साढ़े तीन साल होने को आये मुझे बरेली में। एक ऐतिहासिक महत्व का शहर और कमिश्नरी होने के बावजूद इस शहर में एक बहुत बड़ी कमी है- सिनेमाहालों की। कुल जमा आठ-दस में से आधा दर्जन हॉल में या तो ‘जीने नहीं दूँगा’ और ‘चांडाल’ टाइप फिल्में लगी रहती हैं, या तो ‘सुनसान हवेली वीरान दरवाजा’टाइप.. आप समझ गये होंगे मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।
पूर्वजन्म के पुण्यों के फलोदयस्वरूप यहाँ आने के चार-छ: महीने पहले एक सिनेमंदिर का जीर्णोद्धार हुआ, तो दूसरे का आने के साल भर भीतर। सच्ची बता रहे हैं, इन्हीं कुल जमा दो हॉलों के सहारे इतना लम्बा वक़्त इस खबीस कॉलेज में बिताया है।
सरस्वती शिशु मन्दिर से लगायत जीआईसी के दिनों तक XX क्रोमोसोम के सान्निध्य से कोसों दूर रहने के बाद जब लखनऊ जैसे शहर में ट्राईवैग और रूबिक्स के चार-चार सौ आईआईटियार्थियों के झुण्ड में पचास-साठ देवियों के दर्शन हुए तो चकित च विस्मित च किलकित च सस्मित (इन शॉर्ट भकुआये हुए) गच्च मन ने स्वयं से कहा- "ग़र फ़िरदौस बर रूये जमींअस्त, हमींअस्तो हमींअस्तो हमींअस्त "
लेकिन थोड़ा स्वाभिमान था, थोड़ी ग़ैरत, थोड़ा माँ-बाप के सपने पूरा करने का जोश, थोड़ा बड़े भाई का डर, थोड़ा छोटे शहर से कमाई हुई जीवन भर की परम चिरकुटई की पूँजी, और सबसे बढ़कर अलीगंज वाले बड़े हनुमान जी का शाप... साल बीत गया, लेकिन हमें किसी ने न तो घास डाली, न भूसा; और रिजल्ट आने के बाद जो जुताई हुई सो अलग।
बरेली में आने के बाद रही-सही ग़ैरत को तिलांजलि और बचे-खुचे स्वाभिमान को सुपुर्दे-खाक़ करने के बाद ऑपरेशन ‘एक से भले दो’ पर ध्यान केन्द्रित किया गया। रैगिंग के दरमियान समस्त चिरकुटाई झाड़कर फेंक दी(लगभग ही सही)। थोड़ा सीनियर्स के सिखाये गुर याद किये, थोड़ा लखनऊ में रात 11 बजे रेडियो सिटी पर आने वाले ‘लव गुरु’ के टिप्स रिवाइज किये और रैगिंग के दो महीने बाद छिली हुई कलमें वापस आते ही, और चेहरे की अनन्त गहराइयों तक खुरचकर साफ की गई दाढ़ी-मूँछ के पहले रेशों के नमूदार होते ही मैदान-ए-जंग में कूद पड़े..!
लगभग चार महीनों की अथक-अकथ मेहनत के बाल एक कन्या ने पहली बार हमारे सतत विविध भारती प्रसारण को अपना रेडियो ट्यून कर कृतार्थ किया। ये वही कन्या थी जो रैगिंग के दरम्यान सीनियर्स के अनुरोध(हुकुम) पर हमारे कंठ-ए-बेसुर द्वारा रेड़मारीकृत ‘तुम इतना जो मुस्करा रहे हो’ को सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गई थी.. और हमारी दीवानगी का आलम ये था कि उबासी लेने के बहाने भी अगर उसके दाँत दिख जायें तो पच्चीस-तीस ग़ज़लें लिख मारता था..!
उसकी दो चोटियों में बँधे लाल औ हरे रंग के रिबन्स में मुझे एक सुनहरे हिन्दुस्तान की तस्वीर दिखाई देती..(देशभक्ति का इतना ज्वार दुबारा नहीं चढ़ा कभी)। उसकी झुकी-झुकी सी नजर में मुझे अपने लिये शर्मो-हया नजर आती(ससुरी सब ग़लतफ़हमी थी)। कॉलेज के सालाना जलसे में जीटीआर(सेन्सर्ड) करने वाले सीनियर्स को पकड़-पकड़ कर खुद तो बाकायदे काटा ही, उसे भी अगणित चाट-पकौड़ी-मंचूरियन तुड़वाये।
बात शास्त्रसम्मत ढंग से आगे बढ़ रही थी। अगले कदम के रूप में सह-चलचित्रदर्शन का कार्यक्रम बना.. एकाध महीने तक इंतज़ार किया पूर्णतया शुद्ध-सुसंस्कृत-निरामिष फिल्म का। इंतजार ख़त्म हुआ.. फिल्म थी- विवाह (अपनी अंतरात्मा का कोल्ड-हॉर्टेड मर्डर करने के बाद कोई राजश्री ब्रदर्स की फिल्म देखने पहुँचा था.. आज तक रातों को चौंक कर उठ जाया करता हूँ- राधेकृष्ण की ज्योति अलौकिक).. रास्ते भर मारे खुशी से फूलते-पिचकते रहे। मार्ग में एक जगह ‘उसने’ इशारा करके खिड़की से बाहर देखने को कहा। जी धक से हो गया। अपशगुन के रूप में बाहर मुस्कुराती बजरंगबली की 100 फुटी प्रतिमा जैसे मुँह चिढ़ा रही थी। हे पवनसुत! यहाँ भी चैन नहीं लेने देंगे आप..। हृषीकेश पंचांग में बुरे सपने का फल नष्ट करने वाले सूत्र वाक्य-"लंकाया: दक्षिणे कोणे चूड़ाकर्णो नाम ब्राह्मण:, तस्य स्मरण मात्रेण दु:स्वप्नो सुस्वप्नो भवेत " को दोहराकर मन:शान्ति प्राप्त की..।
लेकिन बात निकली है तो फिर दूर तलक जायेगी। थियेटर था ‘प्रसाद’। बरेली वासी जिन वीरों को इस हॉल में पिक्चर देखने का ‘सौभाग्य’ प्राप्त हुआ है.. जैसे धीरू जी, या बर्ग-वार्ता वाले अनुराग शर्मा जी.., उनसे तस्दीक करा लीजियेगा.. किसी लकवाग्रस्त मरीज को बालकनी में बिठा दो, दस मिनट में सारी मुर्दा तंत्रिकाएं कराहने को जाग उठेंगी.. टिकट देखकर अटेंडेंट टॉर्चलाइट फेंकता हुआ(हॉल की तरफ कम, हमारी तरफ ज्यादा) बोला- "जे तीन रो छोड़कै अल्ली तरफ़ से सातवीं-आठवीं या पल्ली तरफ से तीसरी-चौथी पे बैठ जावो"
डिकोडिंग की सारी एल्गोरिदमें मिलकर भी हमें उस ब्रह्मदर्शन-सूत्र को हमारी भाषा मे नहीं समझा पाईं.. सारे कंपाइलर-इंटरप्रेटर फेल हो गये। गनीमत थी कि हॉल में ज्यादा लोग नहीं थे, वर्ना हमारी सीट तो मिल चुकी होती...
पाँच-सात मिनट सर्चित किये जाने के पश्चात एक सीट युगल मिला, जिसके चतुर्दिक वातावरण में ‘पान की पीकों का रैंडम डिस्ट्रिब्यूशन’ और ‘मूँगफली के छिलकों की डिस्क्रीट टाइम मार्कोव चेन’ अपने मिनिमा पर थी। जैसे तैसे कर उन सीटों में समाने की प्रक्रिया सम्पूर्ण हुई..।
असली संघर्ष अब प्रारम्भ हुआ। हर पाँच-सात मिनट पर बैठने की पोजिशन चेंज होने लगी। सीट और शरीर के संपर्क क्षेत्रफल को न्यूनतम करके, औ बार बार पहलू बदलकर दर्द का इक्वल एंड सस्टेनेबल डिस्ट्रिब्यूशन करने का प्रयास होने लगा..।
अंतत: एक घंटे की यंत्रणा सहन करने के पश्चात मेरा धैर्य जवाब दे गया। ‘उसकी’ पीड़ित नजरों का सामना करने में असफल होकर मैनें कहा-"लेट्स गो"। वह दूसरा शब्द सुनने के लिये रुकी भी नहीं..! ये प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया.. कि दिल करे हाय-हाय
एक वो दिन था, एक आज का दिन है। आपने सपनों पर जो तुषारापात उस दिन हुआ था, वह जमकर साढ़े तीन साल में ग्लेशियर बन गया.. पिघलता ही नहीं.. इसके बाद ‘उसने’कभी मेरी तरफ पलट कर नहीं देखा..!
यह थी एक प्रेम उड़ान की क्रैश-लैंडिंग..!
डिस्क्लेमर- इस कहानी के सभी पात्र व घटनाएं रीयल हैं.. नाम डिस्क्लोज नहीं कर रहा.."मैं ख़ुद भी एहतियातन उस तरफ से कम गुज़रता हूँ, कोई मासूम क्यों मेरे लिये बदनाम हो जाये "
ठेलनोपरांत- आज क्रिसमस है। कल रात से ही दो सरदार मित्र गुरविंदर और गुरप्रीत (संता क्लॉज-बंता क्लॉज) जिंगल बेल करते घूम रहे हैं.. और मैं आज ‘थ्री ईडियट्स’देखने जा रहा हूँ.. अब ये न पूछियेगा किसके साथ..! ऊँ सेंटाय नम:। आपकी-सबकी-मेरी क्रिसमस..
आप समझ गये होंगे मैं क्या कहना चाह रहा हूँ। ...एकदम समझ गये और ऐसा डिसक्लेमर न कहीं देखा और न ही आगे उम्मीद है. :)
टिप्पणी ठेलोपरांत एक ठो शुभकामना हमारी तरफ से भी गंठिया लो क्रिसमस के लिए. :) अरे, उ बड़का दिनवा जी भाई..बहुते गंवेठी हो, जाने समझते ही नहीं कौनो वेस्टर्न टॉक!!
meri bhi x-mas.. bas aapki nahi.. :)
इस शाप के डर से ही हम पढ़ाई के दौरान मन्दिर में घुसने से बँचते रहे। लेकिन अफसोस, कुछ न हुआ !
वैसे हमरे यहाँ 5 डिस्सीप्लीन मिला कर केवल 3 थीं- तीनों बस्स ऐसी कि इंजीनियर ही लगें ... समझ गए कि नहीं? :)
ये PD क्या कह रहे हैं? मेरी भी x-mas! कसमकस जोड़ने को मन करता है।
पोस्ट धाँसू बनी है - विशुद्ध ब्लॉगरी, एक इंजियर की। ..न न गलती नहीं नानी ऐसे ही कहती थीं, बड़ा लिरिकल लगता था - इंजियर।
वैसे बॉलकनी की सीटों में खटमल थे क्या ? कुछ याद आ रहा है या स्मार्ट भैया से पूछूँ?
धन्य धन्य रे श्रीश प्रभु!लीनेहूँ तुम अवतार
लीला अगिनित तुम करहु सुनहु सत्यविचार
धांसू फांसू हांसू पोस्ट। एकदम मस्त।
सुन्दर। वैसे लोग कहते हैं- असफ़लता बताती है कि सफ़लता का प्रयत्न पूरे मन से नहीं हुआ।
वाह!!
क्या लिखा है, पढ़ कर हँस - हँस कर के हाल बुरा हो गया ....उपमाओं और बिम्बों का यह तालमेल ..सुन्दर.
अनूप जी को ही दुहराता हूं. वैसे हिम्मते मर्दां मददे खुदा. प्रयास चालू रखो. सफलता मिलेगी.
जियो ... मेरी जान ....झकास लिखा है .....नीचे डिस्क्लेमर न भी लिखते तो भी हमें यकीन था इस "विवाह "में जरूर किसी का कत्ल हुआ होगा .राज श्री वाले ऐसे कितने क़त्ल के गुनाहगार है ....सिनेमा हौल का किरदार कॉलेज लाइफ में बहुत ही बड़ा है..... इधर आज काम करने का मूड नहीं है ......पर क्या करे.....
एक बार के तसव्वुर से जी नहीं भरता,
मेरे ख़्वाबों में आओ तो बार बार आओ|
बरेली का जिक्र करके पुराने दिन याद हो आये हैं | हमने १२वी की पढाई बरेली में की, बोर्ड के इम्तिहान में जी आई सी और पूरे बरेली में अव्वल आये और बस बरेली से नाता टूट गया लेकिन वो एक साल भुलाए नहीं भूलता...
उसके बाद अगले २.५ साल तक हर दो-तीन महीने में ४-६ दिन के लिए बरेली आते रहे लेकिन नाता टूट सा चुका था, और फरवरी २००१ में बरेली से वो रिश्ता भी टूट गया....
बहुत यादें हैं....
कुतुबखाने का जाम, कल ऑनलाइन दैनिक जागरण में पढ़ा की जाम हटाने को इसे वन वे बना रहे हैं, हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी....
कौन से कालिज में पढ़ रहे हो दोस्त? हमारे ज़माने (१९९८) में दो ही होते हैं, राममूर्ती वाला और एक बरेली यूनिवर्सिटी वाला...
पिक्चर हाल की बात की तो याद आया कि एक अच्छा सा थियेटर था जिसमे हमने ताल देखी थी, नाम शायद प्रभा था...लोकेशन ठीक से याद नहीं आ रही...शायद कैंट में या फिर चौकी चौराहा के आस पास था....
दूसरी फिल्म एक थियेटर में देखी थी जो दीनानाथ (५ मिनट लगे इस नाम को याद करने में) की लस्सी कि दूकान के पास था, नाम याद नहीं....फिल्म का नामभी याद नहीं....
हमारे ज़माने में बटलर प्लाज़ा का माहौल था, वहीँ लोग जाया करते थे तफरीह करने के लिए, अब तो ढेरों माल खुल गए होंगे...
अगली बार भारत आने पर बरेली की गलियों में जाने का प्रयास करेंगे....
तुम्हारे ब्लॉग पर पहली बार आया, अच्छा लगा...भविष्य की शुभकामनाएं...
गिरिजेश राव जी वाला हाल हमारा भी था, १५० लड़कों पे ३ लडकियां उसमे भी हमारी ब्रांच में वो भी नहीं....मजे की बात बताएं, कक्षा ५ में लडकियां साथ में पढ़ें थी...उसके बाद अपनी पी एच डी की क्लास में ही २ लडकियां फिर से दिखीं और दोनों ही पहले से ब्वायफ्रेंड शुदा...:-)
खैर, हिम्मत रखो, कट जायेंगे ये दिन भी किसी तरह...
नीरज रोहिल्ला....
इस शहर में एक बहुत बड़ी कमी है- सिनेमाहालों की। कुल जमा आठ-दस में से आधा दर्जन हॉल में या तो ‘जीने नहीं दूँगा’ और ‘चांडाल’ टाइप फिल्में लगी रहती हैं, या तो ‘सुनसान हवेली वीरान दरवाजा’टाइप.. आप समझ गये होंगे मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।
मान गये जी आप की कलम को ओर यह विशषलेशन भी बहुत सुंदर लगा
सबसे पहले अरविन्द जी को यह साफ बता दो कि तुम श्रीश नहीं हो। दूसरी बार उन्हें ऐसा कहते सुन रहा हूँ। तुम्हारी तस्वीर श्रीश पाठक प्रखर से मेल खाती लगती है उन्हें..?
पोस्ट तो हमेशा की तरह शानदार है...। मुझे तुम्हारी बेचारगी पर चिन्ता हो रही है। सलहज मुझे ही खोजना पड़ेगा क्या? थोड़ा धैर्य धारण करो और प्रयास जारी रखॊ। सफलता मिलेगी ही। अनूप जी की बात याद रखो।
बाबा सन्ता की क्रपा बनी रहे .अब तो प्रसाद सिनेमा का रनवे ठीक है स्मूथ लैंडिग के लिये . आज की पिक्चर कहां देखी नटराज मे या प्रसाद मे . वैसे शिशु मन्दिर मे भैय्या बहिन के संसकार इतने गहरे पड गये कि दुसरी फ़ीलिंग बहुत मुश्किल से आती है तब तक कई बार .......
सारी ,कार्तिकेय कहीं कुछ गड़बड़ है -श्रीश और आपको एक समझने का !
आगे ध्यान रखता हूँ ! शुक्रिया सिद्धार्थ जी !
गजब लिखि दिए हो भैया...गजब.
भाई, हमारे ज़माने में तो बरेली में हर कदम पर एक सिनेमा हाल गुलज़ार हुआ करता था. नीरज रोहिल्ला जिस गुमनाम हाल की बात कर रहे हैं उसका नाम नोवेल्टी था और यह तुम्हारे भुगते हुए प्रसाद वाली सड़क के दूसरी और कोतवाली वाले कोने पर था अब शायद कोई शौपिंग काम्प्लेक्स बन गया है वहां. जिस प्रभा टाकीज का ज़िक्र नीरज ने किया है वह ऋतिक रोशन के नाना जे ओमप्रकाश ने बनवाया था और हिन्दुस्तान के बेहतरीन सिनेमाहाल्स में से एक हुआ करता था. बाद में बिक गया और रामभरोसे हो गया. इन सब के बीच कई और भी सिनेमा हाल बने जो बाद में वीसीआर क्रान्ति के बाद गोदामों में तब्दील हो गए. मगर छावनी क्षेत्र का नटराज मुझे अभी भी याद है. बहुत छोटा था मगर साफ़ सुथरी सभ्य सी जगह थी और हमेशा अच्छी फ़िल्में वहीं आती थीं. हम ठहरे फ्लॉप फिल्मों के मसीहा सो वहां जाना बहुत होता था.
@ उड़न तश्तरी जी...
हमरे गँवट्टई पे कौनो शक़ न करें.. लेकिन इतने भी गये गुजरे नहीं हैं कि इतना भी न जानें कि बड़ा दिन ईसा मसीह की शादी वाले दिन को कहते हैं..
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@ गिरिजेश राव जी..
दुखती रग पे हाथ रख दिया आपने.. बस इंजीनियर तो यहाँ भी हैं, लेकिन एकाध एक्सेप्शन तो हर जगह होत हैं..
वैसे अगर ज़िन्दगी का लुत्फ़ उठाना था तो कौन कहा था पढ़ने-लिखने को.. सारे लो-रैंकिंग वाले कॉलेजों में फ़िरदौस है.. हमारा भी सेमी-फ़िरदौस है। जानते ही होंगे... ब्यूटी इन्वर्सली प्रपोर्शनल टू ब्रेन..(किसी से कहियेगा नहीं..कौनो विवाद न खड़ा हो जाये)। वइसे हमारी अम्मा(दादी) भी हमें अंजियर ही कहती हैं..
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@ सतीश पंचम जी, अनूप जी, लवली जी, राज भाटिया जी..
आप लोग कोई टिप्स तो दे नहीं रहे हैं, बस तारीफ कर रहे हैं, या सहानुभूति जता रहे हैं.. बच्चे की जान लोगे क्या?? सही है- जाके पैर न फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई।
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@ पीडी भाई,आप भी इन्हीं के साथ हो लिये.. ये उम्मीद न थी।
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@ भारतीय नागरिक जी,
कोशिश चालू आहे
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@ अनुराग जी
दर्जा तीन या चार में रहा हूँगा जब मम्मी-पापा ने ‘हम आपके हैं कौन’ दिखाई थी.. कस्सम से आज तक माफ़ नहीं कर पाया हूँ उन लोगों को.. सारा बदला निकालूंगा उन्हें हिमेश रेशमिया की अगली पिक्चर दिखाकर.. वो भी जानें बड़े होते हुए बच्चों की इमोशंस के साथ खिलवाड़ करने का क्या नतीज़ा होता है..
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@नीरज रोहिला(रुहेला) जी
क़ुतुबखाना आज भी नॉन-पेडेस्ट्रियन के लिये एक दु:स्वप्न है..बीच में वन-वे बनाकर देख चुके हैं, लेकिन जनता में ट्रैफिक सेंस किस रास्ते से घुसे?? लगभग नाकामयाब कोशिश रही।
जी हाँ.. मैं राममूर्ति वाले कालेज में ही ज़िन्दगी के कीमती पल जाया रहा हूँ..
चौकी चौराहे के पास तो प्रभा ही है.. बीच में बहुत खराब हो गया था, अभी तो काफी सही है.. रही बात दीनानाथ लस्सी के पास वाले हॉल की.. तो उसे इम्पीरियल कहते हैं। और दुबारा इसका नाम न ले लीजियेगा.. आपकी इज़्ज़त का फालूदा होते देर न लगेगी.. अब इसमें केवल मॉर्निंग शो लगते हैं..
बटलर प्लाजा का माहौल हम जब आये थे, तब भी जवान था.. लेकिन डेढ़ साल पहले विशाल मेगा मार्ट खुलने के बाद इसकी रौनक़ में कमी आई है। फिर भी यह ग्रेसफुली बूढ़ा हो रहा है..
ढेरों मॉल... हंसी नहीं रोक पा रहा हूँ.. एक भी नहीं खुला आजतक.. अपुष्ट खबरें हैं किसी आम्रपाली नामक मॉल के खुलने की-- सीबी गंज में।
बाकी अपना जुड़ाव बनाये रखिये..! अपनी मेलबॉक्स देखियेगा, एक मेल की है।
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@सिद्धार्थ जी
आप तो जब देखो तब ज़ख्मों पे नमक छिड़कने से बाज नहीं आते। बड़ी मासूमियत से कह रहे हैं कि लग रहा है सलहज मुझे ही ढूंढनी पड़ेगी.. आप के जिम्मे छोड़ दूं तो वाजपेयी जी का उत्तराधिकारी बनने से कोई नहीं रोक सकता.. ना बाबा ना, हमें तो इसी जन्म में चाहिये, वैसे भी 2012... बूहूहूहू..2 साल 359 दिन बस बचे हैं..
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@धीरू जी..
सौ बात की एक बात.. असल नब्ज तो आपने पकड़ी है। वैसे एक बात बताउं.. शिशु मन्दिरों की साख पर बट्टा लगाने वालों में से हूँ.. वो जो शपथ होती थी ना.. मैं भारतीय हूं.सभी भारतवासी मेरे भाई बहन है.. इसमें काम का पोर्शन गोल कर जाता था.. समझ रहे हैं न कौन सा.. उस समय भी इतना समझदार था कि अगर सारी भारतवासिनी मेरी बहनें हो गईं, तो क्या पाकिस्तानी से शादी करूँगा, या बना रहूँगा ठन-ठन गोपाल..!
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@शिव भैया..(पीडी भाई से संबोधन उधार ले रहा हूँ)
रोने का मन कर रहा है.. बस इंतजार किये जा रहा हूँ कि ई ससुरा बी.टेक. खतम हो ‘हम दीवानों की क्या हस्ती आज यहाँ कल वहाँ चले..’ तिसपर गणित.. नाम सुनते ही 200 ग्राम खून भाप बन जाता है.. ओझा जी सुन लें तो हमरे ब्लॉग पर आना छोड़ दें।
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@ और अरविन्द जी..
कहाँ श्रीश भैया की फोटू से हमारी तुलना करते हैं.. वे एकदम कहर स्मार्ट लगते हैं, हम चमक ..या। हम तो यही सोच कर फूल-पिचक रहे थे कि अगर श्रीश भैया ई लिखे होते तो इतनी तारीफ उन्हें मिली होती.. हम लिखे हैं तो तीस-चालीस फीसदी तारीफ का तो हक़ बनता है ना.. क्यों?
:)
ये लो..
कल से इंतजार कर रहा था अनुराग शर्मा जी का.. अब आये हैं। और कमेंट्स का जवाब दिये जाने के बाद।
बहुत सारी ग़लतफहमियाँ दूर हो गईं.. खासतौर से इंपीरियल-नॉवेल्टी वाली.. :)
सहेजनीय टिप्पणी के धन्यवाद.. प्रियंका के साथ-साथ ऋतिक भी बरेली से जुड़े हैं.. बहुत खूब।
आई थी अलीगंज वाले हनुमान मंदिर के विषय में पढ़ने.... यहाँ तो कुछ और ही प्रवचन चल रहा है.... मगर था मस्त... लग रहा है अभी कुछ ही दिन हुए लखनऊ छूटे... जो भी हो ये शहर बहुत जल्दी अपना बनाता है..
शुभकामनाएं...
क्या दिन याद दिला दिये! अब वहां और उस युग में वापसी कहां सम्भव है! :-(
nice
भाई कार्तिकेय ....! ब्लोगजगत मे ऐसा बहुत कम होता है पढ़ो और रोम-रोम गुदगुदी लग जाये...तन-मन पुलकित हो जाए...!
मजा आ गया..शिशु मंदिर का मै भी हूँ..'भैया-बहन'वाली पदावली से आज भी गाल पे लाली आ जाती है तो समझ सकता हूँ..!
अपनी आवारगी बचाये रखना यार..यही अलग और मौलिक बनाती है..!
आपसे बेहद प्रभावित हुआ हूँ. फ़ीड क्या सँजोता सीधे follow ही कर लिया..!
और हाँ; सुंदर-स्मार्ट-प्रखर-क्यूट तो लग रहे हो फोटू मे..काहे हमारा मजाक उड़ा रहे हो भाई..पीला देंगे दिल्ली वाली चाय..कभी भी आ जाओ..ना..!
अन गिन शुभकामनायें...! आपके लेखन के लिए और सुंदर-सुफल-सहज भविष्य के लिए...!
about me पढ़कर मजा आ गया..बेबाकी भी कई बार कितनी खूबसूरत होती है...न..!
भाई.....
मैं तो आपके ब्लॉग पर पहली बार आया....मगर दोस्त क्या धारदार लिखा है.......बरेली से मेरे भी रिश्ते रहे हैं......कभी किप्स की टिक्की और बटलर मार्केट का भी आनंद उठाओ.....पक्का मज़ा आएगा,
very nice Kartikeya bhai It's wonderfull. lage raho saflata awshy milegi; waise suna hai ki sabra ka fal meetha hota hai .....so ...............? Amit shrivastava