संस्कार, सभ्यता, बाजारीकरण, नैतिकता की ठेकेदारी, और वैलेंटाइन डे के बहाने एक सच

अपने गिरिजेश जी तो फगुनाहट में सराबोर हैं, उन्हें बखूबी साथ मिल रहा है अमरेन्द्र भाई का, तथा हिमांशु भाई का। कौन आचारज है, कौन चेला, कुछ भी क्लियराय नहीं रहा। जो भी हो, यह मंडली लगभग हर दूसरे ब्लॉग पर जोगीरा सरररर करते दिख जा रही है। ब्लॉग जगत का आपसी मनमुटाव और वैमनस्य भी मिट जाय इसी फागुन में, मेरी यह कामना है। जो भी हो, भाई लोग पूरे जोर शोर से श्रृंगार (सही वर्तनी नहीं) रस भांग की ठंडई में घोलकर सबको पिलाने में आमादा हैं।

सही है, पिछले वर्ष का फागुन माह तो वीर रस से ओतप्रोत था। मंगलौर में पबगामिनी बालाओं पर संस्कृति के रक्षकों के शौर्य प्रदर्शन से लगायत बाबा वेलेंटाईन की जयंती पर प्रेमाबद्ध जोड़ों को फोकट में परिणयसूत्र आबद्ध करने जैसे लोकमंगल के कार्यक्रमों ने इस माह को सात-आठ चाँद लगा दिये थे। प्रत्युत्तर में संस्कृति की भक्षक कुछ महिलाओं ने संस्कृति के रक्षकों को पिंकवर्णी परिधान भेंट किये.. अब ये तो श्रीराम जानें कि उनके सेनानियों ने उन वस्त्रों का क्या किया, लेकिन छौ-सात दिन न्यूज चैनल वालों ने जमकर चाँदी काटी।

उसी श्रीराम सेना के प्रमोद मुथालिक आजकल एक नया कैम्पेन चला रहे हैं.. वेलेंटाइन डे के दिन शौर्य की बजाय बौद्धिकता के द्वारा प्रेमी जोड़ों का मोहभंग करने की कोशिश की जा रही है। उन्हें समझाया जा रहा है कि ये ससुरे डे वे सब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मार्केटिंग का हिस्सा हैं, और कुछ नहीं। गुरुजी बौद्धिक रस का पान करा ही रहे थे, कि कुछ शरारती तत्व जोगीरा सरररर कहते हुए स्टेज पर चढ़ गये और गुरुजी के मुखारविन्द पर होली है के अंदाज में धई के करिक्खा पोत कर त्वरित गति से बिलायमान हो गये। कसमसा के रह गये गुरुजी।

मेरी व्यक्तिगत अवधारणा यह है, कि इस मामले में लगभग सभी पक्ष बराबर के दोषी हैं.. लड़कियाँ शराब पीकर अपनी सेहत खराब करें या जो भी करें, इससे प्रमोद भईया को काहे चुल्ल मच रही है भाई? अपने बच्चन जी की पंक्तियाँ सुना देनी थीं-

सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला 
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला| 
वेदविहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों 
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला||


मेरा लक्ष्य दारूबाजी का समर्थन नहीं है, बल्कि इस बात का है कि कुछ लोग यह तय नहीं कर सकते कि अन्य लोगों की जीवनशैली क्या हो..!

पिंक चड्ढी कैंपेन हो या मुथालिक जी की फेस-पेंटिंग.. दोनों ग़लत चीज का ग़लत तरीके से विरोध था.. एक आज़ाद मुल्क़ भी विरोध प्रदर्शन के सभ्य तरीके अपना सकता है/अपनाना चाहिये/अपनाने को बाध्य किया जाना चाहिये। लेकिन इस बारे में मुथालिक फाउल खेलने का रोना नहीं रो सकते.. उनके खुद के तरीके बेहद ग़लत थे। मुँह पर कालिख पोतना या चड्ढियाँ भेजना अकेली लड़कियों पर हाथ उठाने से तो कम शर्मनाक है..

जहाँ तक वेलेंटाइन डे का सवाल है, निश्चित रूप से यह दिन बाजारवादी सभ्यता की देन है, जो रिश्तों को भी करेंसी में भुनाना चाहती है। पश्चिमी परिदृश्य में निरंतर खोखले हो रहे रिश्तों, किशोरों में बढ़ रहे माँ-बाप और घर से अलग रहने का ट्रेंड, बिना कमिटमेंट के रिश्ते, और दीर्घकालीन संबंधों से अरुचि जैसे अगणित कारक हैं, जो मदर्स-डॆ, फादर्स-डे, और वेलेंटाइन-डे जैसे दिनों को मनाने का मूल बनते हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में यह ग़लत नहीं ठहराया जा सकता।

भारतीय सभ्यता तो हर दिन कोई न कोई त्यौहार मनाती है, न मानें तो पंचांग उठाकर देख लीजिये। ऐसे में माँ-पिता के सम्मान के लिये कोई विशेष दिन अलाट करने जैसी कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन वेलेंटाईन-डे के साथ भी क्या ऐसा ही है, खुद से पूछिये।

लगभग पूरे देश, खासतौर पर उत्तर भारत में ऑनर किलिंग जैसी घृणित मध्ययुगीन परिपाटियाँ न सिर्फ़ जीवित हैं, बल्कि फल-फूल रही हैं.. तथाकथित ओपेन-माइंडेड वर्ग में भी। ब्लॉग लिखने-पढ़ने वाले लोग ज्यादातर बुद्धिजीवी होते हैं (कोई व्यंग नहीं, यह सामान्य मनोवृत्ति है), लेकिन आप में से कितनी बड़ी बेटियों के बाप अपने लड़कियों के विपरीत लिंगी मित्रों से सहज महसूस करते हैं..? कितने घरों में स्कूल/कॉलेज खत्म होने के एक या अधिक घंटे बाद घर लौटने वाली लड़की को संदेह की नजरों से नहीं देखा जाता..? फोन पर जरा सा भी मुस्कुराकर बात करती लड़की को देखकर किसके दिमाग में शक का कीड़ा नहीं कुलबुलाता..? अजी छोड़िये, अगर रात के 11 बजे या उसके बाद लड़की के फोन पर मिस्ड कॉल आ जाये, तो कितने पैरेंट्स हाइपरटेंशन का शिकार हो जाते हैं..! गिरिजेश जी भी यह बात स्वीकार कर चुके हैं, कि स्कॉलर बिटिया समय निकालकर ‘फाइव प्वाइंट समवन’ पढ़ लेती है, जबकि वे यह नहीं तय कर पाते हैं कि उसे ‘मुझे चाँद चाहिये’ पढ़नी चाहिये या नहीं..!

मैं नारी-मुक्ति आंदोलन की वक़ालत नहीं कर रहा/मेरे अंदर इतना बूता भी नहीं.. लेकिन हिन्दीभाषी, और खासकर गोबरपट्टी के माँ-बाप अपनी लड़कियों को आज भी आज़ादी देने के पक्षधर नहीं, बल्कि उनकी कंडीशनिंग ऐसी कर दी जाती है, कि वे राह चलते हो रही फिकराकशीं को सर झुकाये चुप-चाप सिर्फ बर्दाश्त करती जाती हैं, किसी सीधे-सादे लड़के के प्रपोज करने पर टसुए बहाते भाग निकलती हैं, और किसी मनबढ़ को खुलकर मना करने का साहस नहीं जुटा पातीं। मैं जिस कॉलेज में पढ़ता हूँ, वह उ०प्र० प्राविधिक विश्वविद्यालय (यू.पी.टेक्निकल यूनिवर्सिटी) के तीसरे नंबर का कॉलेज है- मेरिट और परीक्षा परिणामों की दृष्टि से। हालिया स्टार परफार्मर का भी पुरस्कार मिला है इसे.. लेकिन शाम साढ़े सात बजे लड़कियों को गार्ड सीटियों से ऐसे हाँक कर हॉस्टल भेजते हैं, जैसे बाल गोपाल माता से कह रहे हों- “मैया मैं तो धौरी चरावन जैहों”.. महीने में सिर्फ दो  बार शॉर्ट लीव(साप्ताहिक अवकाश के दिन सुबह 8 बजे से शाम के 8 बजे तक, और वर्किंग डे में शाम 4:30 से 8 बजे तक) मिल सकती है उन्हें..! और कल परसों नया शगूफा छेड़ा गया, कि अब होली-दीवाली की छुट्टियों में घर जाने को तभी अनुमति मिलेगी, जब माँ-बाप में से कोई एक उन्हें लेने आता है..! कारण सिर्फ इतना है, कि अपुष्ट सूत्रों के मुताबिक कोई छात्र-छात्रा कॉलेज ड्रेस में शहर में सिनेमा देखते पाये गये। कोई लड़की कॉलेज में किसी लड़के के साथ खुलेआम घूमती पाई जाये, तो उसकी मार्क्सशीट की सूरत बदल जाती है। कमाल की मुर्दा लड़कियाँ हैं, रोती हैं, कोसती हैं, लेकिन खुलकर विरोध नहीं जता सकतीं। निश्चित रूप से माँ-बाप ने बेहद उम्दा संस्कार दिये हैं.. और लड़कियों के पैरेंट्स की ड्रीम डेस्टिनेशन होता है यह कॉलेज।

चुनौती देता हूँ बजरंग दल, श्रीराम सेना और शिवसेना जैसे स्वघोषित संस्कृति के रक्षकों को.. इस अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठा कर दिखायें, मैं तुरन्त उनकी सदस्यता ग्रहण कर लूँगा..!

और इस दमघोंटू वातावरण में जी रहे एकाध पंछी वेलेंटाईन डे जैसे सिम्बोलिक दिन अगर साथ में कुछ समय व्यतीत करना चाहते हैं, या कोई दब्बू लड़का अपनी एकतरफा मुहब्बत का इज़हार करना चाहता है, तो भाईलोग मारते-पीटते हैं.. जबरिया शादी करा देते हैं, कालिख पोत कर शहर में घुमाते हैं.. उनको कानून हाथ में लेने से मना कर मेरठ की पुलिस ऑपरेशन मजनूँ चलाती है, सीओ साहिबा स्वयं लड़के-लड़कियों को कंटापित करती हैं.. संस्कृति के रक्षक कहते हैं कि हमारी सभ्यता में प्रेम के लिये कोई दिन विशेष निर्धारित नहीं- सही बात है भाई, तो फिर आज के दिन प्रेम की पींगे बढ़ा लेने दो, क्यों रोकते हो?

और अगर विरोध बाजारीकरण का है, तो फिर मदर्स-डे या फादर्स-डे का विरोध क्यों नहीं??

छोटे शहरों व कस्बों के माँ-बाप को अपने बच्चों को जीने का स्पेस मुहैया कराना ही होगा, अन्यथा उनका प्राकृतिक विकास अवरुद्ध ही होगा, कोई फायदा होने वाला नहीं। साथ ही साथ उन्हें अपने बच्चों पर, उन्हे दिये गये संस्कारों पर भरोसा करना ही होगा, इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं।

जो कहते हैं, कि पाश्चात्य सभ्यता के चलते युवाओं का चारित्रिक स्खलन हो रहा है, ऐसे स्व-नियुक्त नैतिकता के ठेकेदारों से कहना है कि हमारे नैतिक संबल बहुत मजबूत हैं, कृपया उनके बारे में न सोचें। आपको कोई हक़ नहीं इस सर्वसमावेशी प्राचीन सभ्यता के मठाधीश बनने का। जो लोग कहते हैं कि ये डे-वे मुक्त यौनाचार को बढ़ावा दे रहे हैं, उनसे पूछना है कि ऐसा क्या है आज के दिन में, कि जो लड़की साल भर नैतिक बनी रहती है, वह आज के दिन ‘ससेप्टिबल’ हो जाती है..?

हमारी नैतिकता पर शक़ न करें.. बल्कि सच तो यह है कि नैतिकता का ढिंढोरा पीटने वाले यही सड़क छाप सेनानी होली के दिन राह चलती लड़कियों पर रंग भरे गुब्बारे चलाकर मारते हैं, मारें भी क्यों न, उस दिन उनकी सभ्यता इसकी इज़ाजत जो देती है। होली सांस्कृतिक है, लेकिन वेलेंटाईन डे नहीं..!

और अपने मित्रों से कहना है, कि प्रेम को अंतरतम से महसूस करें, वह किसी दिन, किसी व्यक्ति का मोहताज नहीं, किसी व्यक्ति से भी हो सकता है, शरीरी हो जरूरी नहीं, अशरीरी भी हो सकता है। जरूरी नहीं कि मुखर होकर ही अभिव्यक्त हो, मौन अभिव्यक्ति से क्या प्रेम न होगा..?

आज मेरी माँ का जन्मदिन है.. हैप्पी बर्थडे माँ, हैप्पी वेलेंटाईन डे।

और हाँ, सुबह वाली पोस्ट बस ये चेक करने के लिये थी, कि ब्लॉगजगत में लोग कितने खलिहर बैठे रहते हैं..

चेतावनी- यह पोस्ट पढ़कर वक्त बर्बाद न करें..!



हुर्रे……….
याहू…. ढेन….टे….नान…
हुर्र…ल्क..ल्क..ल्क..
किड़्बिक..किड़्बिक…..किड़्बिक……

हुर्रे……….
याहू…. ढेन….टे….नान…
हुर्र…ल्क..ल्क..ल्क..
किड़्बिक..किड़्बिक…..किड़्बिक……

हुर्रे……….
याहू…. ढेन….टे….नान…
हुर्र…ल्क..ल्क..ल्क..
किड़्बिक..किड़्बिक…..किड़्बिक……


श्श्श्शशशशशशशशशश…….. आज कुछ है! आज तो बिलागिंग न करो!

सिद्धार्थ का दूसरा महाभिनिष्क्रमण..

गत 20 जनवरी को मेरे बड़े भाई डॉ० सिद्धार्थ Ischemic Heart and Brain Disorders पर शोध करने के लिये 3 साल के लिये दक्षिण कोरिया के लिये रवाना हुए.. परिवार में किसी की पहली विदेश यात्रा है यह.. सबका विचलित होना स्वाभाविक है.. मेरे विचलन का परिणाम है ये कुछ पंक्तियाँ..




भैया,
जा रहे हो तुम ना,
इस वतन से, इस आबो-हवा से दूर
नये लोगों के बीच
नई परिस्थितियों के बीच..




देखो-
तुम्हें विदा करने कौन आया है....!

गाँव के बाहर कच्चे आम के बागीचे/टपकते महुए के बाग
उसके पार धान के खेत/पम्पिंग-सेट के हौदे
कर्बला पर के साँप-बिच्छुओं की अनगिन दंतकथायें
पेड़ की कोटरों में छिपे चिड़ियों के अंडे
वे सारे तोते, जो तुमने पोसे
तुम्हारे खींचे कबड्डी-चीके के पाले/गाड़ी गईं विकेट
तुम्हारी लखनी/दुबरछिया के डंडे/सतगाँवा की गोटियाँ
तुम्हारा पहला बल्ला/सॉरी, मैनें तोड़ दिया था उसे
और तुम्हारी पहली ट्रॉफियाँ- जीते गये अनगिनत कंचे
जो मैनें हारे, सीखने की प्रक्रिया में.....


महिया में डूबा भूजा/अलाव में भुना आलू
नेपाली रबर की गुलेल- बहुत शिकार किये थे तुमने
पाठशाला के मौलवी साहब के डंडे
पोखरे का शिव मंदिर/घाट की सीढ़ियाँ/शिवरात्रि का मेला
नागपंचमी के दिन पुतरी पीटने के ताल-तलैये
दशहरे की रामलीला/ठाकुर जी का झूलन


बाबूजी का अखबार-ऐनक-खड़ाऊँ/अम्माँ का मीसा हुआ भात/चटनी
सोते हुए माँ के हाथों की खिलाईं रोटी/दी गई थपकियाँ
पापा के हाथ/बिना जिनके पकड़े दूध तुम्हारे गले से नीचे नहीं उतरता था
छोटे चाचा/जो रामलीला में तुम्हारे पीछे खड़े होकर तुम्हें
चतुर्भुज विष्णु का रूप देते/जबकि तुम स्टेज पर उँघ रहे होते
बड़े चाचा की लेग-स्पिन होती गेंदे
हर छुट्टी में तुम्हारे-मेरे पीछे पेट की दवा और पानी का गिलास लेकर दौड़ती बहन
जिसका पाणिग्रहण कराके विदा किया है तुमने अभी
टिल्लू, आदित्य, छुटकी, छोटा बाबू/तुम जिनके लिये बाबाभैया हो
और मैं..!


और भी हैं....
लखनऊ यूनिवर्सिटी के लेक्चर हॉल/सिमैप की लैब
क्लासिक की चटनी/बादशाहनगर का प्लेटफॉर्म/गोरखनाथ एक्सप्रेस
रविवार को मौसी के घर का खाना/गंजिंग
रीगल सिनेमा/पालिका बाजार/नाथू के समोसे
कोटला फीरोजशाह के बंद दरीचों के बाशिंदे
बुआ की बनाई घुघनी/दिल्ली की ठंड
और...और...और...


और भी असंख्य चीजे हैं, जो विदा करती हैं तुम्हें
ये और कुछ नहीं, तुम्हारे अस्तित्व के कण हैं/तुम्हारे फंडामेंटल पार्टिकल्स
ये सारे रंग/खुशबुयें/स्वाद/इमेजेस/महसूसियात/श्रुतियां/स्मृतियां
सहेज कर ले जाना अपने साथ
खुद को कभी अकेला नहीं पाओगे/अजनबियों के बीच भी
निस्वार्थ प्रेम रहा है इनका/किसी प्रतिदान की आकांक्षा नहीं




लेकिन मेरी एक आस है.....


सदियों पहले तुम्हारे ही एक  नेमसेक ने घर छोड़ा था
तो दुनिया को मिली थी ज्ञान, सत्य की अद्भुत विरासत
शांति के अनंतिम शिखर..
मैं चाहूँगा-
इस गाँव-गिराँव-समाज-राज्य-राष्ट्र को कुछ मिले तुमसे
सुना तुमने!


मैं चाहूँगा,
यह सिद्धार्थ का दूसरा महाभिनिष्क्रमण सिद्ध हो..!
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    पेशे से पुलिसवाला.. दिल से प्रेमी.. दिमाग से पैदल.. हाईस्कूल की सनद में नाम है कार्तिकेय| , Delhi, India

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