मैं इसे एडिट कर क्रोध करना चाहता था, लेकिन सोचा कि फायदा कुछ नहीं। क्रोध जनता की मानसिकता का स्थाई भाव हो चुका है, और नपुंसकता राजनेताओं का।
मुझे याद है, वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हुआ, पहली इमारत गिरते-गिरते बुश का बयान आ गया- अफगानिस्तान पर हमला। आप या तो हमारे साथ हैं, या दहशतगर्दों के साथ। और शाम होने से पहले-पहले पूरी दुनिया अमेरिका के पीछे लामबंद हो गई।
हमारे सौ नागरिक मारे गए, १४ पुलिसवाले मरे, जिनमें दो बड़े अधिकारी शामिल हैं। माफ़ कीजियेगा लेकिन मैं इस बात से कतई इत्तेफाक नहीं रखता कि यह 'शहादत' थी। एक वर्दीधारी अगर दुश्मन का सामना करते हुए मरता है, तो वह शहीद है। मुंबई में जिस कदर वे अधिकारी मृत्यु कों प्राप्त हुए, वह हमारे नकारा राजनैतिक-खुफिया तंत्र के द्वारा उनकी निर्मम हत्या थी, कोई शहादत नहीं।
और इतने सब कुछ के बाद हमारे पाटिल साहब (आजाद भारत के इतिहास में सौभाग्यशः हमें ऐसा गृहमंत्री मिला है, जो स्मार्टनेस में जॉर्ज क्लूनी का मुकाबला कर सकता है) का स्टेटमेंट आता है, यह भाई कों भाई से लड़ाने की साजिश है, और कुछ नहीं। धन्य है, हमारा सब्र जिसका बाँध वाजपेयी जी के जमाने से आज तक टूट ही रहा है, लेकिन टूटा नहीं। कोसी-राप्ती-गंडक के सारे तटबंध टूट जायें, लेकिन भारतीय अभियांत्रिकी का अनमोल नगीना यह बाँध नहीं टूट सकता।
पाटिल साहब की तरफ़ से मैं अनुरोध करना चाहूँगा अपने पथभ्रष्ट आतंकी बंधुओं से- अगर आपको आना ही था, तो बता कर आए होते। आपके स्वागत का पूरा इन्तजाम होता, दो-चार तुरही नगाड़े वाले चाक चौबंद होते। बताइए न, मुई मुंबई की सड़कें इतनी ख़राब हैं कि आपको ताज तक पहुँचने में दो-ढाई घंटे लग गए। चलिए अब आ ही गए हैं, तो इतनी जल्दी थोड़े जाने देंगे। ४६ घंटे हो गए, आप चाहें तो अभी दो चार दिन इन्हीं पॉँच-सितारा होटलों में विश्राम करिए। बीवी-बच्चों कों भी साथ लाये होते। मेहमाननवाजी कोई हमसे सीखे।
अरे अगर गूदा था तो उसी पल हमारी जेलों में बंद सभी आतंकियों कों बिना मुक़दमे, बिना सोचे सरे-आम गोली मार देनी थी। मीडिया इसका भी लाइव प्रसारण करता। कम-अज-कम आतंकियों को हमारा स्टैंड तो क्लीअर होता. उन्हें जो चाहिए था, वह काम तो ख़ुद हमारी मीडिया ने कर दिया. जनता में पैनिक, विदेशों में हमारी खुफिया एजेंसियों, काउंटर-टेरेरिस्ट ऑपरेशन कर पाने में नौसिखियापन, और तंत्र के प्रति अनास्था. कम से कम उन्हें ये तो बता दिया जाता, कि वक़्त पड़ने पर हम कितने निर्मम भी हो सकते हैं. उनके और उनके तथाकथित 'जिहादी-भाइयों' के चीथड़े अगर राष्ट्रीय टेलीविजन पर दिखाई पड़ते तो जनता के मनोबल पर कुछ तो असर पड़ता, उन्हें भी पता चलता कि इन कार्रवाइयों के साइड-इफेक्ट क्या हो सकते हैं.
शहादत मेजर उन्नीकृष्णन की है, हवलदार चंदर की है। उनके परिवार कों मेरी तरफ़ से हार्दिक श्रद्धांजलि। आपकी माँ-बीवी-बहनों के लिए प्रार्थना है, कि अगले जनम में उन्हें आप जैसा बेटा-पति-भाई न नसीब हो। वरना हमारी नामर्दगी आपकी कोख ऐसे ही उजाड़ती रहेगी, आपका सिन्दूर ऐसे ही पोछती रहेगी। कल कोई राजनीति का दलाल आपको भी एक मिसप्रिंट चेक सौंप जाएगा, शहीद की जान की कीमत के तौर पर।
गुस्सा बहुत है, लेकिन निकलने कों सही मध्यम नहीं मिल रहा। यह बेजुबान की-बोर्ड पूरी शिद्दत से साथ दे रहा है। लेकिन मुझे कुछ और चाहिए, और मुझे पता है कि आप भी शायद उसी हिट-मी की तलाश कर रहे हैं।
बाकी का शोक, बाकी का क्रोध अगली पोस्ट में, अगले धमाकों के बाद। पाटिल-मनमोहन-सोनिया जी .....व्हाट इज दी प्रोग्राम?
और हाँ..... अब तो अफजल कों फांसी तुरंत दे दो। कमबख्त कों इतने साल इस देश ने पालने पोसने के बाद एक जरा सा काम सौंपा, वो भी पूरा नहीं कर पाये। इसे तो उसी दिन फांसी पर लटका देना चाहिए था।
चलते चलते: दिल्ली धमाकों के बाद होस्टल में बीसी के दौरान एक मजेदार बात निकल कर आई थी। बंगलुरू-अहमदाबाद-दिल्ली धमाके, ऑपरेशन BAD। अब मुंबई। कहीं ऐसा तो नहीं यह ऑपरेशन BADMINTON हो! मुंबई तो हो लिया, अब इंदौर-नागपुर-ट्रावन्कोर-ऊटी-?? खुफिया विभाग चाहे तो मुझसे संपर्क कर सकता है। वैसे भी वे जो बात पूरी इन्वेस्टिगेशन के बाद तीसवें दिन बताते हैं, उसे पहले दिन ही बच्चा-बच्चा जान जाता है।
जब यह लेख लिखा था, उस समय कमांडो कार्रवाई को ४६ घंटे बीत चुके थे. अपरिहार्य कारणों से पोस्ट नहीं कर पाया.
आक्रोश बना रहे भाई... इसकी बहुत जरुरत है. शांत हो जाता है यही तो बुराई है.
इस गृह मंत्री को तो पिछले ३ दिनों में जितना गरियाया है... लगता है जीवन में उतनी गालियाँ नहीं दी होगी. अभी कहीं पढ़ा था... '3G of Manmohan Singh': SoniaJi, RahulJi, PriyankaJi.
जो 'वैसे' राष्ट्रपति की जगह 'ऐसे' राष्ट्रपति को बनाने के लिए राजनीती कर सकते हैं, वो कुछ भी कर सकते हैं ! उन्हें देश की क्या पड़ी है... अभी जो कुछ होगा भी बस इसलिए क्योंकि चुनाव है. उससे ज्यादा ये माध* ** सोचते कहाँ हैं.
आज सुबह-सुबह ही किसी ब्लौग पर कमेन्ट करते हुए मैंने वो भाषा का प्रयोग किया था जिसे मैंने अपने अभी तक के जीवन में शायद ही कभी किया हो.. यहाँ तक कि इंजीनियरिंग कालेज में कई साल गुजरने के बाद भी.. अब अभिषेक जी भी उसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं.. सच्ची बात तो यह है कि ये साले राजनेता उस भाषा के भी लायक नहीं हैं..
अरे सबसे पहले तो इन्हें एक लाइन में खडा करके उडाना चाहिए.. अधिकतर समस्या ऐसे ही ख़त्म हो जायेगी..
चिकने घङे पे पानी ज्यों,व्यर्थ हमारे शब्द.
नेताजी के सूट का, क्या कर लेंगे शब्द.
क्या कर लेंगे शब्द, मन्त्र-शक्ति भी खोई.
शासन-प्रशासन दुष्ट-तन्त्र में भक्ति भी खोई.
कह साधक भारत की मुश्किल दोनो तरफ़ से.
व्यर्थ हमारे शब्द,ज्यों पानी चिकने घङे पे.
इस क्रोध ओर बैचनी को अपने भीतर जिलाये रखना क्यूंकि अब इसी की जरुरत है .....
सवाल ये नही हैं की ये नेता कौन है, सवाल ये है कि इसे हमने चुना है. सवाल ये भी नही है कि कौन मरा है, सवाल ये है कि कैसे मरा है. सिस्टम अपनी नाकामी को उनकी शहादत का चोला पहना के चुनावी माहौल को गर्म बनाये रखा है......
ये होता रहा है....होता रहेगा....नही......जरूर बदलेगा.
एक विडंबना सुना रहा हूं आप सभी को;
दिल्ली मे चुनाव है, और पोलिंग के ३ दिन पहले वाली रात (२६-नवम्बर, वही काली रात), जब मुम्बई पर हमला हुआ और तमाम देश हिल पडा, यहां दिल्ली मे जहां मैं रहता हूं; 8PM और Johny Walker जैसे शराब की बोतलें टहल गयी. थोडा लोगो का मूड टहला और अगले दिन वोटिंग हो गयी. साथ्-ही-साथ मुम्बई पर हमले की चर्चा भी चलती रही. हो गया नये नेता का भविष्य तय.
भई हमने ही सब तय करना है.......चुनाव हमारे हाथ में है.
सिद्धार्थ मिश्र
आप बहुत अच्छा लिखते है, आक्रोश आपके शब्दों से फूट कर निकल रहा है. हमारे ब्लॉग में आपके आक्रोश को स्थान देकर गौरव का अनुभव कर रहा हूँ.
http://wehatepakistan.blogspot.com/