हम आज तक अपने आप को माफ़ नहीं कर पाये कि भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ, वे कैसे दुनिया से नजर मिलायेंगे जिनके घर-घर में अफ़जल गुरु हैं..........

मैनें खिड़की से बाहर देखा तो रामपुर स्टेशन बीत रहा था। चलो गनीमत है अभी तक तो सही-सलामत चल रही है, अब समय से दिल्ली पहुँचा दे तो सही है।

25 दिसम्बर की सुबह मैं बरेली से दिल्ली कुछ कार्यवश जा रहा था, रात 12 बजे की श्रमजीवी एक्सप्रेस 9 घंटे के विलम्ब के बाद सुबह रवाना हुई थी। बेंच की चौड़ाई के साढ़े चार इंच हिस्से में सो-कर, उंघकर रात बिताने के बाद मैं अपनी आरक्षित बर्थ पर फैला हुआ उसकी चौड़ाई का आनंद उठा रहा था कि मेरे कानों में ये शब्द पड़े।

स्वाभाविक उत्सुकतावश मैनें देखा- एक 50-55 वर्ष की अवस्था के सिख सज्जन एक अन्य बुजुर्गवार से बातें कर रहे थे। बुजुर्गवार की वय 80 से उपर तो रही ही होगी, खादी की जैकेट-कुरता-धोती, माथे पर गाँधी टोपी, खासा प्रभावशाली व्यक्तित्व था दोनों का।

बुजुर्ग सज्जन मेरे साथ ही सवार हुए थे, और मुझे बाद में पता चला कि जिस कूपे में हम तीन यात्रा कर रहे थे उसी में एक सज्जन को धूम्रपान करता देख उन्होंने सहज ही प्रश्न कर डाला-

क्यों भाई, सिगरेट क्यों पी रहे हो?

अचकचाये सज्जन बोले- यूँ ही, बस टाइम पास के लिये।

अरे अगर टाइम पास करना है तो मुझसे गप्पें ही लड़ा लो, क्यों इसपर अपना पैसा भी जाया कर रहे हो और सेहत भी?

उसके बाद उन सज्जन का तो पता नहीं पर सारे कूपे की रुचि बुजुर्गवार में जागृत हो गई उन सिख सज्जन की भी, जो अबतक चुपचाप बैठे हुए थे। उनमें बातें शुरु हो गईं और जब इन्हीं बातों के दरमियान मैनें ये शब्द सुने तो आँखों ने सोने से इस्तीफा दे दिया।

मैं चुपचाप दोनों की बातें सुनता रहा, थोड़ी देर बाद उपयुक्त अवसर पर मैं भी चर्चा में शामिल हो गया। वहाँ जो सुना, वही स्मृति के आधार पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।

बात चल रही थी धार्मिक कट्टरता तथा अल्पसंख्यक(पढ़ें मुस्लिम) तुष्टिकरण की। जब वे सज्जन बोल उठे-

बाबूजी, सन 71 में किसी ने मुझसे सिख की परिभाषा पूछी। मैनें जवाब दिया ’वी आर नो वन एल्स बट द बेस्ट ऑफ हिन्दूज’. जब हमारे हिन्दू धर्म पर संकट आया, तब हमारे दशमेश ने हमें ये बाना दिया। वे भीड़ में छुपकर मारते थे, हमारे गुरु ने हमें सजाया और बोला तुम सामने से लड़ना। वी सिंबलाइज्ड द माइट ऑफ हिन्दुइज्म टू देम एंड डेयर्ड देम टू अटैक ऑन अस, क्लीयरली डिस्टिन्ग्विशेबल इन द क्राउड। हम तो बस अपने हिन्दू धर्म की आर्मी थे।

इसके बावजूद हम आज तक अपने आप को माफ़ नहीं कर पाये कि भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ, वे कैसे दुनिया से नजर मिलायेंगे जिनके घर-घर में अफ़जल गुरु हैं..... वैसे भी भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ था जरूर, लेकिन उसे हमारे उपर थोपा तो आपने ही था। फिर भी हम अपनी ग़लती मानते हैं कि उसकी इन हरकतों के बावजूद हमने उसे डिसओन(Disown) क्यों नहीं किया। मैं तो आर्मी को भी दोष नहीं देता कि अकाल तख्त को चोट कैसे आई! गलती हमारी है कि हमने उस देशद्रोही, पंथद्रोही को अपने हरमंदिर साहिब में घुसने कैसे दिया उस अकाल तख्त पर बैठने की इजाजत कैसे दे दी जिसपर दशमेश भी नहीं बैठे। आपने हमें गाजर-मूली की तरह काटा, स्टेटमेंट दिये कि "बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती तो हिलती ही है.." फिर भी हम ने कोई शिक़वा नहीं किया। हम बस ये सोचते रहे कि कोई दूसरा भिंडरावाले फिर कभी न पैदा होने पाये........

और मैं सोचता रहा अपने नेता की हत्या पर क्रोधित होकर एक पूरी क़ौम का सफाया करने को आतुर हो उठा समाज किन गलियों से गुजरते हुए आज उस मुर्दा हालत में आ पहुँचा है जहाँ आतंकवाद का भी रंग तय होने लगा है। जहाँ ब्लास्ट में सैकड़ों जानें लेने वाले दहशतगर्द सिर्फ़ ’सिरफिरे’ कहला कर बच जाते हैं। ए.के. 47 की गोलियों के मुकाबले ’हीलिंग टच’ की नीति अपनाई जाती है और राष्ट्र की अवधारणा के प्रतीक पर हमला करने वाले गद्दार की फांसी सिर्फ जुमे के नाम पर टाल दी जाती है। आतंकवाद के हर राष्ट्रद्रोही कृत्य को बाबरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया बताने का घिसा-पिटा रेकार्ड अठारह साल बाद भी झाड़-पोंछ कर हर बार चलाया जाता है। कोई यह सोचने की जहमत नहीं उठाता कि अगर सिख अपने उपर हुए अत्याचारों की प्रतिक्रिया करना चाहते तो आज पाकिस्तान के नमकहलाल अन्तुले की कई पुश्तें दोजख़नशीं हो चुकी होतीं, और सोनिया मैडम भी सपरिवार इटली में हवाखोरी कर रही होतीं। क्या किसी को यह नहीं समझ आता कि स्वर्ण मंदिर और अमरनाथ ब्लास्ट की प्रतिक्रियायें अगर होने लगें तो ’प्रपोर्शनेट रिएक्शन’ नाम की कोई चीज़ नहीं होगी। छद्म सेकुलरपंथियों को यह बात जाने कब समझ आयेगी कि हर अहमदाबाद की जड़ में गोधरा होता है।

खैर छोड़िये, विषय से भटकने की आदत होती जा रही है। उन सज्जन ने दिल्ली स्टेशन पर उतरने से पहले एक बात कही थी-

जानते हो, मेरे पिता अविभाजित भारत में लाहौर कालेज में प्राध्यापक थे और बच्चों को आत्मरक्षार्थ बम बनाना सिखाते थे। आजादी के बाद उन्हें सरदार पटेल ने एक रुक्का लिखकर दिया था- "गुरबख्श हिन्दुस्तान की एक बेशकीमती जान है, इसकी हर सूरते-हाल में हिफ़ाजत और मदद की जाय"। मेरे उपर मेरे छोटे बेटे और बीवी की जिम्मेदारी न हो तो मैं तो इस्लामाबाद में मानव-बम बनकर फट जाऊं। और ये जिम्मेदारी खत्म होने दो, कुछ न कुछ तो करुंगा ही।

यह बात मुझे और दुःख दे जाती है। एक शादीशुदा, गृहस्थ के मन में ये जज्बा है। और आज की हमारी पीढ़ी......! मुझे याद आता है टेक्निकल एंट्री स्कीम के तहत रिक्रूट्मेंट के लिये इंडियन आर्मी आती है, कुल 350 योग्य अभ्यर्थियों में से मात्र 32 अपीयर होने पहुँचते हैं। कहीं पढ़ा था- आर्मी में 13000 कमीशंड अधिकारियों की कमी है। समझ में आ जाता है क्यों.......

उन सज्जन का शुभ नाम था श्री गुरमीत सिंह रणधीर तथा सम्प्रति लखनऊ में एक बड़े बैंक में सीनियर मैनेजर(पी.आर.) हैं।

चलते चलते: कल नेताजी का जन्मदिन था। एक व्यक्तित्व जिसने दुश्मन की आँखों में आँखें डालकर देखना सिखाया। इसी आत्मविश्वास की एक खुराक और चाहिये नेताजी......

12 Responses
  1. श्री गुरमीत सिंह रणधीर जी को मेरा नमन, फ़िर आप का धन्यवाद कि इतना सुंदर वाक्या हम सब को बताया, सच मै हम आज भी चमत्कार की इंतजार कर रहे है, हए भगवान कोई आये हमे बचाये!!!! यह सब हमारे इन कमीने नेताओ का रचा खेल है, ओर जिस दिन यह जनता जागेगी उस दिन इन कमीनो को कोन बचयेगा, मेडम कहा भाग कर जायेगी.... बस अब यह पाप का घडा भरने ही वाला है,
    धन्यवाद


  2. मित्र, अल्प संख्यक सिर्फ मुसलमान हैं, राष्ट्र की बात करो तो साम्प्रदायिक हो, हिन्दू अपने हित की बात करे तो संघी है, लक्षण बहुत अच्छे नहीं हैं, देश के इस्लामीकरण में ज्यादा देर नहीं, जिसने इतिहास से सबक नहीं लिया उससे ज्यादा बेवकूफ कोई नहीं.


  3. भगत और सुभाष के नाम पर वोट नहीं मिलते इसलिये क्या जरूरत उन्हें याद करने की. सेना में अधिकारियों की कमी केवल इसलिये नहीं जो कारण आपने गिनाया, बल्कि जो लोग चयन समिति में होते हैं उनका पूर्वाग्रह और बाद में और अच्छी सुविधाओं के लिये सेना की नौकरी का त्याग, जरा लाइन देखिये सेना में सिपाही जैसी प्रारम्भिक पोस्ट के लिये.


  4. सुन्दर, ऐसी ही बातें पढ़ने ब्लॉग्स पर आते हैं। समय का सदुपयोग है यह पोस्ट पढ़ना।


  5. पर शायद इसी पीड़ी में आप जैसे लोग भी है....आपको ऐसे शख्स मिले जो आज भी देश को उसी शिद्दत से प्यार करते है....जैसे वो पहले किया करते थे....दरअसल वक़्त के साथ साथ हम हर चीज को एक सामान्य मान कर लेने लगे है .बनारस ....बंगलौर ,आगरा ओर दिल्ली के बाजार में बम फटने के बाद हमने एक बड़ी प्रतिक्रिया नही दी ..मुझे याद है मैंने जब मुंबई पर एक पोस्ट लिखी तो किसी अनाम ने टिप्पणी दी....की मुंबई हमला चूँकि अभिजात्य वर्ग पर हुआ है इसलिए इतना हो हल्ला मचा है....पहले मैंने इसे गहराई से नही लिया लेकिन बाद में ठंडे दिमाग से सारे कवरेज़ ओर अखबार पत्रिका देखे मुझे लगा इस बात को भी एक दम से नकार नही सकते ....वैसे भी इस हमले के बाद देश का अभिजात्य वर्ग भी खड़ा हुआ ...जो की इससे पहले अपने आप को immune समझता था.....
    क्यों नही कश्मीर में २४ हिन्दुओ के एक साथ खड़ा करके मारने के बाद मोम्बित्तिया जली....क्यों कश्मीर के पंडित अभी भी विस्थापित जीवन झोपडो ओर टेंटों में गुजार रहे है.....क्यों कोई डाक्युमेंत्री.फ़िल्म .कविता .....कहानिया प्रबुद्ध लेखो द्वारा कश्मीर पंडित पर नही लिखी गई.....क्यों हम आतंकवाद को भी विभाजित करके देखते है.....ओर इसे एक रह्त्रिय समस्या के तौर पर नही देखते ?
    आज देखो...क्या हम सब ठंडे नही पड़ गये है..... जाहिर है दूसरे देश भी अब वैसी प्रतिक्रिया व्यक्त नही कर रहे ...जहाँ अफजल जैसे देशद्रोही को फांसी देने में हिचकिचाहट हो वहां आप उस सत्ता से क्या उम्मीद कर सकते है ?हमारे राजनेताओ में अब न कोई नैतिक सहस रहा है ओर न निर्णय लेने का साहस .हँसी जब आती है जब अमर सिंह जैसे नेता कांग्रेस से समर्थन लेने की बात करते है की आतंकवाद के मुद्दे पे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ कोई कदम नही उठा रही....जबकि उन्ही के पार्टी के नेता पुलिस को फोन करके किसी धार्मिक स्थल की तलाशी रुकवा देते है जब पुलिस किसी आंतकवादी का सुराग लेकर वहां पहुँचती है.....ख़ुद उनकी पार्टी में ऐसे कई संदिघ्द नेता है.....लोग हजारो की तादाद में इस्राइल हमले के विरोध में खड़े हो जाते है...लेकिन माफ़ कीजिये वही जज्बा मुंबई हमले के बाद नही दिखता .....ये चीजे घटनाएं परेशान करती है......
    तुष्टिकरण किसी भी जाति या धर्म का ......ओर अतिवाद भी.......देश के लिए हानिकारक है....कितने २१ साल के नौजावान वोट करते है ?क्या चुनाव आयोग ऐसे नेताओ पर पाबंदी नही लगा साकता जो अपराधिक हो...अनपढ़ हो....क्या नेता बन्नने के लिए कोई मिनिमम योग्यता निर्धारित नही की जा सकती......


    आर्मी में कमी ??कई सालो से है.....जाहिर है उन्हें भी इश्तहार बाजी में माहिर होना पड़ेगा .अब ज़माना इसी का है


  6. बहुत अच्छा लगा आपको पढ़ कर,बेहतरीन लिखते हैं आप। शुभकामनाओं सहित .....


  7. बहुत अच्छी पोस्ट। बधाई...!
    अब कथनी को करनी में बदलने की कोशिश होनी चाहिए।



  8. sabhi log kahi na kahi jimmedari liye hain
    bus ab in sab jimmedari ko bhi chor kar ladna hoga
    tabhi desh ke liye kuch kar sakenge
    Netaji Gandhi ji ne agar jimmedari yaa parivaar dekha hota to aazadi milti hi nahi


  9. आपके ब्लॉग पर आकर सुखद अनुभूति हुयी.इस गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना और विश्वास कि आपकी सृजनधर्मिता यूँ ही नित आगे बढती रहे. इस पर्व पर "शब्द शिखर'' पर मेरे आलेख "लोक चेतना में स्वाधीनता की लय'' का अवलोकन करें और यदि पसंद आये तो दो शब्दों की अपेक्षा.....!!!


  10. सुन्दर पोस्ट!


  11. क्या कहें भाई... मुंबई के हमलो से ज्यादा लोग गाजा के हमलों के लिए सड़क पर आते हैं, या फिर एक कार्टून पर ! अपनी-अपनी प्राथमिकता है.


मेरे विचारों पर आपकी वैचारिक प्रतिक्रिया सुखद होगी.........

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