तन्हाई के राजदार...2
8 दिन, गाँव का पुरसुकून माहौल, माँ-बाप-भाई-बहन सहित संयुक्त परिवार के रिश्तों की गर्माहट और...फिर वही कुंज-ओ-कफस,फिर वही सय्याद का घर !
दीपावली का उल्लास छू हो चुका है। घर से लौटने के बाद हॉस्टल के कमरे का ताला खोलता हूँ तो अस्त-व्यस्त कमरा चुनौती देता सा लगता है। काफ़ी मेहनत के बाद कुछ सामान इधर-उधर करके बैठने की जगह बनाता हूँ। घर जाने से दस दिन पहले से झाड़ू नही लगी है। किताबें एक कोने में उपेक्षित-अनादृत पड़ी हैं। सहसा दरवाजे पे दस्तक होती है....
कौन है?
अबे, मैं हूँ..
क्या जवाब है..! दरवाजे के बाहर खड़ा हर इंसान 'मैं' ही होता है। खैर दरवाजा खोलता हूँ...रजत है।
कब आया..?
अभी-अभी
सब ठीक-ठाक ?
बिल्कुल.... कोई काम था ?
नहीं, ऐंवेंई... चलता हूँ।
थैंक्स...
और दरवाजा बन्द। वापस आकर पुनः तन्द्रामग्न होने के विचार में हूँ, तभी.......
अरे सुन तो..!
क्या हुआ?
कल पहला पेपर किसका है....?
नींद गायब. तो कल टेस्ट हैं.. पिछली बार तो फैकल्टी के रहमो-करम पे दो-चार नंबर मिल भी गये थे. इस बार तो कोई गुंजाइश ही नहीं ..
रजत जा चुका है.... लेकिन गुस्सा बरकरार है। अच्छा कोई बात नहीं, अभी तो पूरा दिन पड़ा है, और बिस्तर पर औंधे मुँह पड़ जाता हूँ। विचारों की तन्द्रामग्न श्रृंखला प्रारंभ होती है।
कुछ तस्वीरें जहन से नही उतरतीं। ईमानदारी से कहूँ तो पैदाइश से आज तक मेरी सबसे दिव्य अनुभूति कार्तिक मास में धुंधलाई शाम और गहराते अंधेरे की संधि पर तुलसी के चौरे पर दिया जलाती माँ के पास बैठने से जुड़ी हैं।टिमटिमाते दिए की लौ में आँखें मूंदे माँ को देखने से, उसके बगल में बैठने से जो सुकून मिला उसका अंशमात्र भी आज तक कहीं और ढूँढने में मैं नाकाम रहा हूँ। मात्र उसकी स्मृति से ही अंतर्मन पवित्र हो जाता है।
और पिता! उनकी तो तुलना ही संभव नहीं है. कोई इंसान एक ही क्षण में पत्थर की तरह कठोर और बच्चों की तरह कोमल कैसे हो सकता है, इसकी बानगी साढ़े चार साल पहले बीएचयू में देख चुका हूँ। 29 अक्टूबर की शाम को चिंतित-निश्चिंत, विचलित-अडिग, कठोर-भावुक पिता से एक बार पुनः मुलाकात हुई।
और भैया, कदाचित् ज़िंदगी में मेरे उपर इतना प्रभाव और मुझसे इतना जुड़ाव किसी और शख्स का नहीं रहा। ज़्यादा नहीं कहूँगा वरना औपचारिक लगने लगेगा।
रिश्तों की इन्हीं गहराइयों में डूबते-उतराते, कब नींद के आगोश में डूब गया, पता ही नहीं चला..
अब रात के साढ़े ग्यारह ब़ज रहे हैं, और घर का खुमार अभी उतरा नहीं है.. विचारों की यही श्रृंखला दिन भर चलती रही है.. पढ़ नहीं पाया तो क्या हुआ, अब सो लेता हूँ। कल पेपर जो देना है॥
2 नवम्बर, रात्रि 11:30
8 दिन, गाँव का पुरसुकून माहौल, माँ-बाप-भाई-बहन सहित संयुक्त परिवार के रिश्तों की गर्माहट और...फिर वही कुंज-ओ-कफस,फिर वही सय्याद का घर !
दीपावली का उल्लास छू हो चुका है। घर से लौटने के बाद हॉस्टल के कमरे का ताला खोलता हूँ तो अस्त-व्यस्त कमरा चुनौती देता सा लगता है। काफ़ी मेहनत के बाद कुछ सामान इधर-उधर करके बैठने की जगह बनाता हूँ। घर जाने से दस दिन पहले से झाड़ू नही लगी है। किताबें एक कोने में उपेक्षित-अनादृत पड़ी हैं। सहसा दरवाजे पे दस्तक होती है....
कौन है?
अबे, मैं हूँ..
क्या जवाब है..! दरवाजे के बाहर खड़ा हर इंसान 'मैं' ही होता है। खैर दरवाजा खोलता हूँ...रजत है।
कब आया..?
अभी-अभी
सब ठीक-ठाक ?
बिल्कुल.... कोई काम था ?
नहीं, ऐंवेंई... चलता हूँ।
थैंक्स...
और दरवाजा बन्द। वापस आकर पुनः तन्द्रामग्न होने के विचार में हूँ, तभी.......
अरे सुन तो..!
क्या हुआ?
कल पहला पेपर किसका है....?
नींद गायब. तो कल टेस्ट हैं.. पिछली बार तो फैकल्टी के रहमो-करम पे दो-चार नंबर मिल भी गये थे. इस बार तो कोई गुंजाइश ही नहीं ..
रजत जा चुका है.... लेकिन गुस्सा बरकरार है। अच्छा कोई बात नहीं, अभी तो पूरा दिन पड़ा है, और बिस्तर पर औंधे मुँह पड़ जाता हूँ। विचारों की तन्द्रामग्न श्रृंखला प्रारंभ होती है।
कुछ तस्वीरें जहन से नही उतरतीं। ईमानदारी से कहूँ तो पैदाइश से आज तक मेरी सबसे दिव्य अनुभूति कार्तिक मास में धुंधलाई शाम और गहराते अंधेरे की संधि पर तुलसी के चौरे पर दिया जलाती माँ के पास बैठने से जुड़ी हैं।टिमटिमाते दिए की लौ में आँखें मूंदे माँ को देखने से, उसके बगल में बैठने से जो सुकून मिला उसका अंशमात्र भी आज तक कहीं और ढूँढने में मैं नाकाम रहा हूँ। मात्र उसकी स्मृति से ही अंतर्मन पवित्र हो जाता है।
और पिता! उनकी तो तुलना ही संभव नहीं है. कोई इंसान एक ही क्षण में पत्थर की तरह कठोर और बच्चों की तरह कोमल कैसे हो सकता है, इसकी बानगी साढ़े चार साल पहले बीएचयू में देख चुका हूँ। 29 अक्टूबर की शाम को चिंतित-निश्चिंत, विचलित-अडिग, कठोर-भावुक पिता से एक बार पुनः मुलाकात हुई।
और भैया, कदाचित् ज़िंदगी में मेरे उपर इतना प्रभाव और मुझसे इतना जुड़ाव किसी और शख्स का नहीं रहा। ज़्यादा नहीं कहूँगा वरना औपचारिक लगने लगेगा।
रिश्तों की इन्हीं गहराइयों में डूबते-उतराते, कब नींद के आगोश में डूब गया, पता ही नहीं चला..
अब रात के साढ़े ग्यारह ब़ज रहे हैं, और घर का खुमार अभी उतरा नहीं है.. विचारों की यही श्रृंखला दिन भर चलती रही है.. पढ़ नहीं पाया तो क्या हुआ, अब सो लेता हूँ। कल पेपर जो देना है॥
2 नवम्बर, रात्रि 11:30
pryash,aree bahi likhai me rash hi.
you are great my friend.but why do you not tell me about this?
कार्तिकेय को यहाँ देखना बड़ा सुखद और अह्लादकारी है।
इनकी प्रतिभा के हम पहले से कायल हैं। इनके बचपन से इन्हें देखा है, सराहा है, और इनसे बड़ी-बड़ी उम्मीदें की हैं।
बढ़ती उम्र के साथ इनसे हमारी ख्वाहिशें भी परवान चढ़ रही हैं। आशा है, ये सदा की भाँति उन्हें पूरा करने में सफल होंगे।
प्रिय कार्तिकेय,
तुम्हारी सभी पोस्टें पढ़ डाली हैं। शानदार शुरुआत हुई है। शाबास! अब कुछ बातें नोट करो -
सबसे पहले ये word verification का लफड़ा हटा लो। सेटिंग्स में जाकर इसके ‘no’ ऑप्शन को सेलेक्ट करके save कर लो। बस छुट्टी...। इसका फायदा कुछ नहीं है। नुकसान बहुत है। यह टिप्पणीकारों को अटकाता है।
@प्रयास निरीह है, लघु है. सहमति-असहमति के स्वर ही इसे सार्थकता प्रदान करेंगे....
इसमें सच्चाई कम है और humility अधिक है। कोई प्रयास लघु नहीं होता, निरीह तो कतई नहीं होता है। ‘टिप्पणी’ मूल्यांकन का सही आधार नहीं हो सकती। शुरुआत में इससे हमारे मूल्य का थोड़ा पता तो चलता है, लेकिन सही या असली मूल्य का पता कदाचित् नहीं चल पाता। इसमें लम्बा समय लग सकता है। फिर भी ‘प्रयास की सार्थकता’ अपने स्थान पर कायम रहती है; तब भी, जब कोई भी टिप्पणी न मिले।
वैसे भी टिप्पणियों का गणित बहुत उलझाने वाला है। इस विषय पर ब्लॉगजगत में बहुत कुछ लिखा जा चुका है।
अपनी पूरी क्षमता व ईमानदारी से लिखने की कोशिश करो, इसी की पहचान कायम रहती है। और हाँ, जितना लिखो उससे कई गुना पढ़ने की कोशिश करो। सफलता तुम्हारा द्वार जरूर खटखटाएगी।
हार्दिक शुभकामनाएं।
आप अच्छा और सच्चा लिखते हैं /लिखते रहे ..शुभ कामनाओं के साथ
रंजू
तुम्हारा प्रयास सुखद है. शुभसंशा प्रस्तुत है तुम्हारे लिखने की कला पर.
उत्तरोत्तर प्रगति की शुभकामना.
सिद्धार्थ
डायरी के पन्ने दिल से निकले हैं भाई.. और लिखो.
पर हाँ पेपर के एक दिन पहले नहीं ! वैसे ये भी कोई सिखाने की बात है नाईटआउट मार के पास कर ही लोगे :-)
कम उम्र में भी ज्यादा और अच्छा ठेल लेते हो बन्धु।
शुभकामनायें!
आप के सभी आलेख पढ़े। अच्छा लगा पढ़ कर। लगता है आप से गहरी छनेगी।
कमरे पर जिस तरह की दस्तक हुई और उसके बाद के संवाद काफी कुछ पुरानी यादों को कुरेद गये।
सिध्दार्थ की पोस्ट से पता चला कि यहाँ भी कुछ चल रहा है सो आते रहेंगे।
शुभकामनाएं।
भाई बहुत सुंदर लिखा आप ने धन्यवाद
बेहतरीन!