रात बीत रही है। ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा हो रहा है कि बीतती हुई रात अच्छी नहीं लग रही। रात के ढाई बजे बालकनी में खड़े हुए जी में बस ये आ रहा है कि सॉफ्टपीडिया सर्च करूँ, शायद कोई ऐसा सॉफ्टवेयर मिल जाये जो इस बेरहम रात को बीतने से रोक ले, या कम से कम धीमा तो कर ही दे,,
बहुत से पल जेहन में आते हैं, लमहे भर की कौंध चमक जाती है आँखों में और फिर धीरे-धीरे सब कुछ खो जाने का अहसास तारी होने लगता है। कॉलेज इतना अच्छा कभी नहीं लगा। रैगिंग से फेयरवेल तक की यादें न्यूज़रील की तरह सामने से गुज़र रही हैं और कमबख्त दिल यह मानने को तैयार नहीं कि यह इस कॉलेज, इस कैम्पस में मेरी आखिरे-शब है।
कल ईशान की एक मेल मिली। एक बच्चे की कहानी थी, जिसकी माँ किसी फर्म में काम करती थी। शाम को जब लौटी, तो दरवाजे पर खड़े बच्चे ने पूछा- "माँ, तुम्हारी एक घण्टे की सेलरी कितनी होती है?" माँ ने हिसाब लगाकर बताया- 50 रुपये| बच्चे ने कहा- "क्या मुझे 25 रुपये मिल सकते हैं?" थोड़ा ना-नुकर करने के बाद माँ पैसे दे देती है। बच्चा दौड़कर जाता है और अपने कमरे में तकिये के नीचे से जमा किये हुए कुछ मुड़े-तुड़े नोट निकालता है। माँ का चेहरा तमतमा जाता है। वह डाँटते हुए कहती है "मेरी दिनभर की मेहनत के बाद थके हुए घर आने पर तुम मुझसे पैसे माँगते हो.. शायद कुछ खिलौनों के लिये.. वो भी तब, जबकि तुम्हारे पास पहले से ही पैसे हैं.. शर्म नहीं आती तुम्हें?"
बच्चा कहता है- "मेरे पास 25 पहले से थे, 25 तुमने दिये.. यह लो माँ, तुम्हारे एक घंटे की कीमत.. क्या तुम कल एक घंटा पहले घर आ सकती हो, तुम्हारे साथ कुछ वक़्त चाहिये।"
ब्लॉगिंग मेरी हॉबी है, लेकिन मेरे दोस्त मेरा पैशन। कोर्स के आखिरी कुछ दिन अपने दोस्तों को पूरा वक़्त दे सकूँ, इसलिये पिछली पोस्ट के बाद ब्लॉगिंग को अल्पविराम देने का निर्णय ले लिया। कल की यह मेल मिलने के बाद लगा, कि मेरा निर्णय ग़लत नहीं था।
और ये रात.. कई दिनों के बाद आज मौसम बहुत खुशगवार है। तेज पुरवाई चल रही है। गर्मियों में इससे अच्छे मौसम की उम्मीद नहीं की जा सकती। काश यह रात एक उम्र भर चलती। काश अगली सुबह कभी न होती। आखिर क्यों बदलता वक़्त ऐसे मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देता है, जहाँ सारी कोशिशों के बाद भी यह हक़ीकत झुठलाई नहीं जा सकती, कि बस एक क़दम और.. और फिर लौटकर आना न होगा। और यह जानने के बाद भी यह क़दम उठाना मजबूरी क्यों बन जाता है?
आखिरी वाइवा के दौरान राहुल कहता है- "यार ज़िन्दगी तो डीजे(आमिर खान, रंग दे बसंती) की तरह होनी चाहिये। डिग्री पूरी होने के दो साल बाद भी कॉलेज में पड़े हुए हैं। क्यों? क्योंकि यहाँ अपनी "औक़ात" है.." मेरे चेहरे पे मुस्कान तैर जाती है। काश यह सच हो सकता।
बहुत से पल जेहन में आते हैं, लमहे भर की कौंध चमक जाती है आँखों में और फिर धीरे-धीरे सब कुछ खो जाने का अहसास तारी होने लगता है। कॉलेज इतना अच्छा कभी नहीं लगा। रैगिंग से फेयरवेल तक की यादें न्यूज़रील की तरह सामने से गुज़र रही हैं और कमबख्त दिल यह मानने को तैयार नहीं कि यह इस कॉलेज, इस कैम्पस में मेरी आखिरे-शब है।
कल ईशान की एक मेल मिली। एक बच्चे की कहानी थी, जिसकी माँ किसी फर्म में काम करती थी। शाम को जब लौटी, तो दरवाजे पर खड़े बच्चे ने पूछा- "माँ, तुम्हारी एक घण्टे की सेलरी कितनी होती है?" माँ ने हिसाब लगाकर बताया- 50 रुपये| बच्चे ने कहा- "क्या मुझे 25 रुपये मिल सकते हैं?" थोड़ा ना-नुकर करने के बाद माँ पैसे दे देती है। बच्चा दौड़कर जाता है और अपने कमरे में तकिये के नीचे से जमा किये हुए कुछ मुड़े-तुड़े नोट निकालता है। माँ का चेहरा तमतमा जाता है। वह डाँटते हुए कहती है "मेरी दिनभर की मेहनत के बाद थके हुए घर आने पर तुम मुझसे पैसे माँगते हो.. शायद कुछ खिलौनों के लिये.. वो भी तब, जबकि तुम्हारे पास पहले से ही पैसे हैं.. शर्म नहीं आती तुम्हें?"
बच्चा कहता है- "मेरे पास 25 पहले से थे, 25 तुमने दिये.. यह लो माँ, तुम्हारे एक घंटे की कीमत.. क्या तुम कल एक घंटा पहले घर आ सकती हो, तुम्हारे साथ कुछ वक़्त चाहिये।"
ब्लॉगिंग मेरी हॉबी है, लेकिन मेरे दोस्त मेरा पैशन। कोर्स के आखिरी कुछ दिन अपने दोस्तों को पूरा वक़्त दे सकूँ, इसलिये पिछली पोस्ट के बाद ब्लॉगिंग को अल्पविराम देने का निर्णय ले लिया। कल की यह मेल मिलने के बाद लगा, कि मेरा निर्णय ग़लत नहीं था।
और ये रात.. कई दिनों के बाद आज मौसम बहुत खुशगवार है। तेज पुरवाई चल रही है। गर्मियों में इससे अच्छे मौसम की उम्मीद नहीं की जा सकती। काश यह रात एक उम्र भर चलती। काश अगली सुबह कभी न होती। आखिर क्यों बदलता वक़्त ऐसे मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देता है, जहाँ सारी कोशिशों के बाद भी यह हक़ीकत झुठलाई नहीं जा सकती, कि बस एक क़दम और.. और फिर लौटकर आना न होगा। और यह जानने के बाद भी यह क़दम उठाना मजबूरी क्यों बन जाता है?
आखिरी वाइवा के दौरान राहुल कहता है- "यार ज़िन्दगी तो डीजे(आमिर खान, रंग दे बसंती) की तरह होनी चाहिये। डिग्री पूरी होने के दो साल बाद भी कॉलेज में पड़े हुए हैं। क्यों? क्योंकि यहाँ अपनी "औक़ात" है.." मेरे चेहरे पे मुस्कान तैर जाती है। काश यह सच हो सकता।
क्या तो नहीं किया इन चार सालों में, अपार्ट फ्रॉम स्मोकिंग एंड ड्रिंकिंग। गानों की उल्टी-सीधी पैरोडी बनाना, चीफ वार्डेन के सामने सिर झुका के खड़े रहना। विवेक के साथ बतियाते हुए सुबह हो जाना (वेन्यू- बाथरूम)। अली-मिश्रा-मुर्गा-माथुर-शेट्टी के साथ विवादास्पद मुद्दों पर रात भर चलने वाली असंसदीय बहस। Life In SRMS बनाना। सुबह तीन लेक्चर बंक करके चौथी लेक्चर अटेंड करने पहुँचना। पता चलने पर कि फ़ैकल्टी ऐब्सेंट है, उल्टे पाँव लौट आना। नतीजतन शॉर्ट अटेंडेंस का फाइन देना, पिता की डाँट सुनकर रेगुलर हो जाना, पैसे वापस मिलना। अगले सेमेस्टर में फिर शॉर्ट। तोड़-फोड़ करने के जुर्म में एक महीना हॉस्टल से बाहर रहना। वॉर्डन के फर्जी सिगनेचर मारने पर पूरे सेमेस्टर गेटेड रहना। फ्रस्टेशन में प्रोजेक्ट लैब में बैठकर पूरे डिपार्टमेन्ट को गालियाँ देना। पूरे मुस्लिम बाहुल्य इलाके में एकमात्र हिन्दू कौशल के ढाबे पर खाना। एक सेमेस्टर के बाद पता चलना कि उसका नाम कौशल नही क़ौसर है- क़ौसर मुहम्मद। लेकिन उसके हाथ के बने खाने के जायके के आगे भाड़ में गई पंडिताई..।
दोस्ती का पहला उसूल तोड़ने का मन करता है। जी में आता है हर दोस्त से गले मिलकर उसे "थैंक-यू" बोलूँ। यह जानते हुए भी कि दोस्ती में "थैंक-यू" नहीं बोलते। लेकिन जिन दोस्तों के साथ यह खूबसूरत चार साल बीते हैं, उनका क़र्ज़ कैसे चुकेगा?
"थैंक-यू" दोस्तों, इस कॉलेज को चार साल साथ में झेलेबल बनाने के लिये..
"थैंक-यू" पंकज, इस कॉलेज को घर जैसा अहसास देने के लिये। "थैंक-यू" विवेक, मेरी अंतहीन बकवासें सुनने के लिये।
"थैंक-यू" नंदी, हर शाम मेरे साथ कौशल भाई को तकलीफ देने चलने के लिये..।
"थैंक-यू" अली भाई उन सारी गरमा-गरम बहसों के लिये, जो किसी भी वक़्त हाथापाई में तब्दील हो सकती थीं..।
"थैंक-यू" साबू, गौरव, अन्ना, देवांश, सिद्धार्थ, प्रज्ञा, सौम्यता, श्रुति और असंख्य जूनियर्स, मुझे अपने बड़े भाई सा स्नेह देने के लिये।
"थैंक-यू" तन्वी, सौम्या, वन्दना, कीर्ति, मेरी सारी बर्थडे पर कार्ड बनाने के लिये, ट्रीट में गाने गाने के लिये।
"थैंक-यू" जागृति, इस पूरे 4 सालx365 दिनx24 घंटे मेरा साथ देने मौजूद रहने के लिये।
कितनी उम्मीदें, कितने अरमान लिये हम ज़िन्दगी से दो-दो हाथ करने का हौसला पाले रखते हैं। अब सामने मुँह फाड़े असल ज़िन्दगी दिखती है तो डर लगता है कि तुम्हारे बिना कैसे जूझ सकूँगा इससे??
विचार गड्ड्मड्ड हो रहे हैं। शब्द संयोजन बिगड़ रहा है। अब बंद करता हूँ। पैकिंग करनी है। कैम्पस से आखिरी पोस्ट है। देखते हैं असल ज़िन्दगी रूमानियत का कितना हिस्सा सोख लेती है..! कुछ लाइनें याद आ रही हैं..
वक़्त की क़ैद में ज़िन्दगी है मगर / चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं
इनको खोकर मेरी जानेजाँ / उम्र भर न तरसते रहो
आज जाने की ज़िद न करो.. यूँ ही पहलू में बैठे रहो..
बाद में: यह पोस्ट आलोक के लिये.. इस उम्मीद में कि अगली पोस्ट भी जल्द कर सकूँगा।