कुछ दिनों पूर्व ब्लॉगिंग में मेरे पथ-प्रदर्शक सिद्धार्थ जी का एक लेख व्यापक बहस का मुद्दा बना था। मैं मैदाने-जंग से एज-यूजुअल अनुपस्थित था। अब सोच रहा हूँ अपना पक्ष रखके भागते भूत की लंगोटी तो सहेज ही लूँ.. क्या पता कॉमनवेल्थ गेमों में जो इज्जत नीलाम होने वाली है, उस समय अपनी इज्जत ढंकी रह जाये।
प्रश्न यह है कि जिन प्रोफ़ेश्नल डिग्री धारकों, जैसे इंजीनियर, डॉक्टर आदि को प्रशासनिक क्षेत्र में आने से रोकने की बात की गई है, उन्होंने अपने प्रोफेशन का चयन किन परिस्थितियों में किया। मेरी व्यक्तिगत मान्यता व अनुभव यह है कि दसवीं के विद्यार्थी की शारीरिक-मानसिक परिपक्वता के कितने भी दावे कर लिये जायें, वस्तुस्थिति यही होती है कि प्लस टू के स्तर पर विषय चयन में उनका सबसे बड़ा प्रेरक तत्व संगी साथियों की अभिरुचि ही होती है। खासतौर पर गोबरपट्टी, उसमें भी मध्यम-निम्न मध्यमवर्गीय माता-पिताओं की दमित आकांक्षायें होती हैं कि उनका बेटा या बेटी इंजीनियर डॉक्टर बने। ये फ्रॉयडीय दमित इच्छाएं भी हो सकती हैं, लेकिन वर्तमान सामाजिक परिवेश में आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से इस प्रवृत्ति की सीधी आलोचना किया जाना भी श्रेयस्कर नहीं है।
तो बचपन से ही जहाँ बच्चे को यह सिखाया जा रहा हो कि बेटा अगर अंकल पूछें कि क्या बनोगे? तो बोलना इं..जी..नि..य..र.., या बेटी के केस में डॉक्टर।वहाँ वह बच्चा दसवीं तक आते आते अपना मानसिक स्तर इनके परे सोच सकने तक उठा ले, तो यह उसकी प्रबल इच्छाशक्ति ही होगी, कोई सामान्य परिस्थिति नहीं। तिसपर उसके सभी हमउम्र साथियों की यही सोच... इस भेड़ियाधसान में उसे कहाँ स्कोप है निरपेक्ष भाव से अपने कैरियर संबंधी निर्णय ले पाने का, या अन्य विकल्पों के बारे में सोच सकने का। यही विकल्पहीन की गई जनता ही जब आंखें मूंदे बंसल, फिटजी, आकाश के प्रश्नों के घोटे लगाये प्रथम-द्वितीय या तृतीय श्रेणी के कॉलेजों में दाखिला ले लेती है, और जब सत्य का साक्षात्कार होता है तो उनके हाथों के तोते उड़ जाते हैं। मेरे पास आज भी दोस्तों के एसएमएस आते हैं- " निगाह आज तलक ढूंढती है उस आदमी को, जिसने कहा था बी.टेक कर लो- बड़ा स्कोप है।"
एकाध बिरले कॉलेजों को छोड़ दिया जाय तो लगभग सभी इंजीनियरिंग कॉलेज इतनी सड़ांध मारती शिक्षा पद्धति से जुड़े हैं, जहाँ छात्र का चार वर्षीय कार्यक्रम बन जाता है येन-केन-प्रकारेण बैक बचाना। शिक्षकों के आगे-पीछे घूमकर, चरण-चुंबन के द्वारा इन्टर्नल जुटाना ताकि ग्रेड प्वाइंट/ परसेंटेज ठीक-ठाक बन सके। फ़िर इधर उधर से चुराये आइडिया को किसी तरह प्रोजेक्ट के रूप में पूरा करना। एकाध आईआईटी को छोड़ दें तो कहीं नवाचार, अनुसंधान पर कोई बल नहीं। स्मार्टनेस के नाम पर अभिरुचि घटियापन के सबसे निचले स्तरों को पार कर जाती है, ये सब इस प्रणाली के एड-ऑन हैं।
कम्पनियों की भी यही परिस्थिति है। अधिकतम उदासीन और बॉस-चरणसेवी बनकर हर कोई “Saving Own Ass” में लगा हुआ है। आप बताइये- एक महात्वाकांक्षी, चुनौती स्वीकारने वाला और प्रतिभाशाली युवा अब क्या करे? इनमें वे विकल्पहीन भी होते हैं, और तुलनात्मक रूप से जानबूझकर यहाँ फ़ंसे युवा भी, जिनके सामने इस सेक्टर की हक़ीकत अब उजागर हुई है। अब अगर इसी सेक्टर में रहना है तो धीरे से विदेश की राह पकड़ लो.. तब भी लोगों की आलोचना का शिकार बनना है। भारतीय कंपनियां इन्फोसिस, टीसीएस, टेक-महेन्द्रा, एयरटेल, रिलायंस आदि सभी कर्मचारियों के लिये यातना शिविर बनी हुई हैं.. क्यों इन कंपनियों को अमेरिका में “Body Shops” कहकर हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है, कारण यहाँ की व्याप्त घटिया कार्यसंस्कृति है जो किसी महात्वाकाँक्षी युवा को संतुष्ट कर पाने में असफल है। उपभोक्ता संतुष्टि के मामले में सेपिएन्ट, एसेंचर जैसी कम्पनियों की तुलना मॆं हमारी कम्पनियां कहाँ ठहरती हैं?
तो दूसरा विकल्प बचता है कैरियर स्विच करने का, और समझदार लोग वह करते भी हैं। आप फाउल नहीं रो सकते.. वे गैर विज्ञान विषय, जैसे दर्शन-लोकप्रशासन-समाजशास्त्र-मनोविज्ञान, यहां तक कि हिन्दी-उर्दू-पालि लेकर इन्हीं विषयों के ग्रेजुएट-पोस्टग्रेजुएट से स्पर्धा करते हैं और सफल होते हैं। आप इन्हें रोकने की वक़ालत क्यों करते हैं? संरक्षणवादी प्रवृत्तियां छोड़िये, मुक्त प्रतिस्पर्द्धा का जमाना है।
दूसरा प्रश्न उठा सामान्यज्ञ बनाम विशेषज्ञ का । आप तेजी से बदलती परिस्थितियों के सन्दर्भ में देखें, खासकर नब्बे पूर्व और आज। आर्थिक सुधारों, वैश्वीकरण से पूर्व प्रशासन की चुनौतियां क्या थीं, और अब क्या हैं? साइबर क्राइम, पर्यावरण संरक्षण, ई-वेस्ट, आपदा प्रबंधन, आर्थिक अपराध, ग्राहकोन्मुखता, आर्थिक अपराध, जल संसाधन प्रबंध, सूचना क्रांति, ई-गवर्नेंस, डिजिटलीकरण, पेपरलेस ऑफिस आदि प्रमुख प्राशासनिक चुनौतियां और दायित्व नब्बे से पूर्व कहां थे? आज ये लोकसेवा का बहुत बड़ा कार्यक्षेत्र निर्मित करते हैं, और प्रशासन में विशेषज्ञता की माँग करते हैं। लक्षण तो यही बताते हैं कि सामन्यज्ञों के दिन बस लदने वाले हैं। समान विषय लेकर चयनित व साक्षात्कार में पहुँचे दो अभ्यर्थियों, जिनमें से एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि का है और दूसरा गैर वैज्ञानिक पृष्ठभूमि का.. में से चयन करने में आयोग को कोई समस्या नहीं होती। और यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि एक बी.टेक. या एमबीबीएस बंदा किसी बीए-एमए का हक़ मार रहा है, बल्कि उपलब्धि यह है कि देश को एक योग्य प्रशासक मिल रहा है, जो समस्या निदान (Troubleshooting) में ज्यादा सक्षम है। इंजीनियर मुख्यमंत्री द्वारा शासित बिहार का विकास मॉडल, जो दशकों से पिछड़े राज्य को 11.5% की विकास दर तक पहुँचाता है, या अपराधियों का आधुनिक डाटाबेस इस्तेमाल करने वाली यूपी पुलिस, जो इस कार्य के लिये लखनऊ के पूर्व एसएसपी नवनीत सिकेरा(बी.टेक) की शुक्रगुजार है, या फिर रानीखेत के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट डॉ. अडप्पा कार्तिक, जो हर हफ्ते वहाँ की गरीब पहाड़ी जनता के लिये मुफ़्त चिकित्सा शिविर आयोजित करते हैं... ये सब बदलाव की खुशनुमा हवा के झोंके हैं। इनसे वंचित कराना किसी के साथ न्याय नहीं होगा.. न तो इन प्रतिभाओं के लिये, न ही पहले से ही भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और सदियों पुराने नियम कानूनों में जकड़ी अफसरशाही के लिये।
मौज में: वैसे भी इनके प्रशासन में आने से इंजीनियरिंग सेक्टर का कुछ बिगड़ने वाला नहीं। नैस्कॉम के सर्वे के मुताबिक नये नवेले पास-आउट में से लमसम 80% किसी तकनीकी नौकरी के लायक नहीं होते।
लिखते कम हो मगर लिखते सही हो। सहमत हूँ लिखने की ज़रूरत ही नहीं है। दुनिया में यह बडी कमी है कि काम कर सकने वाले काम में लग जाते हैं और काम कम कर सकने वाले उनके नीति-निर्धारक और दिशा निर्देशक बन के दीन-दुनिया का कबाडा करने लगते हैं। सिपाही के लिये निशानेबाज़ी का प्रशिक्षण अर्हता होने का अर्थ यह नहीं होना चाहिये कि निशानेबाज़ होना जनरल बनने के लिये अक्षमता गिना जाये। जो लोग अभियांत्रिकि आदि कठिन विषयों को बखूबी नियंत्रित कर चुके हैं वे प्रशासन को भी उन लोगोन से बेहतर नियंत्रित कर सकते हैं जो इन विषयों में असफल रहे - ऐसी सम्भावना अधिक है। वैसे इसी विषय पर एक अलग दृष्टि डाल रहे हैं पिट्सबर्ग की पांचवीं कक्षा के स्नातक
सुचिंतित सुविचारित
इस देश में कोई कुछ उखाड़ने वाला नहीं. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता.. जब तक विद्यार्थी पढ़ता रहता है उसे सब कुछ दिखाई देता है और जब कुर्सी पा जाता है तो उसकी आंखों पर हरी पट्टी चिपक जाती है.... इब्दिताये इश्क है.. मियां
right said friend,,and perfectly quoted too....keep it up..
भैय्या अपने यहा तो पहले से ही चलन है पढे फ़ारसी बेचे तेल . आज तक मैने जो पढा वह मेरे किसी काम ना आया . यह तुम्हे भी मह्सूस होगा जब तुम सैटल हो जाओगे . जो चार साल भाड झोकी वह कहा पीछे रह गई .
Much discussion is going on about pros and cons of the newly introduced CSAT.
Many are now in lurch and waiting for notification which is definitely going to make or mar the destiny of so many hard working aspirants. One has to have trust instilled in Government of India, the recruiting body here. Govt. of India; India; represented by the three ‘I’s: IITs, IIMs n IAS at the international forum.
At one side changing the course of selection pattern drastically, may itself raise doubts about the hitherto selection process UPSC is following presently, however, on the other side it can be expected that the lacunae in Current Examination System might be overcome to a greater extent by this CSAT. Moreover, CSE with revised pattern will implicitly raise chances for students rather individuals willing to Serve Nation at their best.
Individuals having Moral And Ethical Values; who favour poor of this country; who favour Secularism; equality in all prospects; those who are willing to come into the system and solve problems like naxalism and corruption. One should ask oneself if he/she is willing to work efficiently and do well for farmers and landless labours; to contribute to the Welfare of Nation in International Arena; and obviously willing to change lives of crores of Indians.
Being professionally settled doesn’t mean one is going to cater with all the requisites of being an administrator; however, hopefully CSAT favors individuals who turn out to be efficient administrators in the country having 38% population below poverty line.
That was in response to your second question.
दमदार चिन्तन।
कल ही सोच रहा था कहाँ गायब हो, चलो आये तो.
वो बहस पढ़ी थी पर कुछ क्लाहते-कहते लौट आया था.
इस पर कई बार कई लोगों से बहस हुई है. मुझे लगता है जीवन में जब रियलाइज़ हो तब इंसान 'जो अच्छा कर सकता है' उस तरफ मुड़ना चाहिए. चाहे इंजिनियर, डॉक्टर, वकील कोई भी हो. अगर एक प्रसासनिक अधिकारी को रियलाइज़ होता है (और मुझे यकीन है कि ऐसा अक्सर होता है !) कि यह काम उसके लायक नहीं है तो उसे भी छोड़कर वो करना चाहिए जो वो अच्छे और ख़ुशी से कर सके! अब बात यहाँ आके अटकती है जो मैंने अनुरागजी की पोस्ट पर कहा था... जैसे जैसे ब्रेड बटर की समस्या ख़तम होती जायेगी. हम उस तरफ बढ़ते जायेंगे.
लिखित तौर पर कहीं आपको याद किया था , संयोग देखिये आप इतनी शीघ्र दिख गए , दीर्घायु हों आर्य !
@ ....... प्लस टू के स्तर पर विषय चयन में उनका सबसे बड़ा प्रेरक तत्व संगी साथियों की अभिरुचि ही होती है।
--- पर अभिभावकों के सम्मुख एक प्रश्न यह भी होता है कि १०-१२ वीं के विद्यार्थी के निर्णय को कितना रेसनल मान कर चला जाय | दूसरी वाली बात आपने कही ही है कि आर्थिक सुरक्षा के चलते ..... |
कुल मिलाकर वह चिंता सदा ही रही है , 'कहाँ जाई का करी' ! रामराज्य तो स्वप्न ! चिंतनशील प्रविष्टि !
स्वागत योग्य पोस्ट। आपने सच्चाई बयान की है। लेकिन यह सच्चाई ही हमें दुनिया का एक अविकसित देश बने रहने पर मजबूर करती है।
मैंने प्रश्न यह किया था कि देश में पैदा होने वाले सर्वोत्कृष्ट मस्तिष्क कहाँ निवेशित किए जाँय। प्रशासन और मैनेजमेंट में?
क्या यह एक कारण नहीं है कि हमारे देश में एक भी मौलिक खोज या अविष्कार नहीं हो पाते जिनसे मानव जीवन को बेहतर बनाया जा सके और पूरी दुनिया उसकी मुरीद हो जाय? यहाँ का कोई वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार के लायक क्यों नहीं बन पाता? हमें राष्ट्र की रक्षा या वैज्ञानिक विकास कार्यों हेतु आवश्यक अत्याधुनिक तकनीकों के लिए परमुखापेक्षी क्यों बने रहना पड़ता हैं? साधारण मशीनरी के लिए भी विदेशों से महंगे सौदे क्यों करने पड़ते हैं? आखिर क्यों हमारे देश की प्रतिभाएं अपने वैज्ञानिक कौशल का प्रयोग यहाँ करने के बजाय अन्य साधारण कार्यों की ओर आकर्षित हो जाती है? क्या यह किसी राष्ट्रीय क्षति से कम है?
(जारी)
हमने जो सिस्टम बनाया है उसमें तो आई.ए.एस. होना ही सबसे महत्वपूर्ण होना है। लेकिन क्या यह एक विकसित तंत्र है? मैं तो ऐसे तम्त्र की कामना करता हूँ जहाँ देश के वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में विश्वस्तरीय शोध कर सकें, इन्जीनियर उत्कृष्ट परियोजनाओं का निर्माण कर उनका क्रियान्वयन करा सकें, विकास को बढ़ावा देने वाले उद्योग स्थापित करा सकें, चिकित्सा वैज्ञानिक देश और दुनिया में रोज पैदा होती नयी बीमारियों से लड़ने के लिए गहन शोध और अनुसंधान द्वारा नयी चिकित्सा तकनीकों और दवाओं की खोज कर सकें, रक्षा वैज्ञानिक देश के भीतर ही हर प्रकार के बाहरी खतरों से लड़ने के लिए आवश्यक साजो-सामान और आयुध तैयार कर सकें, अर्थ शास्त्री देश के हितों के अनुसार समुचित नीतियाँ बना सकें, कृषि वैज्ञानिक इस कृषि प्रधान देश की जरूरतों के मुताबिक पर्याप्त मात्रा में उन्नत बीज, उर्वरक और रसायन बना सकें तथा नयी कृषि तकनीकों का आविष्कार कर उसके उपयोग को सर्वसुलभ बनाने का रास्ता दिखा सकें। देश में विश्वस्तरीय शिक्षा संस्थान और विश्वविद्यालय संचालित हों जिनमें मेधावी छात्रों को पढ़ाने के लिए उच्च कोटि के शिक्षक उपलब्ध हों।
जब देश की प्रखर मेधा प्रशासन और प्रबंधन में लग जाएगी तो यह सब कौन करेगा?
@वे गैर विज्ञान विषय, जैसे दर्शन-लोकप्रशासन-समाजशास्त्र-मनोविज्ञान, यहां तक कि हिन्दी-उर्दू-पालि लेकर इन्हीं विषयों के ग्रेजुएट-पोस्टग्रेजुएट से स्पर्धा करते हैं और सफल होते हैं। आप इन्हें रोकने की वक़ालत क्यों करते हैं? संरक्षणवादी प्रवृत्तियां छोड़िये, मुक्त प्रतिस्पर्द्धा का जमाना है।
मैं ऐसी मूर्खता की बात सोच भी नहीं सकता तो वकालत कैसे कर सकता हूँ? मैं सामान्य विद्यार्थियों व नौकरी की जद्दोजहद में पसीना बहाते साधारण स्तर की प्रतिभा वाले कथित डॉक्टर, इंजीनियर,या बी.ए./बी.कॉम पास ग्रेजुएट्स की चर्चा ही नहीं कर रहा था। मेरा निशाना Top brains of the nation थे जो दुर्भाग्य से कलक्टरी करना सबसे बड़ा काम समझने लगे हैं।
एकदम कटु सत्य... अपनी मिट्टी पलीत होने वाली है पूरी दुनिया के सामने और अपनी मजबूरी देखिये कि कुछ कर भी नहीं सकते...।
शिक्षा प्रणाली और कार्य प्रणाली बदलने की जरुरत है और जो कि आज के समय की मांग भी है। हमारे भारत की कंपनियों में मानव संसाधन विभाग केवल औपचारिकता के लिये होते हैं, जो कार्य इन्हें करने चाहिये, उन कार्यों के मानक के सही अर्थ भी उन्हें पता नहीं होते हैं।
अब ८०% तो बेकाम के होंगे ही जब कुकुरमुत्ते जैसे इंजीनियरिंग महाविद्यालय खुलेंगे। जहाँ कभी केवल १ इंजीनियरिंग महाविद्यालय हुआ करता था वहाँ आज कम से कम २० मिलेंगे। हम शिक्षा प्रणाली को शिक्षा के लिये उपयोग नहीं कर रहे हैं, वरन व्यापार के लिये उपयोग कर रहे हैं।
@ अनुराग जी
एकदम सही बात..मेरी बात के अनछुए तत्वों को सामने लाने के लिये धन्यवाद। उतना ही आभार मेरे सतत उत्साहवर्धन के लिये।
@ धीरू जी
जिस विडंबना का आपने उल्लेख किया, वही तो हमारी शिक्षा प्रणाली को कैंसर की तरह ग्रस्त किये हुए है। लेकिन कुछ ईमानदार प्रयास जारी हैं.. कॉंग्रेस का समर्थक नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि सिब्बल जी पूरी ईमानदारी से समस्या का हल ढूँढने का प्रयत्न कर रहे हैं। किसी नियुक्ति में योग्यता परीक्षा के लिये डिग्री की अनिवार्यता समाप्त करने जैसे कुछ क्रांतिकारी कदमों पर विचार शुभ संकेत लगता है।
@ भारतीय नागरिक जी..
परिवर्तन तो अवश्यभावी है.. आज नहीं तो कल.. काश ये इश्क उमर भर चले! आमीन!
@ अरविन्द जी, वरुण,प्रवीण जी
धन्यवाद
@ सिद्धार्थ जी
आपकी चिंता से मैं भी सहमत हूँ.. मैं भी ऐसे ही मुल्क़ का सपना देखता हूँ, जहाँ एक ड्राइवर के काम को भी उतना ही जरूरी समझा जाय और तवज्जो दी जाय जितना एक फाइटर पायलट के कार्य को.. दोनों का काम एक दूसरे के बगैर नहीं चल सकता। निश्चित रूप से ऐसे तंत्र की अपरिहार्यता आन पड़ी है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रोफेशन का चयन अभिरुचि और योग्यता के अनुसार कर सके, न कि रोजी रोटी के दृष्टिकोण से प्रभावित होकर।
@हमने जो तंत्र बनाया है, उसमें आई.ए.एस होना ही सबसे अहम है..
मैं नहीं मानता कि यह तंत्र की गलती है, सोचकर देखिये.. क्या यह हमारी संकुचित सोच का परिणाम नहीं है? संविधान तो एक कलक्टर को जनता के ही पैसे से उसकी सेवा करने का पवित्र दायित्व सौंपता है, ऐसे में यदि यह "नौकर" "शाह" बनने की हिमाकत कर बैठता है तो इसके पीछे एक आधे-अधूरे लोकतंत्र के हम सामंतवादी प्रवृत्ति से ग्रसित लोगों की ज्यदा जिम्मेदारी बनती है। आपने जिस माई-बाप सरकार की बात की, वो तो आज भी यूपी-बिहार-एमपी जैसे राज्यों में साकार दिखाई देती है, और खासतौर पर इन्हीं राज्यों में, क्योंकि शिक्षा का अप्रसार लोगों को उनके अधिकारों की जानकारी से रोकता है, और भी तमाम जनांकिकीय कारक हैं, जिनकी चर्चा नहीं कर रहा क्योंकि विमर्श अपनी धारा से भटक जायेगा। मैंने अपने लेख में इसी गोबरपट्टी की इसी मानसिकता का विरोध करने की चेष्टा की है.. यही मानसिकता है जो इन दो-चार उत्तरभारतीय राज्यों द्वारा अधिसंख्य अफ्सरशाही पर कब्जा कर लेने का कारण बनती है। दक्षिण में न तो शिक्षा का इतना कम प्रसार है, न ही लोकसेवकों की यह माई-बाप छवि। यही कारण है कि वहाँ की मेधा विज्ञान, अभियांत्रिकी व शोध को ज्यादा तरजीह देती है.. सिविल सेवा उनकी कैरियर प्राथमिकताओं में काफी नीचे है.. वस्तुत: देश का लगभग तीन-चौथाई स्तरीय अनुसंधान कार्य दक्षिण के तीन-चार राज्यों में सिमटा हुआ है। कलाम, सीवी रमन, रमन्ना, माधवन नायर, चिदंबरम जैसे लब्धप्रतिष्ठ वैज्ञानिक वहीं का तो प्रतिनिधित्व करते हैं।
@जब देश की प्रखर मेधा प्रशासन और प्रबंधन में लग जाएगी तो यह सब कौन करेगा?
मुझे नहीं लगता कि देश की सारी प्रखर मेधा यहीं आ रही है.. आपको नहीं लगता, ऐसा कहकर हम उन प्रतिभाओं का अवमूल्यित आकलन कर रहे हैं, जो डीआर्डीओ, इसरो. टीएफआरआई में अपना बेशकीमती योगदान दे रहे हैं। किसी भी कॉलेज में एक बैच के अधिकतम दस-पन्द्र्ह छात्र सिविल सेवा की तरफ़ आकृष्ट होते हैं, और उनका सर्वोत्तम मेधा होना अनिवार्य नहीं, बल्कि कुछ तो औसत छात्र भी होते हैं (नैस्कॉम का सर्वे).. और जैसा पहले भी कहा, दक्षिण में तो उतने भी नहीं आकृष्ट होते।
@मेरा निशाना Top brains of the nation थे जो दुर्भाग्य से कलक्टरी करना सबसे बड़ा काम समझने लगे हैं।
पूर्णतया सहमत। कलक्टरी का अहं घातक है.. व्यक्ति के लिये भी, देश के लिये भी। मैनें पहले भी कहा, देश के समग्र विकास में कलक्टरी को भी उतना ही अंशदायी माना जान चाहिये जितना ड्राइवरी को। लेकिन मुझे नहीं लगता कि शाह फ़ैसल देश के सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर होंगे, या इस देश ने अंकुर गर्ग, प्रकाश राजपुरोहित से बेहतर इंजीनियर नहीं पैदा किये होंगे। इनसे बेहतर सैकड़ों-हजारों होंगे जो संभवत: अपनी सही जगह पर हैं।
मैनें मात्र उन मुद्दों पर चर्चा की है, जिनका प्रवर्तन आपने किया था.. मेरी पुरजोर सहमति- इस फार्स में हम सभी शामिल हैं। जरूरत इस बात की है कि सामंतवाद के सिंड्रोम से पीड़ित गोबरपट्टी की मेंटल कंडीशनिंग के नये सिरे से प्रयास किये जायें, जो ग़लती से नौकर को मालिक मान बैठी है।
आपके पूरे लेख से अक्षरश: सहमत हूँ, लेकिन इस सामजिक संक्रमण का नुकसान कतिपय इंजीनियर-डॉक्टरों को न चुकाना पड़े.. नाकाबिल अफसरशाही को भी इनकी सेवाओं से वंचित न होना पड़े, यह मेरी चिंता का विषय था.. आशा करता हूँ इस चिंता में तो आप भी साझीदार होंगे।
@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी,
अमरेन्द्र भाई, पश्चिम में अठारह साल का लड़्का अपनी पढ़ाई से लेकर गर्लफ्रेंड तक के सारे निर्णय स्वयं पूर्ण दक्षता के साथ ले रहा है.. अगर हमारे यहाँ वह अपनी सोच को रेशनल भी रख पाने में अक्षम है, तो कठघरे में समाज को खड़ा होना चाहिये। उसकी असफलता पर उसका नहीं, सामंतवाद के पुरोधाओं का सर गिलोटीन पर दाँव लगना चाहिये। विषयों के साथ भेदभाव न हो, यह आयोग द्वारा संतुलित ढंग से संभालने का प्रयास किया जा रहा है। विषयधारियों के साथ यह भेदभाव न होने पाये, यह तय करना हमारी-आपकी जिम्मेदारी है। अपने घर से यह प्रयास हम ही क्यों न आरंभ करें..
@अभिषेक भाई
एकदम पते की बात.. पहले ब्रेड-बटर तो मिले, फिर तय करेंगे कि बटर अमूल का हो और ब्रेड भी किसी भारतीय कंपनी का..
@ विवेक रस्तोगी जी
आपने तो दुखती रग पर हाथ रख दिया, और क्या कहा जाय?
@ Swati Tripathi.. Ji
Certainly the CSAT is one of the we-must-take-measures to ensure the impartiality of the recruitment process, at the same time making sure that only people with desirable attitude and professional acumen get the chance, not those who have astounding write-it-as-it-is-in-the-book quality. This may be the only way to certify that our future bureaucrats have perfect balance of wit, will and sensibility.
:-)
अच्छा है।
ये सारे लफ़ड़े तो चलते ही रहते हैं। किसी भी देश में किसी पेशे में लोग देखा-देखी भी जाते हैं। सुरक्षित रहने के लिये। अपने यहां कुछ ज्यादा होता है ऐसा।
यह देखा है मैंने कि अपने यहां चाहे नौकरशाही हो या तकनीक का क्षेत्र , लोग अपनी क्षमताओं का बहुत प्रतिशत उपयोग करते हैं या कर पाते हैं।
तुम्हारे लेख का इंतजार रहता है।
यह देखा है मैंने कि अपने यहां चाहे नौकरशाही हो या तकनीक का क्षेत्र , लोग अपनी क्षमताओं का बहुत प्रतिशत उपयोग करते हैं या कर पाते हैं।
की जगह पढें
यह देखा है मैंने कि अपने यहां चाहे नौकरशाही हो या तकनीक का क्षेत्र , लोग अपनी क्षमताओं का बहुत कम प्रतिशत उपयोग करते हैं या कर पाते हैं।
सभी प्रिय जन,
बहुत अच्छा लिखा है सबने, सबके मन की बात सामने आ रही है और सबसे अच्छा है ये है हर विचार एक नया पहलू सामने ले आ रहा है. रंग दे बसंती (2006) फिल्म में एक डायलाग है "कोई भी देश परफेक्ट नहीं होता, उसे परफेक्ट बनाना पड़ता है." यही डायलाग बाद में एक इंग्लिश मूवी Lions for Lambs (2007) में कॉपी किया गया था. फिल्मी है पर बड़ा दमदार है. सबसे पहले कहूँगा की अकेला चना तो भाड़ नहीं फोड़ता पर चने अब इकठ्ठा होने होने लगे है. आज नहीं कल भाड़ जरूर फूटेगा. हमारे समाज ने IAS को सबसे बड़ा दर्ज़ा दिया है और हर एक युवा इसके लिए एक न एक बार इच्छुक जरूर होता है. सारी चर्चा आपने सबने बहुत सुन्दर ढंग से की है सो दुहराने की आवश्यकता नहीं है. सिद्धार्थ त्रिपाठी जी ने बड़े अच्छे से विज्ञान का प्रयोग समाज कल्याण में प्रस्तुत करने को कहा है. और सत्य ये है की भारत में वैज्ञानिक प्रतिभा विश्व में सबसे अच्छी है और धन की भी कमी नहीं है. Top Brain Drain रोकना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, जो विदेश की ओर लालायित है. आवश्यकता है की दोनों को योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल करने की. बस इसी योजना प्रबंधन में हम पीछे है और संसाधन होते हुए भी हम आज भी विकासशील देश है. इसके लिए क्या कुछ किया जा सकता है, शीघ्र करना होगा. बाकी आप सब बेहतर जानकारी रखते है.
सबके अच्छे भविष्य के कामना में,
सिद्धार्थ मिश्र
BABA, i am not as expert as you either in english or in hindi, so i would prefer HINGLISH here....
gadar ho baba tum, jai ho tumhari....aise hi likhte raho, kuch to "JAN-KALYAN" kar hi jaoge...