पहली ख़ता- स्वप्न
(..आगे)
सुगंध
याद है मुझे अब भी-वो रुत,
वो फिज़ा, जब हम
पहली बार मिले थे;
नरम जाड़ों के दिन थे वे,
और अचानक चलने लगी वो पुरवाई
समेट लाती थी अपने आँचल में तरह तरह की खुश-बूएं
याद है मुझे अब भी-
जब पहली बार मेरे कानों में गूँजी थी
तुम्हारी वो मिठास घोलती आवाज़.
और याद हैं तुम्हारी वो शरारतें-
आधी रात को चिढ़ाने वाली ‘मिस्ड काल्स’
लड़ते-लड़ते बीत जाने वाली रातें,
और सूरज के उगते ही मुँह छुपाकर सो जाना!
जब पहली बार मेरे कानों में गूँजी थी
तुम्हारी वो मिठास घोलती आवाज़.
और याद हैं तुम्हारी वो शरारतें-
आधी रात को चिढ़ाने वाली ‘मिस्ड काल्स’
लड़ते-लड़ते बीत जाने वाली रातें,
और सूरज के उगते ही मुँह छुपाकर सो जाना!
याद है मुझे अब भी-
छोटी-छोटी बातों पर तुम्हारा रूठ जाना,मेरा तुम्हें परेशान करना
और आखिरकार सुलह हो जाना।
और-
कि जब बातें किये बीत जाये एक अरसा
तो नामालूम सी बेचैनी का तारी हो जाना।
सफ़र
नहीं भुलाये जा सकते वे लमहे
जब पहली बार तुम्हारी आँखों से टपके उन क़तरों ने
तय किया था सफ़र
मेरी रूह तक का,
और भिगोते चले गये थे मुझे-
अन्दर, बेहद अन्दर तक!
नहीं भुलाये जा सकते वे लमहे
जब हँसने-खिलखिलाने के दौरान
छा जाती थी खामोशी,
और उसे तोड़ता एक आँसू-
छलक उठता था कभी मेरी आँख में
कभी तुम्हारी
जब हँसने-खिलखिलाने के दौरान
छा जाती थी खामोशी,
और उसे तोड़ता एक आँसू-
छलक उठता था कभी मेरी आँख में
कभी तुम्हारी
नहीं भुलाये जा सकते वे लमहे
तुमसे ज़ुदा होने के
माँ की नम आँखों के
पिता के बेचैन हो टहलने के।
नहीं पता था क्या शक़्ल अख्तियार करेगी
ये ज़ुदाई..
29 अक्टूबर 2005
रात्रि 1:45 बजे, लखनऊ
ठेलनोपरांत- पोस्ट को तारीख़ के सन्दर्भ में देखा जाय..
तुमसे ज़ुदा होने के
माँ की नम आँखों के
पिता के बेचैन हो टहलने के।
नहीं पता था क्या शक़्ल अख्तियार करेगी
ये ज़ुदाई..
29 अक्टूबर 2005
रात्रि 1:45 बजे, लखनऊ
ठेलनोपरांत- पोस्ट को तारीख़ के सन्दर्भ में देखा जाय..
(जारी..)
नहीं पता था क्या शक़्ल अख्तियार करेगी
ये ज़ुदाई..
जुदाई की तो अपनी ही शक्ल होती है.
बेहतरीन
मारक, मार्मिक
हाल ही में मैने भी कुछ ऐसा ही महसूस किया पढ़ने के बाद एक बार फिर आँखे नम हो गयी।
बहुत सुंदर कविता।
लगे रहो, बहुत आगे तक जाओगे. गहराई से सोचते हो और फिर कागज पर सुन्दर शब्द चित्र उकेरते हो. मेरी शुभकामनायें.
कोई बीता पल याद दिला दिया आप की इस कविता ने, बहुत सुंदर
अजीब बात है हमारा भी कुछ ऐसा सा मूड है आज ...
बहुत खूब। पहली कविता से ज्यादा सहज/सरल/समझ में आने वाली। आगे भी इंतजार है।
ओह!! बहुत जबरदस्त..निश्चित ही तारीख के मद्दे नजर ही देखा!!
कुछ बातें और लम्हें भुलाए नहीं भूलते. या फिर भूलना ही कौन चाहता है !
कविता तो बहुत बढ़िया है.. संभाल कर रख लिये हैं.. शायद कभी काम आ जाये.. मगर एक बात समझ में नहीं आयी.. तुम्हारे कालेज में तो शायद मोबाईल अलाऊ नहीं है ना?? ;)
प्रशांत भाई.. सत्य कथन। मोबाइलं यत्र वर्जयेत
लेकिन लिखने की तारीख देखिये, तारीख के सन्दर्भ में (अ)कविता देखिये।
बहुत सुन्दर और सामयिक!
सात दिसम्बर १९७७
(टिप्पणी की उक्त तारीख के सन्दर्भ में देखा जाये)
@ नरम जाड़ों के दिन
खुश-बूएं
सूरज के उगते ही मुँह छुपाकर सो जाना!
नामालूम सी बेचैनी का तारी हो जाना
आँखों के कतरों का रूह तक सफर
___________________
पढ़ाई के बाद कविता का एक अलग ब्लॉग बनाओ। बड़े बड़े मेरे साथ तुम्हारे घाट पानी पिएँगे। 'खुश-बूएं' तो कमाल का प्रयोग है!
यह 'अकविता' नहीं है। यह शब्द हिन्दी और इतर भाषाओं में एक विशेष प्रकार की कविता के लिए रूढ़ हो चुका है। 'भाषिक भदेसपन' इस कविता का एक प्रमुख लक्षण है ! 'अकविता' को ब्लॉग जगत अभी स्वीकार नहीं कर पाएगा।
बहुत ही अच्छा लिखा है ।
पुराने दिन याद आ गये।
बहुत खूब... जमाए रहो जी। आज पढ़ने की फुरसत मिली। शानदार है। मोनू तो ससुराल में बहुत खुश है। तुम भी प्रसन्न रहो।
शब्दों और भावों की नयनाभिराम प्रविष्टि अत्यंत सराहनीय है
mrunal पर cpf के इंटरव्यू से आपके ब्लॉग के बारे में पता चला। आपको fb पर निवेदन भेजकर इधर ब्लॉग की तरफ चला आया। अब तक के सारे लेख छान कर अंदर समाहित करते हुए इस कविता पर ठहर गया। स्वाभाविक सी बात है कि आपने न जाने कितनी भावनाओं को महसूस कर उन्हें शब्दों का रूप दिया होगा। अब वाही शब्द अनायास ही भावना बनकर कभी दिल से तो कभी आँखों से झरने बनकर प्रवाहमय हो जाते हैं। बड़ा गज़ब लिखते हैं। मुझे बहुत दुःख और अफ़सोस होता है कि जब आप ये सब लिख रहे थे तो पढ़ने के संसाधन मेरी औकात से बाहर थे। अब मिला तो आपको पढ़ रहा हूँ....पढ़ क्या रहा हूँ..महसूस कर रहा हूँ।
सर आपसे एक गुज़ारिश है कि फिर से कीबोर्ड पर उँगलियों को दौड़ाया जाय।