12:53 AM
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By कार्तिकेय मिश्र (Kartikeya Mishra)
राहुल
द्वारा अर्नब को दिये गये इंटरव्यू के लतीफे बन रहे हैं| लेकिन इस
इंटरव्यू से कुछ बातें खुलकर सामने आई, जो सबको समझ लेनी चाहिये- कांग्रेस
के समर्थकों को भी, बीजेपी के भी..
1. राहुल की परवरिश बेहद
ट्रॉमेटिक माहौल में हुई है.. वे भावनात्मक रूप से वंचित रहे हैं| वैवाहिक
या गंभीर रोमांटिक सम्बन्ध इस कमी को पूरा कर सकते थे, जो नहीं हो पाया है|
2. उनका आईक्यू ख़राब से औसत के बीच में है.. समाज और देश के बारे में उनकी समझ एक औसत बीससाला ग्रेजुएट के बराबर है..
3. वे बहुत ज्यादा अंतर्मुखी, भयभीत, असुरक्षा के शिकार हैं| आवाज को ऊँचा
करना, तैश दिखाना, पलट कर सवाल पूछना, बढ़ी हुई दाढ़ी, त्यौरियां उनका Ego
Defense Mechanism है| उनका भय और असुरक्षा उनकी बॉडी लैंग्वेज से स्पष्ट
है|
4. राहुल एनजीओ वालों के साथ बहुत ज्यादा समय बिता रहे हैं और
देश के विकास की रणनीति के बारे में उन्हें लोक प्रशासन के किसी पहुंचे
हुए प्रोफेसर ने चार बातें बता दी हैं| वे घुमा-फिरा कर वही
सिस्टम-प्रोसेस-स्ट्रक्चर का पहाड़ा रट रहे हैं|
5. राहुल बेईमान
नहीं हैं| वे खुद को बदलने और सीखने के लिए बेचैन हैं, लेकिन उनकी अपनी
बौद्धिक सीमायें है| वे कुछ करने के लिये व्यग्र हैं, लेकिन समझ नहीं रहे
हैं कि पिछले चार सालों में उनकी पार्टी की सरकार ने इतनी ज्यादा गंद मचा
दी है, कि अब उनके द्वारा डिफेंस के लिये कुछ बचा नहीं है| इसी व्यग्रता
में वे समकालीन विमर्श की दिशा बदलने का असफल, होपलेस प्रयत्न कर रहे हैं|
6. वे मोदी से फेस-टू-फेस लड़ना चाहते हैं, लेकिन घाघ राजनीतिज्ञ माँ ऐसा
नहीं होने देना चाहती, क्योंकि हार की सूरत में फिर प्रियंका को लाने की
आवाज उठेगी| सोनिया चाह रही हैं कि राहुल या तो बैकडोर से पीएम बन जाएँ या
बीजेपी सुसाइड बटन दबा ले ताकि राहुल का मार्ग प्रशस्त हो|
7. राहुल राजनीति बिलकुल नहीं जानते हैं| उनके जैसे साधारण IQ वाले
अतिभावुक व्यक्ति से राजनीति का मंझा खिलाड़ी होने की उम्मीद नहीं की जा
सकती| लेकिन कोई अंतिम निर्णय देने से पहले यह याद रखना होगा, कि मोरारजी
जैसे घाघ लोगों ने भी इंदिरा को शुरू में गूंगी गुड़िया समझने की गलती की
थी|
मैं राहुल से सहानुभूति रखता हूँ| इस इंटरव्यू के बाद एक
व्यक्ति के नाते राहुल के लिए मेरे मन में स्नेह और बढ़ गया है| बचपन के न
भरे हुए जख्मों से जेहन पर पड़े अनगिनत घाव के साथ राहुल प्रेम और
स्वीकार्यता के भूखे प्रतीत होते हैं| सोनिया की एक माँ के तौर पर यह
असफलता है कि वे अपने पुत्र को ऐसी पीड़ा से गुजरने दे रही हैं|
लेकिन राहुल राजनीति में रहकर गलती कर रहे हैं| उनके टेम्परामेंट के हिसाब
से राजनीति उनके लिये सही जगह नहीं.. अपनी इस कमी को उन्हें ईमानदार तरीके
से स्वीकार करना चाहिये कि जिन हाई-फाई विचारों को वे आगे बढ़ा रहे हैं,
अपने अल्पज्ञान के कारण ऐसा करते हुए वे बेहद हास्यास्पद लग रहे हैं| ऐसा
ही, जैसा पांचवी का छात्र पोस्ट-ग्रेजुएशन का प्रश्नपत्र हल कर रहा हो|
उन्हें प्रेम करना चाहिये, एक समर्पित स्त्री से विवाह करना चाहिये
खासतौर पर यह देखते हुए कि उनके खानदान के ज्यादातर वैवाहिक सम्बन्धी
समर्पित कम, सत्ता के आतुर ज्यादा रहे हैं|
मैं उम्मीद करता हूँ
कि नरेन्द्र मोदी भी अपनी मैस्कुलिन छवि और अहम् को दरकिनार करते हुए, अपने
व्यक्तित्व की तमाम कमजोरियाँ उद्घाटित करने का रिस्क लेते हुए मुख्यधारा
के किसी निष्पक्ष पत्रकार(?) को कोई ऐसा ही इंटरव्यू देंगे| हालांकि राहुल
के पास मुख्यधारा की सेक्युलर मीडिया का कुशन है, और दस साल बाद मुंह खोलने
की लक्ज़री.. मोदी दोनों ही चीज़ें अफ्फोर्ड नहीं कर सकते|
(या तो ऊपर लिखी सारी बातें सत्य हैं, या फिर जापानी पीआर एजेंसी का दाँव काम कर गया..)
कम से कम चार विषय तो ऐसे हैे जिनके प्रति जुड़ाव गहरा है।
देखा जाये तो उस परिवार में जन्म लेने से उनके हिस्से में sufferings ज्यादा आई हैं। राजनीति से दूर रहना भी इस परिवार के सदस्यों के लिये असंभव सा है। राहुल शातिर नहीं लगते, सरल ही लगते हैं। सरलता निस्संदेह एक व्यक्तिगत गुण है लेकिन इतने विशाल राष्ट्र और इतने घाघ राजनीतिज्ञों(विरोधी और पार्टी के भीतर भी) से पार पाने में यही सरलता जब अक्षमता साबित होगी तो होने वाली क्षति व्यक्तिगत क्षति नहीं होगी, राहुल से सहानुभूति होने के बावजूद ये ध्यान रखना होगा।
इतना स्पष्ट है कि वो और राजनीति एक दूसरे के लिये नहीं है लेकिन करनी पड़ रही है। एक कहावत याद आती है कि आप जबरन घोड़े को पानी तक ले जा सकते हैं लेकिन जबरन पानी नहीं पिला सकते।
करना चाहने से प्रेम हो जाता है तो हम भी ट्राई मारे :)
@“हालांकि राहुल के पास मुख्यधारा की सेक्युलर मीडिया का कुशन है, और दस साल बाद मुंह खोलने की लक्ज़री.. मोदी दोनों ही चीज़ें अफ्फोर्ड नहीं कर सकते|”
सेक्युलर मीडिया मतलब अल्पसंख्यकवादी मीडिया, भाजपा विरोधी मीडिया- मोदी को अब इसका डर नहीं रहा बल्कि इस गिरोह ने मोदी का काम आसान बना दिया है। दस साल बाद मुंह खोलना कोई लग्जरी नहीं, बल्कि देर से आयी लुंजपुंज हिम्मत है जो आयी भी तो उस डर को सही सबित करते हुए जो दस साल तक भीतर बैठा था। मोदी अर्नब गोस्वामी को साक्षात्कार जरूर दें, ऐसी मेरी भी सलाह है। सबसे बड़ा कवरेज और सबसे व्यापक चर्चा मिलेगी। देश को सच्चाई जानने का हक है।
@संजय जी...
राहुल की व्यक्तिगत क्षति के लिए सहानुभूति मुझे भी है.. अब क्या किया जा सकता है जब देश ही दोराहे पर खड़ा हो|
रही बात करना चाहने से होने की, तो भारत रतन बाबा रामदेव कहते हैं ना.. "करने से ही होता है.." ;)
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@सिद्धार्थ जी..
आपकी बात मोदी के सन्दर्भ में सोलहों आने सच है, लेकिन पता नहीं मन का एक कोना उनकी "I don't give a rat's ass" वाली बेफिक्री से इत्तेफाक नहीं रखता| वैसे बात मैनें भी अफ्फोर्दाब्लिटी की ही की थी| मोदी की हर बात की चीरफाड़ की जायेगी, और राहुल के बचकाने उत्तर के पीछे भी कोई लॉजिक ढूंढने का प्रयास करने में तो हमारा मीडिया उस्ताद है ही... :)
हो सकता है इसबात में सच्चाई है कि औसत बुद्धि का होने के कारण वे राजनीतिक दांव-पेंच नहीं समझ पाते हों लेकिन उनकी यह औसत बुद्धि उनकी पार्टी/ उनके परिवार द्वारा किये गए भ्रष्टाचार के बीच आई होगी ऐसा सोचने का कोई कारण दिखाई नहीं देता। बुद्धि चाहे औसत रहे या औसत से कम लेकिन उस बुद्धि वाले राहुल ने पिछले पांच वर्षों के दौरान भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, मंहगाई या जनता को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर कभी मुंह नहीं खोला। ऐसे में इतना तो मानना ही पड़ेगा कि उनकी औसत बुद्धि को इतनी राजनीतिक समझ तो पक्के तौर पर है कि सार्वजनिक तौर पर किन मुद्दों पर बोलना है और किन मुद्दों पर नहीं। ऐसे में क्या यह माना जा सकता है कि जिस पार्टी के नेता राहुल जी या उनके परिवार के आगे सिर उठाकर बात तक नहीं कर पाते उन्होंने भ्रष्टाचार का मकड़जाल अपने बलबूते पर फैलाया होगा? पिछले दस वर्षों में जो कुछ हुआ उसकी जानकारी राहुल या उनकी माँ को नहीं होगी? वे जब बड़ी बेशर्मी के साथ देश की जनता को बेवकूफ समझते हुए गलत और झूठे दावे करते हैं तब उनकी औसत से कम बुद्धि क्या आड़े आती है? विकास को लेकर जो चार शब्द वे बोलते हैं उन्हें बोलने के लिए रट्टा मारने से ज्यादा बेशर्मी की जरूरत पड़ती है.
यह उनके पी आर एजेंसी का मास्टर-स्ट्रोक है या नहीं, यह तो समय बतायेगा।
जहाँ तक नरेंद्र मोदी द्वारा इंटरव्यू की बात है तो फिर प्रश्न यह भी उठेगा कि लगातार दस-ग्यारह वर्षों तक मोदी के पीछे पड़े रहने वाले पत्रकारों के पास आज की तारीख में वह नैतिक शक्ति है कि वे मोदी से इंटरव्यू के लिए कहें? बीच-बीच में पत्रकारों ने मोदी का इंटरव्यू लिया भी है. लेकिन मोदी का इंटरव्यू लेने वाले/उनसे मिलने वाले पत्रकारों के साथ क्या होने का खतरा रहता है इसका अंदाज़ा शाहिद सिद्दीकी की हुई दुर्गति से लगाया जा सकता है. हमारे ज्यादातर पत्रकारों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि जिस झूठी-सच्ची कहानियों को उन्होंने दस वर्षों तक चलाया अब वे कहानियाँ उनके कंट्रोल से बाहर जाकर उन पत्रकारों को नचा रही हैं. यही कारण है कि ये पत्रकार मोदी पर आये अदालती फैसलों को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं. उनकी मुश्किल यह है कि वे अपने द्वारा बनाये गए माहौल से पीछे कैसे हटें?
मोदी का इंटरव्यू लगभग हर पत्रकार ने लिया है. राहुल कँवल, सरदेसाई, अरनब गोस्वामी। इसके अलावा वे सार्वजनिक मंचों पर न केवल बोलते रहे हैं बल्कि सवालों के जवाब भी देते रहे हैं. इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में, एच टी समिट में. अब इन सबके बावजूद अगर यह प्रोजेक्ट किया जाय कि राहुल ने तो इंटरव्यू दिया लेकिन मोदी तो वह भी नहीं देते, तो फिर इस बात का जवाब क्या हो सकता है?
और एकबात कार्तिकेय। जैसे आज लोग राहुल जी को सरल समझते हैं वैसे ही उनके पिताजी को भी सरल कहते थे. कहते थे कि कैसे वे सरल और ईमानदार हैं इसलिए इस देश की राजनीति लायक नहीं है. लेकिन उनके पिताजी कितने सरल थे इसका अंदाज़ा इंदिरा जी की हत्या के दिन होनेवाली घटनाएं (जिनकी चर्चा अभी हाल ही में शुरू हुई है) से लगाया जा सकता है. ऐसे में यह घोषित कर देना कि अरे वे तो बहुत सरल हैं और राजनीति लायक नहीं हैं, कितना सही है, यह समय बतायेगा।
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