तीन प्रकरण ध्यान में आ रहे हैं-
पहला प्रकरण हालिया चर्चित भट्टाचार्य दंपत्ति के पुत्र-पुत्री का नॉर्वेजियन चाइल्ड प्रोटेक्शन सर्विस "बार्नएवरनेट" द्वारा जबरिया अधिग्रहण है। एक ऐसी एजेंसी जो बाल-अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर फोस्टर पैरेंटशिप का धंधा चला रही है, और एक सांसद द्वारा अपने उच्चायुक्त से विरोध जताने पर पूरी बेशर्मी के साथ टेलीनॉर को हुए घाटे का मुद्दा निगोशिएट करने की कोशिश कर रही है, वह हमारे हाईजीन के मानकों और बच्चों के पालन पोषण के तौर तरीकों पर सवालिया निशान खड़ा करने की हिम्मत कर जाती है।
दूसरा प्रकरण इतालियन टैंकर ‘एनरिका लेक्सी’ द्वारा दो भारतीय मछुआरों की हत्या और उसके बाद घरेलू मीडिया में भारत को कोसे जाने से जुड़ा है। उनके एक समाचार पत्र में इस संदर्भ में छपी खबरों पर एक दर्शक ने टिप्पणी की-"Phew.. Indians..!" वहीं दूसरे की टिप्पणी थी- "Now our marines will be tried in a black court of a third world country..What the... !"
उपरोक्त दोनों मसलों पर व्यापक बहस हो चुकी है, और इन देशों को नस्लीय श्रेष्ठता का मदांध घोषित किया जा चुका है। ऐसा कहा जा रहा है कि प्राचीनतम संस्कृति के ध्वजवाहकों को पवित्र गायों के पवित्र गोबर से पटा सपेरों का देश मानकर आनंदित भूतपूर्व महाशक्तियाँ दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने में नाकाम साबित हो रही हैं। वह इबारत जो अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर भारत के आगमन की घोषणा कर रही है।
लेकिन क्या यह पूरी तरह सही है? क्या हम पूरी तरह निश्छल, निर्दोष हैं और फ्रस्टॆटेड देशों द्वारा की जा रही अनर्गल आलोचना के शिकार हैं? क्या यह धुँआ बिना आग के उठ रहा है? मैं एक प्रकरण और उल्लिखित करना चाहूँगा..
यह तीसरा प्रकरण डेढ़ साल पुराने कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़ा है। खेल गाँव को आयोजन समिति को हैंडओवर करने की डॆडलाइन कई बार पीछे छूट चुकी थी और खेलों के शुरु होने में लगभग 20-22 दिन बाकी थे। अंतत: खेलगाँव को जिस दिन मीडिया के लिये खोला गया, उसी दिन पूरे विश्व में हमारी भद पिट गई। नये-नये बने टॉयलेट में पान की पीकें, फ्लश के दाग और न जाने क्या क्या.. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में आलोचना के जवाब में एक उच्च अधिकारी का कथन था- सफाई को लेकर भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मानक अलग-अलग हैं।
निश्चित तौर पर हम लोगों में ही ऐसे कई लोग हैं जो कमियों, असफलता और बदनामी को बहादुरी से स्वीकार करने की बजाय फाउल खेलने का रोना रोने में यकीन करते हैं। ये खुदपर अंगुली उठने पर ईमानदारी से अंतर्निरीक्षण करने की बजाय अंगुली के गंदे नाखूनों की तरफ इशारा करते हैं। खेल, अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से लगायत हर चीज में हमें साजिश नजर आती है। सच है कि एक उभरता देश किसी पुराने खिलाड़ी को अच्छा नहीं लगता। लेकिन एनडीएम सुपरबग को विदेशी दवा कंपनियों की साजिश बताकर माहौल को ठंडा कर देने से पहले हमें दिल्ली के पेयजल की गुणवत्ता पर भी एक सरसरी निगाह डाल लेनी चाहिये थी।
मुझे लगता है कि हम अब एक थर्ड वर्ल्ड कंट्री भले ही न हों, लेकिन अब कांस्पिरेसी थियरिस्ट्स की एक जमात जरूर बनते जा रहे हैं..
पहला प्रकरण हालिया चर्चित भट्टाचार्य दंपत्ति के पुत्र-पुत्री का नॉर्वेजियन चाइल्ड प्रोटेक्शन सर्विस "बार्नएवरनेट" द्वारा जबरिया अधिग्रहण है। एक ऐसी एजेंसी जो बाल-अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर फोस्टर पैरेंटशिप का धंधा चला रही है, और एक सांसद द्वारा अपने उच्चायुक्त से विरोध जताने पर पूरी बेशर्मी के साथ टेलीनॉर को हुए घाटे का मुद्दा निगोशिएट करने की कोशिश कर रही है, वह हमारे हाईजीन के मानकों और बच्चों के पालन पोषण के तौर तरीकों पर सवालिया निशान खड़ा करने की हिम्मत कर जाती है।
दूसरा प्रकरण इतालियन टैंकर ‘एनरिका लेक्सी’ द्वारा दो भारतीय मछुआरों की हत्या और उसके बाद घरेलू मीडिया में भारत को कोसे जाने से जुड़ा है। उनके एक समाचार पत्र में इस संदर्भ में छपी खबरों पर एक दर्शक ने टिप्पणी की-"Phew.. Indians..!" वहीं दूसरे की टिप्पणी थी- "Now our marines will be tried in a black court of a third world country..What the... !"
उपरोक्त दोनों मसलों पर व्यापक बहस हो चुकी है, और इन देशों को नस्लीय श्रेष्ठता का मदांध घोषित किया जा चुका है। ऐसा कहा जा रहा है कि प्राचीनतम संस्कृति के ध्वजवाहकों को पवित्र गायों के पवित्र गोबर से पटा सपेरों का देश मानकर आनंदित भूतपूर्व महाशक्तियाँ दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ने में नाकाम साबित हो रही हैं। वह इबारत जो अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर भारत के आगमन की घोषणा कर रही है।
लेकिन क्या यह पूरी तरह सही है? क्या हम पूरी तरह निश्छल, निर्दोष हैं और फ्रस्टॆटेड देशों द्वारा की जा रही अनर्गल आलोचना के शिकार हैं? क्या यह धुँआ बिना आग के उठ रहा है? मैं एक प्रकरण और उल्लिखित करना चाहूँगा..
यह तीसरा प्रकरण डेढ़ साल पुराने कॉमनवेल्थ खेलों से जुड़ा है। खेल गाँव को आयोजन समिति को हैंडओवर करने की डॆडलाइन कई बार पीछे छूट चुकी थी और खेलों के शुरु होने में लगभग 20-22 दिन बाकी थे। अंतत: खेलगाँव को जिस दिन मीडिया के लिये खोला गया, उसी दिन पूरे विश्व में हमारी भद पिट गई। नये-नये बने टॉयलेट में पान की पीकें, फ्लश के दाग और न जाने क्या क्या.. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में आलोचना के जवाब में एक उच्च अधिकारी का कथन था- सफाई को लेकर भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय मानक अलग-अलग हैं।
निश्चित तौर पर हम लोगों में ही ऐसे कई लोग हैं जो कमियों, असफलता और बदनामी को बहादुरी से स्वीकार करने की बजाय फाउल खेलने का रोना रोने में यकीन करते हैं। ये खुदपर अंगुली उठने पर ईमानदारी से अंतर्निरीक्षण करने की बजाय अंगुली के गंदे नाखूनों की तरफ इशारा करते हैं। खेल, अर्थव्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों से लगायत हर चीज में हमें साजिश नजर आती है। सच है कि एक उभरता देश किसी पुराने खिलाड़ी को अच्छा नहीं लगता। लेकिन एनडीएम सुपरबग को विदेशी दवा कंपनियों की साजिश बताकर माहौल को ठंडा कर देने से पहले हमें दिल्ली के पेयजल की गुणवत्ता पर भी एक सरसरी निगाह डाल लेनी चाहिये थी।
मुझे लगता है कि हम अब एक थर्ड वर्ल्ड कंट्री भले ही न हों, लेकिन अब कांस्पिरेसी थियरिस्ट्स की एक जमात जरूर बनते जा रहे हैं..