प्रिय मित्रों,
आज अपनी एक ऐसी कृति पोस्ट कर रहा हूँ, जो मेरे दिल के बेहद करीब है। बचपन गाँव में गुजारने के बाद मैं शहर में रहा तो ज़रूर, लेकिन दिल से गाँव की कसक आज भी नहीं छूट पाई है। कभी दुनिया भर के स्वार्थ और दोस्ती के लिबास में छुपी मक्कारी से दिल दुखा, तो टीस के उन्ही पलों में यह कविता कागज़ पर उतर आई.....
शाम के अंधेरे कमरे में याद की किरणें आती हैं,
साथ ये अपने लाखों किस्से कई 'फ़साने लाती हैं.
सारी दुनिया सोई पड़ी थी जब अपने अपने टपरे में
तब गाँव के उस पुश्तैनी घर के कोने वाले कमरे में-
दी मेरे रोने की आवाजें पहली बार सुनाईं थीं,
बूढे घर के कोने कोने में खुशियाँ ही छाईं थीं.
मेरी किलकारी के स्वर उस घर में फ़िर-फ़िर गूंजे थे
और पुरनियों के कंठों से सोहर के स्वर फूटे थे.
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है......
यूँ पंख लगाकर गया बचपना केवल यादें छोड़ गया,
छठें साल का पहला दिन ही सारे सपने तोड़ गया.
लाख खुशी होने पर भी कुछ टूट गया सा लगता था,
शहर के शोर-ओ-गुल में गाँव छूट गया सा लगता था.
कूलर की ठंडक में भी अमराई की लू याद आती थी,
और गर्मी की सूनी दुपहरें सदा रुलाकर जातीं थीं.
वे दोस्त नहीं, वे बाग़ नहीं, वह गन्ने की मिठास नहीं,
दो-चार टिकोरे खाने के बाद उठने वाली प्यास नहीं.
सभ्य शहरियों के खेलों में ओल्हा-पाती का अहसास नहीं,
इन सभी बनावटी चेहरों में कहीं छुपा उल्लास नहीं.
मानव-मन की गहराई में मिटटी की बू-बास नहीं,
बागी मन विद्रोह कर उठा शहर की दुनिया रास नहीं.
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है,
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है......
यह जीवन मात्र मधुर स्मृतियों का प्यारा कोलाज कहाँ !
इस क्षणभंगुर जीवन में जो कुछ कल था अब वह आज कहाँ !
हैं शब्द वहीं और अर्थ वहीं, हैं सुर भी वहीं पर साज कहाँ !
हैं अकबर और ज़फर के वंशज पर वह तख्त-ओ-ताज कहाँ !
है वही बचपना दिल में जवाँ लेकिन अब वह अंदाज कहाँ !
कुछ छुपा नहीं परदों में अब वे कल के पोशीदा राज कहाँ !
वादे थे जिनसे वफाओं के वे आज मेरे हमराज कहाँ !
अब शाहिद-सैफ-करीना हैं, संयोगिता-पृथ्वीराज कहाँ !
यह सब केवल स्वप्न था मैंने ये रहस्य पहचाना है,
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है.......
आज अपनी एक ऐसी कृति पोस्ट कर रहा हूँ, जो मेरे दिल के बेहद करीब है। बचपन गाँव में गुजारने के बाद मैं शहर में रहा तो ज़रूर, लेकिन दिल से गाँव की कसक आज भी नहीं छूट पाई है। कभी दुनिया भर के स्वार्थ और दोस्ती के लिबास में छुपी मक्कारी से दिल दुखा, तो टीस के उन्ही पलों में यह कविता कागज़ पर उतर आई.....
शाम के अंधेरे कमरे में याद की किरणें आती हैं,
साथ ये अपने लाखों किस्से कई 'फ़साने लाती हैं.
सारी दुनिया सोई पड़ी थी जब अपने अपने टपरे में
तब गाँव के उस पुश्तैनी घर के कोने वाले कमरे में-
दी मेरे रोने की आवाजें पहली बार सुनाईं थीं,
बूढे घर के कोने कोने में खुशियाँ ही छाईं थीं.
मेरी किलकारी के स्वर उस घर में फ़िर-फ़िर गूंजे थे
और पुरनियों के कंठों से सोहर के स्वर फूटे थे.
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है......
है याद मुझे स्नेहिल माँ की गोदी की वह गरमाई भी,
और पिता के उन्ही प्रतिष्ठित कन्धों की ऊंचाई भी.
भइया ने नापा तो पाया मैं डेढ़ हाथ का बौना था,
और दीदी के लिए मैं आया नया नया खिलौना था.
थाम पिता की उंगलियाँ जब मैंने पहले कदम रखे,
तबसे सारी राह चला हूँ बिना रुके और बिना थके.
थाम पिता की उंगलियाँ जब मैंने पहले कदम रखे,
तबसे सारी राह चला हूँ बिना रुके और बिना थके.
है याद मुझे मौलवी साब को चिढा स्कूल से भाग जाना,
नमक जेब में हाथ में डंडा, अमिया तोड़-तोड़ खाना।
नमक जेब में हाथ में डंडा, अमिया तोड़-तोड़ खाना।
और पकड़े जाने पर भईया के हाथों का वह चांटा.
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है,
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है,
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है......
यूँ पंख लगाकर गया बचपना केवल यादें छोड़ गया,
छठें साल का पहला दिन ही सारे सपने तोड़ गया.
लाख खुशी होने पर भी कुछ टूट गया सा लगता था,
शहर के शोर-ओ-गुल में गाँव छूट गया सा लगता था.
कूलर की ठंडक में भी अमराई की लू याद आती थी,
और गर्मी की सूनी दुपहरें सदा रुलाकर जातीं थीं.
वे दोस्त नहीं, वे बाग़ नहीं, वह गन्ने की मिठास नहीं,
दो-चार टिकोरे खाने के बाद उठने वाली प्यास नहीं.
सभ्य शहरियों के खेलों में ओल्हा-पाती का अहसास नहीं,
इन सभी बनावटी चेहरों में कहीं छुपा उल्लास नहीं.
मानव-मन की गहराई में मिटटी की बू-बास नहीं,
बागी मन विद्रोह कर उठा शहर की दुनिया रास नहीं.
यह सब केवल स्वप्न था मैनें यह रहस्य पहचाना है,
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है......
यह जीवन मात्र मधुर स्मृतियों का प्यारा कोलाज कहाँ !
इस क्षणभंगुर जीवन में जो कुछ कल था अब वह आज कहाँ !
हैं शब्द वहीं और अर्थ वहीं, हैं सुर भी वहीं पर साज कहाँ !
हैं अकबर और ज़फर के वंशज पर वह तख्त-ओ-ताज कहाँ !
है वही बचपना दिल में जवाँ लेकिन अब वह अंदाज कहाँ !
कुछ छुपा नहीं परदों में अब वे कल के पोशीदा राज कहाँ !
वादे थे जिनसे वफाओं के वे आज मेरे हमराज कहाँ !
अब शाहिद-सैफ-करीना हैं, संयोगिता-पृथ्वीराज कहाँ !
यह सब केवल स्वप्न था मैंने ये रहस्य पहचाना है,
जीवन खुशियों का ताना तो संघर्षों का बाना है.......
बहुत अच्छा लिखा मित्र. आगे और सुंदर कृतियों की अपेक्षा रहेगी...
सप्रेम....
सुन्दर! पीछे न आये होते ये न देख पाते।