सबसे पहले आप सबसे क्षमा चाहूँगा अपनी अनियमितता के लिए। वस्तुतः जब ब्लोगिंग शुरू की थी तो पता नहीं था की यह शगल इतना समय लेने वाला हो सकता है। मैं अन्य वरिष्ठ विचारकों की पोस्ट पढने में इतना मशगूल हो जाया करता हूँ, कि अपनी किताबें भी गालियाँ देती होंगी।
खैर, अब जबकि एंड-सेमेस्टर परीक्षाएं सर पर हैं, तो पोस्टों की आवृत्ति में न चाहते हुए भी कमी करनी पड़ रही है। वैसे इन परीक्षाओं के बाद अपना शेड्यूल दुबारा बनाऊंगा, तथा नियमित होने का प्रयास करूँगा। अभी अगले पन्द्रह-बीस दिनों के लिए मेरी अनियमित उपस्थिति कों क्षमा किया जाय।
सिद्धार्थ जी ने नए पते की शुभकामनाओं में यह भी जोड़ दिया की यह सूचना नए पोस्ट के साथ देनी चाहिए थी। तो अपनी बी.टेकीय दुरवस्था पर लिखी एक कविता पोस्ट कर रहा हूँ।
यह कविता टेक्नोक्रेट्स-डाक्टर्स के मध्य हिन्दी कविता का पर्याय बन चुके कलमकार डा.कुमार विश्वास की एक प्रसिद्ध कविता "एक पगली लड़की के बिन" की पैरोडी है, जो मेरे कॉलेज के इन दिनों के वातावरण पर आधारित है। मौलिक कविता का लिंक भी संलग्न है--
नवंबर के आखरी दिनों में रेफरेंस का दरवाजा खुलता है,
एक्ज़ाम-शेड्यूल देखकर हर कोई आँखें मलता है।
जब अपनी गरम रज़ाई में हम निपट अकेले होते हैं,
जब रात के बारह बजते है, सब पढ़ते हैं हम सोते हैं।
जब बार-बार दोहराने से सारी 'सेड्रा' चुक जाती है
पर क्वेश्चन हल कर पाने में माथे की नस दुख जाती है।
तब तीस मार्क्स भी पा पाना हम सबको भारी लगता है,
और बिना 'बैक' के पास होना यारों दुश्वारी लगता है।
जब पोथे खाली होते हैं जब हर्फ सवाली होते हैं,
जब कैंटीन रास नही आती, 'मंडे' भी गाली होते हैं,
जब DE का वाइवा लेने 'रचना आर्या' खुद आती हैं,
और 'अज़हर' को समझा पाने में नानी भी याद आती है,
जब वाइवा में बीटा माइनस लेकर कोई वापस आता है,
और गर्लफ़्रेंड के सामने वॉट लगना दिल को फिर खल जाता है।
जब रोटी छीन के खाने पर वार्डन का थप्पड़ पड़ जाता है,
और इक छोटा 'पीटर' भी अपनी रेड लगाकर जाता है।
तब तीस मार्क्स भी पा पाना हम सबको भारी लगता है
और बिना बैक के पास होना यारों दुश्वारी लगता है.
जब दत्ता सर ये कहते हैं बेटा तेरी औकात नहीं,
और PAL के क्वेश्चन कर पाना तेरे बस की बात नहीं.
जब पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक सी जाती है,
और सेमीनार में उठने पर फट कर हाथ में आती है,
जब ये रहस्य क्लियर होता, हमको कुछ नहीं अभी आता,
और KPH के सिवा किसी का दामन हमें नही भाता,
तब तीस मार्क्स भी पा पाना हम सबको भारी लगता है
और बिना बैक के पास होना यारों दुश्वारी लगता है।
जब एक रात पहले सबको भोलेनाथ याद आते हैं,
सब सुबह नहाकर माथे पर बलि का टीका लगते हैं।
जब हम बसों में जाते हैं, जब गार्ड हमें ले जाते हैं,
जब यमदूत से कुछ चेहरे NS का पेपर थमाते हैं,
कुछ आँखें धीरज खोती हैं, कुछ बुक्के फाड़ के रोती हैं।
कुछ चालू आँखें टॉपर की कॉपी पर केंद्रित होती हैं।
जब पोथे रटे हुई लड़कियाँ मारे खुशी चिल्लाती हैं
और हमारे इकलौते क्वेश्चन भी ग़लत बताती हैं
तो ये सारा उल्लास हमें दिल पर चिंगारी लगता है
और बिना बैक के पास होना यारों दुश्वारी लगता है।
तकनीकी शब्दावली--
१- रेफरेंस- पुस्तकालय का सन्दर्भ विभाग
2- सेड्रा- Sedra 'n' Smith "Microelectronics"
३- मंडे- साप्ताहिक avakaash
4-DE- Digital Electronics
५- रचना आर्या, अज़हर- कुछ परीक्षक जो परीक्षार्थी हेतु दुस्वप्न हैं
६- पीटर- एक स्थानीय छोटा ज़हरीला कीड़ा
७- KPH- खन्ना पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित कुंजी . K-कैसे, P-पास, H-हों का प्रत्युत्तर
८- PAL- Programmable Array Logic
९-NS- Network analysis and Synthesis
( खून चूस लेने की हद तक आतंककारी विषय)
१०- वॉट लगना- दुर्गति होना ('लगे रहो मुन्नाभाई' से साभार)
कुछ असंसदीय शब्दों के प्रयोग के लिए अग्रिम क्षमा, और फॉरमैटिंग की अशुद्धियों के लिए भी. आज यहाँ बैंडविद्थ थोड़ी कमजोर है.
खैर, अब जबकि एंड-सेमेस्टर परीक्षाएं सर पर हैं, तो पोस्टों की आवृत्ति में न चाहते हुए भी कमी करनी पड़ रही है। वैसे इन परीक्षाओं के बाद अपना शेड्यूल दुबारा बनाऊंगा, तथा नियमित होने का प्रयास करूँगा। अभी अगले पन्द्रह-बीस दिनों के लिए मेरी अनियमित उपस्थिति कों क्षमा किया जाय।
सिद्धार्थ जी ने नए पते की शुभकामनाओं में यह भी जोड़ दिया की यह सूचना नए पोस्ट के साथ देनी चाहिए थी। तो अपनी बी.टेकीय दुरवस्था पर लिखी एक कविता पोस्ट कर रहा हूँ।
यह कविता टेक्नोक्रेट्स-डाक्टर्स के मध्य हिन्दी कविता का पर्याय बन चुके कलमकार डा.कुमार विश्वास की एक प्रसिद्ध कविता "एक पगली लड़की के बिन" की पैरोडी है, जो मेरे कॉलेज के इन दिनों के वातावरण पर आधारित है। मौलिक कविता का लिंक भी संलग्न है--
नवंबर के आखरी दिनों में रेफरेंस का दरवाजा खुलता है,
एक्ज़ाम-शेड्यूल देखकर हर कोई आँखें मलता है।
जब अपनी गरम रज़ाई में हम निपट अकेले होते हैं,
जब रात के बारह बजते है, सब पढ़ते हैं हम सोते हैं।
जब बार-बार दोहराने से सारी 'सेड्रा' चुक जाती है
पर क्वेश्चन हल कर पाने में माथे की नस दुख जाती है।
तब तीस मार्क्स भी पा पाना हम सबको भारी लगता है,
और बिना 'बैक' के पास होना यारों दुश्वारी लगता है।
जब पोथे खाली होते हैं जब हर्फ सवाली होते हैं,
जब कैंटीन रास नही आती, 'मंडे' भी गाली होते हैं,
जब DE का वाइवा लेने 'रचना आर्या' खुद आती हैं,
और 'अज़हर' को समझा पाने में नानी भी याद आती है,
जब वाइवा में बीटा माइनस लेकर कोई वापस आता है,
और गर्लफ़्रेंड के सामने वॉट लगना दिल को फिर खल जाता है।
जब रोटी छीन के खाने पर वार्डन का थप्पड़ पड़ जाता है,
और इक छोटा 'पीटर' भी अपनी रेड लगाकर जाता है।
तब तीस मार्क्स भी पा पाना हम सबको भारी लगता है
और बिना बैक के पास होना यारों दुश्वारी लगता है.
जब दत्ता सर ये कहते हैं बेटा तेरी औकात नहीं,
और PAL के क्वेश्चन कर पाना तेरे बस की बात नहीं.
जब पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक सी जाती है,
और सेमीनार में उठने पर फट कर हाथ में आती है,
जब ये रहस्य क्लियर होता, हमको कुछ नहीं अभी आता,
और KPH के सिवा किसी का दामन हमें नही भाता,
तब तीस मार्क्स भी पा पाना हम सबको भारी लगता है
और बिना बैक के पास होना यारों दुश्वारी लगता है।
जब एक रात पहले सबको भोलेनाथ याद आते हैं,
सब सुबह नहाकर माथे पर बलि का टीका लगते हैं।
जब हम बसों में जाते हैं, जब गार्ड हमें ले जाते हैं,
जब यमदूत से कुछ चेहरे NS का पेपर थमाते हैं,
कुछ आँखें धीरज खोती हैं, कुछ बुक्के फाड़ के रोती हैं।
कुछ चालू आँखें टॉपर की कॉपी पर केंद्रित होती हैं।
जब पोथे रटे हुई लड़कियाँ मारे खुशी चिल्लाती हैं
और हमारे इकलौते क्वेश्चन भी ग़लत बताती हैं
तो ये सारा उल्लास हमें दिल पर चिंगारी लगता है
और बिना बैक के पास होना यारों दुश्वारी लगता है।
तकनीकी शब्दावली--
१- रेफरेंस- पुस्तकालय का सन्दर्भ विभाग
2- सेड्रा- Sedra 'n' Smith "Microelectronics"
३- मंडे- साप्ताहिक avakaash
4-DE- Digital Electronics
५- रचना आर्या, अज़हर- कुछ परीक्षक जो परीक्षार्थी हेतु दुस्वप्न हैं
६- पीटर- एक स्थानीय छोटा ज़हरीला कीड़ा
७- KPH- खन्ना पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित कुंजी . K-कैसे, P-पास, H-हों का प्रत्युत्तर
८- PAL- Programmable Array Logic
९-NS- Network analysis and Synthesis
( खून चूस लेने की हद तक आतंककारी विषय)
१०- वॉट लगना- दुर्गति होना ('लगे रहो मुन्नाभाई' से साभार)
कुछ असंसदीय शब्दों के प्रयोग के लिए अग्रिम क्षमा, और फॉरमैटिंग की अशुद्धियों के लिए भी. आज यहाँ बैंडविद्थ थोड़ी कमजोर है.
अभी एक साल ही हुए निकले इस हाल से... लेकिन पता नहीं क्यों फिर से उन दिनों में लौट जाने को दिन करता है.
कर लो एन्जॉय !
बस लगा की कुमार विश्वास की आवाज में सुन रहा हूँ ! कुमार विश्वास भी खूब सुना... ये दिन बड़े मस्त होते हैं... शुभकामनायें ! (मुझे पता है इसकी बड़ी जरुरत होती है.) आँखों का जूम लेंस सही कर लेना... भगवान् तुम्हे 100x जूम प्रदान करें 5 बेंच आगे तक का देख पाओ :-)
पहले तबियत से परीक्षा दे लो भाई। ये ब्लॉगिंग का नशा फिर कर लेना। अभी तो जिन्दगी पड़ी है। हाँ, मूड हल्का करने कभी इधर आ जाया करो तो कोई हर्ज नहीं है।
font & color की सेटिंग में जाकर लिन्क का कलर ठीक कर लो। यह इतना हल्का है कि पढ़ना मुश्किल है।
भाई वाह ऐसा लगा फ्लेश बैक में चले गये ....कविता का पहला हिस्सा एक दम झकास है
bahut badhiya dil ko choo lene vali kavita . dhanyawad.
बहुत बढ़िया.. अभिषेक जी कि तरह हम भी अभी १-२ साल पहले ही निकले हैं इससे मगर फिर से सोचता हूँ पढाई चलू कर दूँ.. इसलिए नहीं कि आगे पढना है. इसलिए कि कालेज का साथ फिर से मिल जाये.. :)
परीक्षा के लिए शुभकामनाएं..
खुश रहिये .
इतना अच्छा तो मैने भी नही लिखा ......
Dr Kumar Vishvas
www.kumarvishwas.com
वाह,वाह!