9:51 PM
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By कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra)
बहुतों से सुन चुके होंगे, लीजिये हम भी कहे देते हैं......

शुभ दीपावली
असल में कल इस नामुराद कॉलेज की कैद से कुछ दिनों के लिए मुक्ति मिल जायेगी, अतः सम्भावना कम ही है कि कल चलते-चलते कोई पोस्ट कर पाऊँ। और अगर कर भी पाया तो क्या पता कब तक छपे. खैर मेरी तरफ़ से सभी मित्रों, अमित्रों को भी दीपावली की शुभकामनाएं...
अब नवम्बर में ही मुलाकात हो पायेगी...
चलते-चलते चिरागों की बात पर दुष्यंत जी के चंद सफे याद आ गए,आज के हालात पर सटीक बैठतें है... आप भी गौर फरमाइए.........
कहाँ तो तय था चिरागां, हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं, शहर के लिए।
वे मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
चलिए देखते हैं मुल्क का हर घर खुलूस के चिरागों से कबतक रोशन हो पाता है... आप अपना घर रोशन करना न भूलिएगा । शुभ दीपावली।
5:45 PM
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By कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra)
प्रिय मित्रों,
आज अपनी एक ऐसी कृति पोस्ट कर रहा हूँ, जो मेरे दिल के बेहद करीब है। बचपन गाँव में गुजारने के बाद मैं शहर में रहा तो ज़रूर, लेकिन दिल से गाँव की कसक आज भी नहीं छूट पाई है। कभी दुनिया भर के स्वार्थ और दोस्ती के लिबास में छुपी मक्कारी से दिल दुखा, तो टीस के उन्ही पलों में यह कविता कागज़ पर उतर आई.....

शाम के अंधेरे कमरे में याद की किरणें आती हैं,
साथ ये अपने लाखों किस्से कई 'फ़साने लाती हैं.
सारी दुनिया सोई पड़ी थी जब अपने अपने टपरे में
तब गाँव के उस पुश्तैनी घर के कोने वाले कमरे में-
दी मेरे रोने की आवाजें पहली बार सुनाईं थीं,
बूढे घर के कोने कोने में खुशियाँ ही छाईं थीं.
मेरी किलकारी के स्वर उस घर में फ़िर-फ़िर गूंजे थे
और पुरनियों के कंठों से सोहर के स्वर फूटे थे.
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है......
है याद मुझे स्नेहिल माँ की गोदी की वह गरमाई भी,
और पिता के उन्ही प्रतिष्ठित कन्धों की ऊंचाई भी.
भइया ने नापा तो पाया मैं डेढ़ हाथ का बौना था,
और दीदी के लिए मैं आया नया नया खिलौना था.
थाम पिता की उंगलियाँ जब मैंने पहले कदम रखे,
तबसे सारी राह चला हूँ बिना रुके और बिना थके.
है याद मुझे मौलवी साब को चिढा स्कूल से भाग जाना,
नमक जेब में हाथ में डंडा, अमिया तोड़-तोड़ खाना।

सावन के उफने खेतों में मछली पकड़ने का वो कांटा,
और पकड़े जाने पर भईया के हाथों का वह चांटा.
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है,
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है......
यूँ पंख लगाकर गया बचपना केवल यादें छोड़ गया,
छठें साल का पहला दिन ही सारे सपने तोड़ गया.
लाख खुशी होने पर भी कुछ टूट गया सा लगता था,
शहर के शोर-ओ-गुल में गाँव छूट गया सा लगता था.
कूलर की ठंडक में भी अमराई की लू याद आती थी,
और गर्मी की सूनी दुपहरें सदा रुलाकर जातीं थीं.
वे दोस्त नहीं, वे बाग़ नहीं, वह गन्ने की मिठास नहीं,
दो-चार टिकोरे खाने के बाद उठने वाली प्यास नहीं.
सभ्य शहरियों के खेलों में ओल्हा-पाती का अहसास नहीं,
इन सभी बनावटी चेहरों में कहीं छुपा उल्लास नहीं.
मानव-मन की गहराई में मिटटी की बू-बास नहीं,
बागी मन विद्रोह कर उठा शहर की दुनिया रास नहीं.
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है,
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है......
यह जीवन मात्र मधुर स्मृतियों का प्यारा कोलाज कहाँ !
इस क्षणभंगुर जीवन में जो कुछ कल था अब वह आज कहाँ !
हैं शब्द वहीं और अर्थ वहीं, हैं सुर भी वहीं पर साज कहाँ !
हैं अकबर और ज़फर के वंशज पर वह तख्त-ओ-ताज कहाँ !
है वही बचपना दिल में जवाँ लेकिन अब वह अंदाज कहाँ !
कुछ छुपा नहीं परदों में अब वे कल के पोशीदा राज कहाँ !
वादे थे जिनसे वफाओं के वे आज मेरे हमराज कहाँ !
अब शाहिद-सैफ-करीना हैं, संयोगिता-पृथ्वीराज कहाँ !
यह सब केवल स्वप्न था मैंने ये रहस्य पहचाना है,
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है.......
4:12 AM
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By कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra)

सबसे पहले अमृता तुम ....
"
जब तक आंखों में कोई हसीं तसव्वुर कायम रहता है, और उस तसव्वुर की राह में जो कुछ भी ग़लत है उसके लिए रोष कायम रहता है, तब तक इंसान का सोलहवां साल भी कायम रहता है। हसीं तसव्वुर चाहे महबूब के मुंह का हो चाहे धरती के मुंह का, इससे कोई फर्क नही पड़ता। यह मन के तसव्वुर के साथ मन के सोलहवें साल का रिश्ता है........"
'
रसीदी टिकट ' से
आज साइबरस्पेस के मायाजाल में अपने इस निरीह प्रयास को उतारते वक्त कई बातें जहन
में घुमड़ रहीं हैं।
देश की सर्वाधिक
संभावनाशील पीढी के हाथों में किताबों की जगह आईपॉड और लैपटॉप ने ले ली है। ज़मीनी
हकीकत से उनका बिछोह काफी पहले हो चुका है। अस्सी के दशक में घिसे हुए चीनी मिटटी के बर्तनों में गर्म
कॉफी के साथ गांधीवाद से मार्क्सवाद और चे गुएवारा की सर्वहारा क्रांति पर बहस करने वाला क्रांतिकारी युवा आईटी बूम में गायब हो चुका है। उसकी जगह आज जो युवा है वह चेतन भगत के उपन्यासों का पात्र है। वह नोएडा के किसी कॉल सेंटर में बैठा हुआ अपने आईफोन और क्रेडिट कार्ड की बदौलत दुनिया पर राज करने का स्वप्न देखता है। इतना कुछ बदलने के बाद भी कुछ है जो बचा रह गया है। वह है युवा की महत्वाकांक्षा और यौवन का ज्वार. अपनी आइडेंटिटी की तलाश इस युवा को भी बेचैन करती है. दिन भर रिकी मार्टिन की दुनिया में खम होने के बाद रात मे पंडित रविशंकर का रेकॉर्ड सुने बिना नींद नही आती. शरद पूर्णिमा की रात माँ के हाथों की बनी खीर और उसमें चाँदनी का अदृश्य अमृत किसी भी मॅकडॉनल्ड या केएफसी की रेसिपी से ज़्यादा स्वादिष्ट और दैवीय होता है। इसी परिवर्तित-परिवर्धित युवा को सही ढंग से प्रस्तुत करने की आकांक्षा है। खून हमारा भी खौलता है जब मज़हब के नाम पर बेगुनाहों का क़त्ल-ऐ-आम होता है, जब जाति के नाम पर समाज को दीवारों में बाँटने की नामुराद कोशिशें होती हैं। दिल में हूक हमारे भी उठती है जब सालों का संजोया किसी का सर्वस्व कोसी मैया सहेज लें जाती हैं। आँखें हमारी भी रोती हैं जब महीनों के संत्रास से तंग आकर महाराष्ट्र का कोई किसान साल-दो साल के बच्चों को सल्फास खिलाकर जीवन-यातना से मुक्ति दिला देता है।और वहीं जब डूबता हुआ सूरज किसी झील को सुर्ख रोगन से रंग देता है और दूर उफक पर सोने की चादर बिछ जाती है तो कायनात के इन्हीं रंगों से हमारे दयार-ऐ-दिल भी रोशन होते हैं। अक्टूबर की शामों में जब अलावों से उठता धुआं ओस से भारी होकर गाँव को चारों ओर से घेर लेता है और हल्की सी ठंडी हवा पास से सहलाते हुए गुजर जाती है तो गहराते हुए अंधेरे के साथ अपने अस्तित्व की अपूर्णता का बोध हमें भी सालता है। इसी रोष को, इसी हूक को, इसी संत्रास को, सी सौन्दर्यबोध को और अस्तित्व की इसी अपूर्णता को शब्द-रूप देने का प्रयास है.............पुनर्नवा और अमृता तुम...ज़िन्दगी के आखिरी लम्हे में भी सोलह साल की युवती ! जिस हसीं तसव्वुर को तुमने रोज-ऐ-अलविदा तक अपनी आंखों में कायम रखा, उसी तसव्वुर को आज मैं अपनी आंखों में सहेज कर रखने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा हूँ.... यह प्रयास चिरयौवन के नाम.......अमृता प्रीतम के नाम।