लें। थोड़ी देर बाद वह अपनी बात से पलट गया, कि शादी तो हुई है लेकिन कोई बच्चा नहीं है। वह अब बुरी तरह से फँस चुका था और मामला सुलझता नजर आ रहा था।

मैनें एनजीओ ’प्रयास’ को दुबारा संपर्क किया और उनसे आगे की कार्यवाही के बारे में पूछा। उन्होंने मुझे बच्चे को पैट्रोलिंग पार्टी को सौंप देने को कहा। पार्टी का फोन नंबर लेकर मैनें बच्चे को उन्हें सौंप दिया और हम सब बातचीत करते 9 बजे घर लौट आये।

लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई थी। घर लौटने के आधे घंटे के भीतर पुलिस ने मुझसे संपर्क किया और कॉलोनी के बाहर आने का अनुरोध किया। इस बीच उसकी माँ ने मेरे फोन पर कॉल करके बच्चे को दुबारा छोड़ देने का अनुरोध किया, अपनी ग़लती की माफी माँगी और अपनी ग़रीबी की दुहाई दी।

मैं जब बताई जगह पहुँचा तो पुलिस पार्टी, ऑटोवाला, बच्चा आदि सब हमारा इंतजार कर रहे थे। पता चला कि बच्चा साफ झूठ बोल रहा था। ऑटोवाला निर्दोष था। बच्चे ने बताया कि उसका मौसेरा भाई उसका हैंडलर है। उन्होंने उसे सिखा रखा है कि पुलिस के चंगुल में बेतरह फँस जाने पर दिखने वाले पहले ऑटो की तरफ इशारा कर दो।

तुरत-फुरत एक योजना बनी। फोन को स्पीकर पर रखकर बच्चे ने अपने मौसेरे भाई को कॉल किया और उसे लंबा हाथ लगने की सूचना दी। मौसेरे भाई ने बताया कि वह करनाल बाईपास पर है और दो घंटे से पहले वहाँ नहीं पहुँच सकता। लेकिन थोड़ी देर बात करने के बाद उसे शक हो गया और उसने फोन काट दिया। कॉन्स्टेबल के नौसिखियेपन ने एक संभावित लीड खत्म कर दी। अबतक मामला इतना ज्यादा उलझ चुका था कि समझ आना बन्द हो गया था कि कौन सही है कौन गलत? बच्चे द्वारा बताई जाने वाली हर बात दस मिनट के भीतर गलत साबित हो जा रही थी। उन्होंने मुझसे थाने चलकर आधिकारिक रपट दर्ज कराने को कहा। मैनें उनकी बात मान ली और उन्हीं के साथ तीमारपुर थाने पहुँचा।

विवेचक मुकेश कुमार (एस.आई) ने हमारा स्वागत किया। उन्होंने अबतक की प्रगति हमें बताई (जो हमें पहले से मालूम थी) और पूछा कि हमलोग इस मामले में आगे किस तरह बढ़ना चाहते हैं?

यह एक जटिल प्रश्न था। चाइल्डलाइन को फोन करने और आगे के आपाधापी वाले दो-तीन घंटों में हमें ठंडे दिमाग से विचार करने का मौका नहीं मिला था। पुलिस प्रणाली का एक हिस्सा होने के बावजूद मेरे मन में स्वाभाविक भय था कि औपचारिक शिकायत का बच्चे का भविष्य पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है। यदि हम एफ.आई.आर दर्ज कराते तो निश्चित रूप से वह बच्चा अवैध हाथों में जाने से बच जाता। फिर उसकी पृष्ठभूमि की पूरी जाँच होती, यदि वह किसी रैकेट या सिंडिकेट का हिस्सा होता तो उसका पर्दाफाश होने की संभावना थी, वह ट्रायल होने तक किसी शेल्टर में रहता न कि थाने में।

दूसरी तरफ औपचारिक शिकायत करने का भय यह था कि दोषसिद्धि पर उसे बाल/किशोर सुधार गृह में भेजा जाता। जहाँ से 99% संभावना थी कि वह एक शातिर अपराधी बनकर निकलता। (इन सुधार गृहों का ट्रैक रिकॉर्ड हताशाजनक स्तर तक खराब है) पुन: एन.जी.ओ. के कार्यकरण पर भी पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता था। रैकेट का पर्दाफाश इस बात पर निर्भर करता कि विवेचक ने तफ्तीश कितनी गहराई में जाकर की है और चार्जशीट कितनी मजबूत है?

इन सबको देखते हुए सामने मौजूद बच्चे का भविष्य बचाना एक चिंता की बात थी। यदि हम अपनी शिकायत वापस लेते तो बच्चा अपने विधिक अभिभावक/माँ-बाप को सौंप दिया जाता। ऐसी स्थिति में आगे कोई औपचारिक तफ्तीश नहीं होती, लेकिन वह सुधार गृह जाने से बच जाता। यह एक अच्छी स्थिति थी, लेकिन इसमें डर यह था कि माँ-बाप के आने तक बच्चा पुलिस अभिरक्षा में रखा जात्ता, जहाँ उसके साथ जाने कैसा सुलूक होता? और सबसे बढ़कर यदि उसके अभिभावक ही उसके हैंडलर हुए तो क्या? कहीं पुलिस अपना पल्ला झाड़ते हुए उसे किसी ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे को सौंपकर ही निश्चिंत न हो ले।

लेकिन विवेचना अधिकारी मुकेश का व्यवहार आश्चर्यजनक रूप से ग़ैर-पुलिसिया लगा। उन्होंने हमें भरोसा दिलाया कि वे अपने स्तर से अनौपचारिक तफ्तीश किसी औपचारिक तफ्तीश से ज्यादा गंभीरता से करेंगे तथा बच्चे को उसके स्थानीय अभिभावक को नहीं बल्कि उसके असली माँ-बाप को ही सौंपा जायेगा। तथा इस दरम्यान बच्चा किसी सज्जन के घर पर रहेगा।

मुझे पता था कि इन दावों/वादों के गलत साबित होने की संभावना बहुत ज्यादा है लेकिन दूसरे विकल्प में उसके भविष्य के बर्बाद होने की संभावना कहीं ज्यादा लग रही थी। यह एक एथिकल डाइलेमा था, जिसमें कानून/नैतिकता का झुकाव पहले विकल्प की तरफ स्पष्टत: था, लेकिन हम लोगों ने अंतरात्मा की आवाज पर ज्यादा भरोसा करते हुए मुकेश जी की सद्भावना पर दाँव लगाने का निश्चय किया। फोन नंबरों तथा जानकारी के आदान-प्रदान हुए और मैनें लिखित तौर पर अपनी शिकायत वापस ली। मुकेश ने हमें धन्यवाद दिया और हम रात के 11:30 बजे घर वापस लौटे।

सोचा था कि मामले से जुड़ी कुछ तस्वीरें भी पोस्ट करूँगा, लेकिन मन नहीं कर रहा। शायद फिर कभी..

अपडेट: रात के 3:30 बजे मेरा फोन बजा। मुकेश का फोन था। वे 4 बजे मेरे कमरे पर आये, नींद से जगाने के लिये माफी माँगी। मुझे जो बात बताई, उसका शक तो था लेकिन सुनकर पाँव तले जमीन खिसक गई। जिनका दावा बच्चा कर रहा है, वे उसके माँ-बाप नहीं हैं। उन सबके फोन अब बंद हो चुके हैं। वह शायद अनाथ है या बहुत पहले अपहृत। फिलहाल उसके बांगलादेशी होने की संभवानाएं टटोली जा रही हैं। मुकेश मुझे अपडेट देकर, दुबारा माफी माँगकर, एक गिलास पानी पीकर सीढ़ियों से नीचे उतर चुके हैं। मैं नीचे देखता हूँ, बच्चा अँधेरे में उनका हाथ पकड़कर चल रहा है। दिल्ली पुलिस का यह दुर्लभ मानवीय चेहरा ड्यूटी खतम होने के बाद भी पसीने से लथपथ दौड़धूप कर रहा है और मुझे महसूस हो रहा है कि शायद मेरी अंतरात्मा ने सही सलाह दी थी। जानता हूँ कि अभी उम्मीद करना Hopelessly Early होगा, लेकिन एक चुटकी उम्मीद अभी कायम है।
     

    Review My Blog at HindiBlogs.org

    अपनी खबर..

    My photo
    पेशे से पुलिसवाला.. दिल से प्रेमी.. दिमाग से पैदल.. हाईस्कूल की सनद में नाम है कार्तिकेय| , Delhi, India

    अनुसरणकर्ता

    Your pictures and fotos in a slideshow on MySpace, eBay, Facebook or your website!view all pictures of this slideshow

    विजेट आपके ब्लॉग पर

    त्वम उवाच..

    कौन कहाँ से..