12:53 AM
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By कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra)
8:54 PM
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By कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra)
प्रेम एक ही व्यक्ति से क्यों हो? और एक बार शुरू हुई प्यार की तलाश किसी एक ही व्यक्ति पर जाकर क्यों थमे? क्या जरुरी है कि प्यार का कोई मकसद हो ही? बेमकसद प्यार क्या प्यार नहीं?
प्रेम की परिणति एक ही व्यक्ति क्यों हो? एक समय में एकाधिक व्यक्तियों से प्रेम क्यों नहीं किया जा सकता? ऐसा क्यों है कि एक शख्स पर जाकर ख़त्म हुई प्यार की तलाश वहीँ से एक नए क्वेस्ट की तरफ प्रयाण नहीं कर सकती?
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चित्र गूगल से साभार |
कितना प्रेम जरुरी है? कितने से इंसान की प्यास बुझ सकती है? कैसे पता चले कि जितना प्रेम किया जा सकता था उतना हो चुका? कैसे पता चले कि अब प्रेम की जरुरत पूरी हो चुकी? प्रेम मे सैचुरेशन पॉइंट आया कि नहीं, कैसे पता चले? ये भी तो हो सकता है कि जिसे अपने जीवन में प्रेम ही प्रेम चहुँओर दिख रहा हो, उसे पता ही न हो कि प्रेम की सीमा यही नहीं? प्यास प्यास का फ़र्क है| किसी की प्यास दो घूंट में बुझ सकती है किसी के लिए समंदर भी कम पड़े! यह भी हो सकता है कि जिसकी प्यास अभी बुझ गई है, वह दुबारा पनप उठे! यह भी हो सकता है कि किसी को उठ रही प्यास का पता ही न चले! कोई ऐसा भी हो सकता है कि जो समझ रहा हो कि उसकी सारी तृष्णा शांत हो चुकी है और अन्दर से उठने वाली यह चीज़ प्यास तो हो ही नहीं सकती! कोई प्यासा ऐसा भी हो सकता है जो सिर्फ लोक-लाज से अपनी प्यास दबाये बैठा है! उसकी प्यास क्या प्यास नहीं?
नहीं ! प्रेम सीमाओं में नहीं बंध सकता| प्रेम जैसी उदात्त भावना शर्ते नहीं जानती, बंधनों से अनभिज्ञ होती है| उसे शर्तों और सीमाओं में बांधना प्रेम के साथ क्रूर अत्याचार है| सीमाबद्ध प्रेम भले ही कुछ और हो लेकिन प्रेम तो नहीं ही हो सकता| प्रेम के साथ किया जा सकने वाला सबसे बेहया मज़ाक यही है कि उसे सीमाओं में बांध दिया जाए|
मानव बंधा होता है, प्रेम की भावना उसे स्वतन्त्र करती है, उसे पंख देती है| उसके ह्रदय में नए सपने उगाती है, उसे ऐसे शख्स से मिलाती है जिसके दिल में भी ऐसी ही भावना हो| समाज दायरे तय कर देता है और फिर उसी दायरे में उन्हें प्रेम ढूँढना पड़ जाता है| कितना क्रूर मज़ाक है! ऐसा ही है, जैसा कि डाल पर सहमे बैठे कपोतशिशु को कोई हौसला दे कि उसके पंख मजबूत है और उसके जीवन की सार्थकता निर्बाध उड़ान में ही है, और एक बार जब वह कपोत साहस भर उड़ना सीख ले तो उसे सींखचों में बंद कर दिया जाय कि अब तुम्हारी उड़ान की सीमा इन दीवारों तक ही है| इससे भी बड़ा अपराध वह कपोत तब अपने साथ स्वयं ही करेगा जब उसे यह सत्य लगने लगे कि उड़ान इतनी ही सही जितनी इन दायरों के भीतर हो|
मनुष्य ससीम है, परम तत्व या प्रकृति असीम| जो भी शुभ है, सत्य-शिव-सुन्दर है, उसका उत्स भी असीम में है और उसकी चरम परिणति भी असीम मे| प्रेम से शुभ क्या होगा? तो प्रेम भी अपनी सत प्रकृति में असीम ही हो सकता है| अन्यथा जो भी सीमित है, वह असत है, प्रेम का आभास है| प्रेम नहीं, उसकी मिथ्या प्रतीति है!
मानव बंधा होता है, प्रेम की भावना उसे स्वतन्त्र करती है, उसे पंख देती है| उसके ह्रदय में नए सपने उगाती है, उसे ऐसे शख्स से मिलाती है जिसके दिल में भी ऐसी ही भावना हो| समाज दायरे तय कर देता है और फिर उसी दायरे में उन्हें प्रेम ढूँढना पड़ जाता है| कितना क्रूर मज़ाक है! ऐसा ही है, जैसा कि डाल पर सहमे बैठे कपोतशिशु को कोई हौसला दे कि उसके पंख मजबूत है और उसके जीवन की सार्थकता निर्बाध उड़ान में ही है, और एक बार जब वह कपोत साहस भर उड़ना सीख ले तो उसे सींखचों में बंद कर दिया जाय कि अब तुम्हारी उड़ान की सीमा इन दीवारों तक ही है| इससे भी बड़ा अपराध वह कपोत तब अपने साथ स्वयं ही करेगा जब उसे यह सत्य लगने लगे कि उड़ान इतनी ही सही जितनी इन दायरों के भीतर हो|
मनुष्य ससीम है, परम तत्व या प्रकृति असीम| जो भी शुभ है, सत्य-शिव-सुन्दर है, उसका उत्स भी असीम में है और उसकी चरम परिणति भी असीम मे| प्रेम से शुभ क्या होगा? तो प्रेम भी अपनी सत प्रकृति में असीम ही हो सकता है| अन्यथा जो भी सीमित है, वह असत है, प्रेम का आभास है| प्रेम नहीं, उसकी मिथ्या प्रतीति है!
मनुष्य स्वभावत: ससीम है, लेकिन है परम तत्व का अंश (या पूर्ण!) अतः असीम के प्रति आकर्षण महसूस करता है| यदि यह भाव सीमित हो जाए तो असहज होने लगता है| प्रेम के प्रति आकर्षण भी ऐसी ही वृत्ति है| जबतक निर्बाध हो, तभी तक सहज है| जब सीमित हुआ तो कचोटने लगता है|
कैसी भी सीमा हो- कितनों से हो सकने की/कितनी बार हो सकने की/एक बार में कितनों से हो सकने की/वासना की हद तक शारीरिक हो जाने की, या आराधना की हद तक प्लेटोनिक हो जाने की/एक बार हो जाने के बाद दूसरे से हो सकने की.. सभी सीमाएं प्रेम को भ्रष्ट करती हैं, उसे दैवीय धरातल से पाशविक तक ले जाती हैं| मनुष्य को असहज करती हैं|
कैसी भी सीमा हो- कितनों से हो सकने की/कितनी बार हो सकने की/एक बार में कितनों से हो सकने की/वासना की हद तक शारीरिक हो जाने की, या आराधना की हद तक प्लेटोनिक हो जाने की/एक बार हो जाने के बाद दूसरे से हो सकने की.. सभी सीमाएं प्रेम को भ्रष्ट करती हैं, उसे दैवीय धरातल से पाशविक तक ले जाती हैं| मनुष्य को असहज करती हैं|
असहज मनुष्य दुखी होता है| वह प्रेम में नई शुरुआत से डरता है, शुरू हो जाने पर जारी रखने से डरता है, जारी प्रेम के भवितव्य से डरता है, प्रेम की परिणति विरह में होने पर पर अवसाद में चला जाता है, जीवन निरुद्देश्य पाने लगता है, शनैः शनैः उससे हार मान लेता है, असफल होता है| प्रेम का झूठा आभास उसे जीवन की निकृष्टता की ओर उन्मुख कर देता है|
और ऐसे असहज मनुष्य के प्रेम की परिणति यदि संयोग में होती है तो उसका भय अनंतकाल तक जारी रहने को अभिशप्त हो जाता है| प्रेम के भवितव्य का डर समाप्त हो जाने पर नये नए डर घर करने लगते हैं| बच्चों का डर, उनके भविष्य का डर, समाज का डर, आकांक्षाएं पूरी न हो पाने का डर..
इन सबमें वह प्रेम कहाँ है? कहाँ है उसकी पवित्र अनुभूति? कहाँ है वह पहली बार उठने वाला रोमांच? कहाँ है वह कुछ वर्जित करने का संतोष? कहाँ है वह सभी बंधन तोड़ देने का साहस देने वाली 'हाँ'..?
ऐसे अपूर्ण प्रेम में पहली परिणति को प्राप्त हुए लोग जितने अभागे हैं, उससे कहीं ज्यादा वे जो दूसरी परिणति को प्राप्त हुए| अपूर्ण, मिथ्या प्रेम का भ्रम जितना जल्द टूट जाए बेहतर है| जीवनपर्यंत चलने वाला यह मिथ्याभास मनुष्य को खोखला कर देता है|
अपनी सत प्रकृति में प्रेम अनंत है| एक बार में कईयों से हो सकता है, एक के बाद कईयों से हो सकता है| प्रेम की अपनी यह माँग हमेशा कसक पैदा करती है| एक ही प्रेम को जीवन का आलंबन बना बैठे लोग हमेशा दुखी रहेंगे| एक सुन्दर उदाहरण "मैसेज इन अ बोटेल" है..
प्रेम में ये शर्तें नहीं चलेंगी| प्रेम तो सीमाएं जानता ही नहीं| एक सच्चा प्रेमी जितनी गहनता से अपनी प्रेमिका को चूम सकता है, वह उतनी ही शिद्दत से अपने खेत की मिट्टी भी जोत सकेगा| उसके चुम्बन में जितनी गरमाहट होगी, उतनी ही मुल्क की सरहद पर बह रहे उसके लहू में भी| सच्चे प्यार में दीवानगी जरुर होगी| लातिनी कहावत है- "आमोर कुएर्दो नो एस आमोर" माने "बाहोश मुहब्बत, मुहब्बत नहीं"
और ऐसे असहज मनुष्य के प्रेम की परिणति यदि संयोग में होती है तो उसका भय अनंतकाल तक जारी रहने को अभिशप्त हो जाता है| प्रेम के भवितव्य का डर समाप्त हो जाने पर नये नए डर घर करने लगते हैं| बच्चों का डर, उनके भविष्य का डर, समाज का डर, आकांक्षाएं पूरी न हो पाने का डर..
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चित्र विकिपीडिया से साभार |
ऐसे अपूर्ण प्रेम में पहली परिणति को प्राप्त हुए लोग जितने अभागे हैं, उससे कहीं ज्यादा वे जो दूसरी परिणति को प्राप्त हुए| अपूर्ण, मिथ्या प्रेम का भ्रम जितना जल्द टूट जाए बेहतर है| जीवनपर्यंत चलने वाला यह मिथ्याभास मनुष्य को खोखला कर देता है|
अपनी सत प्रकृति में प्रेम अनंत है| एक बार में कईयों से हो सकता है, एक के बाद कईयों से हो सकता है| प्रेम की अपनी यह माँग हमेशा कसक पैदा करती है| एक ही प्रेम को जीवन का आलंबन बना बैठे लोग हमेशा दुखी रहेंगे| एक सुन्दर उदाहरण "मैसेज इन अ बोटेल" है..
प्रेम में ये शर्तें नहीं चलेंगी| प्रेम तो सीमाएं जानता ही नहीं| एक सच्चा प्रेमी जितनी गहनता से अपनी प्रेमिका को चूम सकता है, वह उतनी ही शिद्दत से अपने खेत की मिट्टी भी जोत सकेगा| उसके चुम्बन में जितनी गरमाहट होगी, उतनी ही मुल्क की सरहद पर बह रहे उसके लहू में भी| सच्चे प्यार में दीवानगी जरुर होगी| लातिनी कहावत है- "आमोर कुएर्दो नो एस आमोर" माने "बाहोश मुहब्बत, मुहब्बत नहीं"
(जाड़ों की किसी दुपहर इन्द्रियातीत तन्द्रा के दौरान आये इनकोहेरेंट विचार)
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