ऐवेटॉर(अवतार)...भव्य तकनीक के नीचे सांस लेता हुआ सा कुछ बचा रह गया है..


कुछ दिन पहले एक फिल्म देखी.. ऐवेटॉर/या अवतार कह लीजिए शुद्ध हिंदी में। आज मन में आया तो कुछ ठेले देते हैं इसी फिल्म पर।

फिल्म समीक्षा मेरे प्याले की चाय नहीं(Not My Cup Of Tea), न ही मेरा ऐसा कोई उद्देश्य है। लेकिन उस फिल्म के भव्य एनिमेशन और भारी-भरकम तकनीक के पीछे कुछ साँस लेता हुआ सा दिखा मुझे, जिसे यहाँ सबके साथ बाँटना मैनें अपना फर्ज़ समझा.. सामयिक भी है।

फिल्म के निर्देशक हैं जेम्स कैमेरॉन.. यह उनकी तीसरी फिल्म थी, जो मैनें देखी। टाइटेनिक और टर्मिनेटर-द जजमेंट डे के बाद। कैमेरॉन को भव्य फिल्में बनाने का शौक है.. इन फिल्मों का कैनवस इतना बड़ा होता है कि दर्शक आत्मविस्मित सा, चौंधियाया सा रह जाता है..! शायद यही इन फिल्मों की सबसे बड़ी ताकत(और कमजोरी भी) है। पूरी फिल्म के दौरान आप कहीं भी इतने खाली नहीं हो पाते कि कहानी किस दिशा में जा रही है, इस बारे में सोच सकें या फिर अभिनेताओं के चेहरे पर आ रहे भावों की सूक्ष्मता/फ्लैट चेहेरों का विवेचन कर सकें..! अंतत: ढाई घंटे बाद जब आप सिनेमाहाल से बाहर निकलते हैं, तब क्षणजीवी अभिनय क्षमता और कथानक की जगह जो चीज आपके दिलो-दिमाग पर हावी होती है, वह है आतंकित कर देने वाली तकनीक!

टाइटेनिक में भी भीमकाय सेट्स, हिमखंड और ग्राफिक्स के अतुलनीय बोझ तले साँस लेती एक मासूम सी कहानी थी.. बंधनों को तोड़ने को आतुर एक लड़की ‘रोज’, जो दुनिया को नये ढंग से देखना चाहती है.. जो दुनिया को हमेशा अपनी पारिवारिक दौलत के चश्मे से देखती-देखती ऊब चुकी है.. समाज का अभिजात्य बंधन उसे खुलकर साँस लेने का स्पेस जब मुहैया नहीं करा पाता, तो अपनी आज़ादी का रास्ता उसे आत्महत्या में ही नजर आता है!


इसी मोड़ पर आता है ‘जैक’.. दुनिया देखा हुआ, समझता हुआ..! उसके साथ रोज साँस लेना सीखती है, खुलकर हँसना सीखती है.. वर्जनाओं को तोड़ने की मुहिम उसे समंदर में दूर तक थूकने से लेकर स्वच्छंदता के नये आयाम स्पर्श करने की ललक पैदा करती है..!

और फिल्म यहीं राह भटक जाती है.. भव्य जहाज का डूबना इतना आतंकित कर जाता है कि जीवित बची रोज जब लकड़ी के तख्ते पर जम चुके जैक के हाथों को छुड़ाती है, तो जमी बर्फ के टूटने के साथ आने वाली खट की आवाज के साथ उसके चेहरे पे आने वाले भाव किसी शून्य में विलीन होते से लगते हैं..

ऐवेटॉर का कथानक सीधा सा है..सन 2050, साढ़े चार प्रकाश वर्ष दूर एक ग्रह के सैटेलाइट ‘पंडोरा’ पर जीवन की खोज हो चुकी है.. धरती पर ऊर्जा के तमाम परंपरागत स्रोत शुष्क हो चुके हैं..! गैरपरंपरागत स्रोत भी अब मानव की ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अक्षम हो चुके हैं..! ऐसे में वरदानस्वरूप एक तत्व ‘अनऑब्टेनियम’ का पता चलता है, जिसका विशाल भंडार पंडोरा वासी (जिन्हें ना’वी कहते हैं) लोगों के गाँव के नीचे दबा पड़ा है। विश्व के बड़े-बड़े उद्योगपतियों के अनुदान से एक प्रोजेक्ट चलाया जाता है, जिसमें कुछ मानवों के डीएनए में पंडोरावासियों का डीएनए मिलाकर उन मानवों के ना’वी प्रतिरूप(अवतार) तैयार किये जाते हैं.. ये प्रतिरूप देखने में बिलकुल ना’वियों जैसे हैं, और कंट्रोल सेगमेंट में लेटे हुए अपने आधे डीएनए के मालिक मानवों द्वारा मानसिक लिंक की सहायता से संचालित किये जा सकते हैं..

इनमें से एक है जैक सली(Jack Scully).. उसके वैज्ञानिक भाई का डीएनए भी अवतार प्रोजेक्ट के लिये चयनित होता है.. जिसके असमय मृत्यु हो जाने के बाद जैक को इस प्रोजेक्ट के लिये ले लिया जाता है..!

मानव सेना का कमांडर शक्ति बल के जरिये अनऑब्टेनियम पाने में यक़ीन रखता है..(टिपिकल अमेरिकन आर्मी).. जैक को अतिरिक्त कार्य सौंप दिया जाता है, अपने अवतार रूप द्वारा परंपरागत निवासियों की गुप्तचरी करने का.. उनकी कमजोरियों का पता लगाने का, जो उनके खिलाफ़ युद्ध में काम लाई जा सकें..

लेकिन जैसे-जैसे जैक ना’वियों को नजदीक से जानने लगता है, उसके विचारों में परिवर्तन आने लगता है। उन लोगों की प्रकृति के साथ सहजीविता.. पेड़ों के साथ बातें करना.. चिड़ियों की भाषा समझना, उन्हें अपनी भाषा समझाना... घोड़ों के साथ मानसिक-हार्दिक बन्धन जोड़ना.. उन्हें मन:शक्ति से निर्देश देना.. सब कुछ इतना निर्दोष है, इतना निश्छल, कि जैक को प्यार हो जाता है.. उनकी संस्कृति से, उसी संस्कृति में पली बढ़ी एक ना’वी युवती से..! शेष स्पष्ट हो गया होगा.. फिर वही तीर धनुषों के सहारे उन्नत तकनीक वाली मानव सेना का मुकाबला और उन्हें परास्त करना.. एवरग्रीन सत्य की विजय टाइप।

लेकिन बात "सत्यं वद, धर्मं चर" की ही नहीं है.. बात है, मानव की अनथक लिप्सा में चरमरा रहे पारिस्थितिकीय संतुलन(Ecological Balance) की.. तेजी से बिगड़ती खाद्य श्रृंखला की.. विलुप्त होती प्राकृतिक संपदा की... समाप्त होते ऊर्जा स्रोतों की.. और सबसे बढ़कर कभी न सुधरने वाली मानव प्रजाति की नित नई अक्षम्य भूलों की..

ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति ने उसकी अन्य कृतियों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है.. यह वह प्रजाति है, जो अपनी ही थाली में छेद करती जा रही है। अपनी ही जीवन-सप्लाई बंद कर रही है। अपने ही हृदय तक रक्त ले जाने वाली नसों को काट रही है..

प्राचीन भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ समन्वय के असंख्य उदाहरण हैं..ये उदाहरण तेजी से ‘तरक्की(?)’ कर रही मानव जाति में भी लोक-श्रुतियों के रूप में, ग्राम्य परंपराओं के रूप में आज भी रचे बसे हैं.. कृषि के लिये हँसिये, थ्रेशर से होते हुए आज हम कम्बाइन हार्वेस्टर तक पहुँच तो गये हैं.. लेकिन बैसाख की जुताई से पहले खेत की मिट्टी की पूजा आज भी हलषष्ठी (हरवत मूठ) के दिन होती है.. "त्वदीयं वस्तु गोविन्दम" की तर्ज पर अपने खेत में उगे गन्ने, गंजी, सुथनी का उपभोग किसान चौथ से पहले नहीं करता.. पति - पुत्र का स्वास्थ्य ‘बर-बरियार’ पेड़ से शाश्वत ढंग से जुड़ गया है..


तेजी से विलुप्त होती परंपराओं के बीच, और ज़बर्दस्त कॉमर्शियलाइजेशन के साथ ये परंपरायें भले ही लोक जीवन से विलुप्त होती जा रही हों, लेकिन उनका संदेश नहीं विलुप्त हो सकता.. प्रकृति से उतना ही लो, जितना आवश्यक हो- "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा"... लेकिन मानव ने इस संदेश का पालन कब किया!!

चाहे ओजोन परत का क्षरण हो, चाहे ध्रुवीय बर्फ़ का पिघलना... कॉलोनाइजेशन के लिये किये जा रहे वनोन्मूलन के फलस्वरूप बढ़ रहे मनुष्य-वन्यजीव संघर्ष, जिनमें अंतत: नुकसान अ-मानवीय पक्ष को ही उठाना पड़ता है.. ये सब असंख्य उदाहरण हैं मानव की चिर अभीप्सा के, जो अभी तक शान्त नहीं हो पाई है, और शायद इस ग्रह की आहुति लिये बिना शान्त होगी भी नहीं..!

वर्ष 2009 बीत रहा है.. कुछ क्षणों का मेहमान यह वर्ष और किसी बात के लिये जाना जाय या नहीं.. यह ‘कोपेनहेगन’ के रूप में समूची मानव जाति की हार के रूप में इतिहास के पन्नों में स्थायी रूप से अंकित हो गया है..! संभवत: इस शताब्दी की सबसे बड़ी हारों में से एक.. मानव जाति ने सर्वसम्मति से इस ग्रह को ऐसे विनाशपथ पर ठेल दिया है जिसकी परिणति केवल अपने जीवन के कुछ अंतिम वर्ष गिनने में होने वाली है.. हमारी आने वाली पीढ़ियाँ (अगर कोई आईं तो) अपने पुरखों का नाम जुगुप्सा से लेंगी कि उनके पास मौका था इस मरते ग्रह का इलाज कर पाने का.. अब तो बीमारी टर्मिनल स्टेज में है..!

कोपेनहेगन वार्ता में कई द्वीपीय देश थे- मालदीव, सूरीनाम, सेशेल्स जैसे..! उनकी पुकार कैसे अनसुनी कर सकता है भला कोई? 2 डिग्री सेंटिग्रेड की सीमा भी जिनके देशों को ज्यादा समय तक नहीं बचा सकती थी, जिन्होंने 1.5 की सीमा तय करने की माँग उठाई थी, उन्हें 2 डिग्री की सीमा भी मयस्सर नहीं हुई.. विकसित देशों की भूख सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है.. उन्होंने इस ग्रह को जितना नुकसान पहले डेढ़ सदियों (1800-1950) में पहुँचाया, उतना पिछले पचास सालों में सारे विकासशील देश मिलकर नहीं पहुँचा पाये। विकासशील देशों को अपनी पहले से ही भूखी-नंगी जनता के लिये रोटी-पानी की व्यवस्था करनी है, सोलर कुकर तो बाद में बाँटेंगे..! विनष्ट होने के लिये सर्वसम्मत तो होना ही था।

ऐसा नहीं कि अब कुछ हो ही नहीं सकता..आवश्यकता दृढ़ निश्चय की है.. पिछले 62 सालों में जिनका ‘असली’विकास हुआ है, ऐसे अम्बानियों, बिड़लाओं, मित्तलों, सहाराओं को अपनी जेब ढीली करनी ही होगी.. पर्यावरण-मित्र तकनीकें अपनानी होंगी। ज्वलन्त उदाहरण हैं- रतन टाटा, और उनकी फाउंडेशन द्वारा चलाई जा रही ‘टाटा मार्गदीप’ परियोजना.. जो हर गाँव को पिचहत्तर फीसदी सब्सिडी पर सोलर पॉवर प्लांट मुहैया कराने के लिये कटिबद्ध है.. ऐसे प्रयास और भी होने चाहिये।

मुझे फिल्म के एक किरदार का बार-बार कहा जाने वाला कथन नहीं भूलता- यह सारी जीवन ऊर्जा प्रकृति की दी हुई है, जो उसे एक दिन लौटानी होगी। अब हमें तय करना है कि उस दिन प्रकृति के सम्मुख हम कैसे खड़े होंगे.. सर झुकाये हुए, या गर्व से कहते हुए- "जस की तस धर दीन्हि चदरिया"

अब से मनुष्य की इस ब्रह्माण्ड में जीवन की खोज करने के प्रयत्नों का धुर विरोध होना चाहिये.. इस ग्रह को विनाश के कगार तक हम लाये, अब इसे कायरों की भाँति नहीं छोड़ सकते.. दूसरे किसी ग्रह को ढूँढकर अपनी लालसा में विनष्ट करने से बेहतर है कि यह अहसानफरामोश मानव जाति इसी ग्रह पर आखिरी सांसे गिने..

किसी का कथन याद आ रहा है- ये प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में तो सक्षम है, लेकिन हमारी वासनाओं की पूर्ति में नहीं..!

पुनश्च: परीक्षाओं में व्यस्तता के कारण आपकी पोस्टों को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहा.. क्षमाप्रार्थी हूँ..

और इसी पोस्ट के बहाने हमारी तरफ से नव-वर्ष की अग्रिम बधाई स्वीकार की जाये.. नये साल में मिलते हैं।

रैगिंग, फ़िरदौस, अलीगंज वाले बड़े हनुमान का शाप और सिनेमाहॉल में एक प्रेम उड़ान की क्रैश लैंडिंग…


साढ़े तीन साल होने को आये मुझे बरेली में। एक ऐतिहासिक महत्व का शहर और कमिश्नरी होने के बावजूद इस शहर में एक बहुत बड़ी कमी है- सिनेमाहालों की। कुल जमा आठ-दस में से आधा दर्जन हॉल में या तो ‘जीने नहीं दूँगा’ और ‘चांडाल’ टाइप फिल्में लगी रहती हैं, या तो ‘सुनसान हवेली वीरान दरवाजा’टाइप.. आप समझ गये होंगे मैं क्या कहना चाह रहा हूँ।

पूर्वजन्म के पुण्यों के फलोदयस्वरूप यहाँ आने के चार-छ: महीने पहले एक सिनेमंदिर का जीर्णोद्धार हुआ, तो दूसरे का आने के साल भर भीतर। सच्ची बता रहे हैं, इन्हीं कुल जमा दो हॉलों के सहारे इतना लम्बा वक़्त इस खबीस कॉलेज में बिताया है।

सरस्वती शिशु मन्दिर से लगायत जीआईसी के दिनों तक XX क्रोमोसोम के सान्निध्य से कोसों दूर रहने के बाद जब लखनऊ जैसे शहर में ट्राईवैग और रूबिक्स के चार-चार सौ आईआईटियार्थियों के झुण्ड में पचास-साठ देवियों के दर्शन हुए तो चकित च विस्मित च किलकित च सस्मित (इन शॉर्ट भकुआये हुए) गच्च मन ने स्वयं से कहा- "ग़र फ़िरदौस बर रूये जमींअस्त, हमींअस्तो हमींअस्तो हमींअस्त "

लेकिन थोड़ा स्वाभिमान था, थोड़ी ग़ैरत, थोड़ा माँ-बाप के सपने पूरा करने का जोश, थोड़ा बड़े भाई का डर, थोड़ा छोटे शहर से कमाई हुई जीवन भर की परम चिरकुटई की पूँजी, और सबसे बढ़कर अलीगंज वाले बड़े हनुमान जी का शाप... साल बीत गया, लेकिन हमें किसी ने न तो घास डाली, न भूसा; और रिजल्ट आने के बाद जो जुताई हुई सो अलग

बरेली में आने के बाद रही-सही ग़ैरत को तिलांजलि और बचे-खुचे स्वाभिमान को सुपुर्दे-खाक़ करने के बाद ऑपरेशन ‘एक से भले दो’ पर ध्यान केन्द्रित किया गया। रैगिंग के दरमियान समस्त चिरकुटाई झाड़कर फेंक दी(लगभग ही सही)। थोड़ा सीनियर्स के सिखाये गुर याद किये, थोड़ा लखनऊ में रात 11 बजे रेडियो सिटी पर आने वाले ‘लव गुरु’ के टिप्स रिवाइज किये और रैगिंग के दो महीने बाद छिली हुई कलमें वापस आते ही, और चेहरे की अनन्त गहराइयों तक खुरचकर साफ की गई दाढ़ी-मूँछ के पहले रेशों के नमूदार होते ही मैदान-ए-जंग में कूद पड़े..!

लगभग चार महीनों की अथक-अकथ मेहनत के बाल एक कन्या ने पहली बार हमारे सतत विविध भारती प्रसारण को अपना रेडियो ट्यून कर कृतार्थ किया। ये वही कन्या थी जो रैगिंग के दरम्यान सीनियर्स के अनुरोध(हुकुम) पर हमारे कंठ-ए-बेसुर द्वारा रेड़मारीकृत ‘तुम इतना जो मुस्करा रहे हो’ को सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गई थी.. और हमारी दीवानगी का आलम ये था कि उबासी लेने के बहाने भी अगर उसके दाँत दिख जायें तो पच्चीस-तीस ग़ज़लें लिख मारता था..!

उसकी दो चोटियों में बँधे लाल औ हरे रंग के रिबन्स में मुझे एक सुनहरे हिन्दुस्तान की तस्वीर दिखाई देती..(देशभक्ति का इतना ज्वार दुबारा नहीं चढ़ा कभी)। उसकी झुकी-झुकी सी नजर में मुझे अपने लिये शर्मो-हया नजर आती(ससुरी सब ग़लतफ़हमी थी)। कॉलेज के सालाना जलसे में जीटीआर(सेन्सर्ड) करने वाले सीनियर्स को पकड़-पकड़ कर खुद तो बाकायदे काटा ही, उसे भी अगणित चाट-पकौड़ी-मंचूरियन तुड़वाये।

बात शास्त्रसम्मत ढंग से आगे बढ़ रही थी। अगले कदम के रूप में सह-चलचित्रदर्शन का कार्यक्रम बना.. एकाध महीने तक इंतज़ार किया पूर्णतया शुद्ध-सुसंस्कृत-निरामिष फिल्म का। इंतजार ख़त्म हुआ.. फिल्म थी- विवाह (अपनी अंतरात्मा का कोल्ड-हॉर्टेड मर्डर करने के बाद कोई राजश्री ब्रदर्स की फिल्म देखने पहुँचा था.. आज तक रातों को चौंक कर उठ जाया करता हूँ- राधेकृष्ण की ज्योति अलौकिक).. रास्ते भर मारे खुशी से फूलते-पिचकते रहे। मार्ग में एक जगह ‘उसने’ इशारा करके खिड़की से बाहर देखने को कहा। जी धक से हो गया। अपशगुन के रूप में बाहर मुस्कुराती बजरंगबली की 100 फुटी प्रतिमा जैसे मुँह चिढ़ा रही थी। हे पवनसुत! यहाँ भी चैन नहीं लेने देंगे आप..। हृषीकेश पंचांग में बुरे सपने का फल नष्ट करने वाले सूत्र वाक्य-"लंकाया: दक्षिणे कोणे चूड़ाकर्णो नाम ब्राह्मण:, तस्य स्मरण मात्रेण दु:स्वप्नो सुस्वप्नो भवेत " को दोहराकर मन:शान्ति प्राप्त की..।

लेकिन बात निकली है तो फिर दूर तलक जायेगी। थियेटर था ‘प्रसाद’। बरेली वासी जिन वीरों को इस हॉल में पिक्चर देखने का ‘सौभाग्य’ प्राप्त हुआ है.. जैसे धीरू जी, या बर्ग-वार्ता वाले अनुराग शर्मा जी.., उनसे तस्दीक करा लीजियेगा.. किसी लकवाग्रस्त मरीज को बालकनी में बिठा दो, दस मिनट में सारी मुर्दा तंत्रिकाएं कराहने को जाग उठेंगी.. टिकट देखकर अटेंडेंट टॉर्चलाइट फेंकता हुआ(हॉल की तरफ कम, हमारी तरफ ज्यादा) बोला- "जे तीन रो छोड़कै अल्ली तरफ़ से सातवीं-आठवीं या पल्ली तरफ से तीसरी-चौथी पे बैठ जावो"

डिकोडिंग की सारी एल्गोरिदमें मिलकर भी हमें उस ब्रह्मदर्शन-सूत्र को हमारी भाषा मे नहीं समझा पाईं.. सारे कंपाइलर-इंटरप्रेटर फेल हो गये। गनीमत थी कि हॉल में ज्यादा लोग नहीं थे, वर्ना हमारी सीट तो मिल चुकी होती...

पाँच-सात मिनट सर्चित किये जाने के पश्चात एक सीट युगल मिला, जिसके चतुर्दिक वातावरण में ‘पान की पीकों का रैंडम डिस्ट्रिब्यूशन’ और ‘मूँगफली के छिलकों की डिस्क्रीट टाइम मार्कोव चेन’ अपने मिनिमा पर थी। जैसे तैसे कर उन सीटों में समाने की प्रक्रिया सम्पूर्ण हुई..।

असली संघर्ष अब प्रारम्भ हुआ। हर पाँच-सात मिनट पर बैठने की पोजिशन चेंज होने लगी। सीट और शरीर के संपर्क क्षेत्रफल को न्यूनतम करके, औ बार बार पहलू बदलकर दर्द का इक्वल एंड सस्टेनेबल डिस्ट्रिब्यूशन करने का प्रयास होने लगा..।

अंतत: एक घंटे की यंत्रणा सहन करने के पश्चात मेरा धैर्य जवाब दे गया। ‘उसकी’ पीड़ित नजरों का सामना करने में असफल होकर मैनें कहा-"लेट्स गो"। वह दूसरा शब्द सुनने के लिये रुकी भी नहीं..! ये प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया.. कि दिल करे हाय-हाय

एक वो दिन था, एक आज का दिन है। आपने सपनों पर जो तुषारापात उस दिन हुआ था, वह जमकर साढ़े तीन साल में ग्लेशियर बन गया.. पिघलता ही नहीं.. इसके बाद ‘उसने’कभी मेरी तरफ पलट कर नहीं देखा..!

यह थी एक प्रेम उड़ान की क्रैश-लैंडिंग..!

डिस्क्लेमर- इस कहानी के सभी पात्र व घटनाएं रीयल हैं.. नाम डिस्क्लोज नहीं कर रहा.."मैं ख़ुद भी एहतियातन उस तरफ से कम गुज़रता हूँ, कोई मासूम क्यों मेरे लिये बदनाम हो जाये "

ठेलनोपरांत- आज क्रिसमस है। कल रात से ही दो सरदार मित्र गुरविंदर और गुरप्रीत (संता क्लॉज-बंता क्लॉज) जिंगल बेल करते घूम रहे हैं.. और मैं आज ‘थ्री ईडियट्स’देखने जा रहा हूँ.. अब ये न पूछियेगा किसके साथ..! ऊँ सेंटाय नम:। आपकी-सबकी-मेरी क्रिसमस..

तनहाई के राज़दार..4


पहली ख़ता- स्वप्न
(..आगे)



सुगंध



याद है मुझे अब भी-वो रुत,
वो फिज़ा, जब हम
पहली बार मिले थे;
नरम जाड़ों के दिन थे वे,
और अचानक चलने लगी वो पुरवाई
समेट लाती थी अपने आँचल में तरह तरह की खुश-बूएं


याद है मुझे अब भी-
जब पहली बार मेरे कानों में गूँजी थी
तुम्हारी वो मिठास घोलती आवाज़.
और याद हैं तुम्हारी वो शरारतें-
आधी रात को चिढ़ाने वाली ‘मिस्ड काल्स’
लड़ते-लड़ते बीत जाने वाली रातें,
और सूरज के उगते ही मुँह छुपाकर सो जाना!


याद है मुझे अब भी-
छोटी-छोटी बातों पर तुम्हारा रूठ जाना,मेरा तुम्हें परेशान करना
और आखिरकार सुलह हो जाना।
और-
कि जब बातें किये बीत जाये एक अरसा
तो नामालूम सी बेचैनी का तारी हो जाना।






सफ़र



नहीं भुलाये जा सकते वे लमहे
जब पहली बार तुम्हारी आँखों से टपके उन क़तरों ने
तय किया था सफ़र
मेरी रूह तक का,
और भिगोते चले गये थे मुझे-
अन्दर, बेहद अन्दर तक!


नहीं भुलाये जा सकते वे लमहे
जब हँसने-खिलखिलाने के दौरान
छा जाती थी खामोशी,
और उसे तोड़ता एक आँसू-
छलक उठता था कभी मेरी आँख में
कभी तुम्हारी


नहीं भुलाये जा सकते वे लमहे
तुमसे ज़ुदा होने के
माँ की नम आँखों के
पिता के बेचैन हो टहलने के।
नहीं पता था क्या शक़्ल अख्तियार करेगी
ये ज़ुदाई..


29 अक्टूबर 2005
रात्रि 1:45 बजे, लखनऊ


ठेलनोपरांत- पोस्ट को तारीख़ के सन्दर्भ में देखा जाय..


(जारी..)

सच्चा इस्लाम बनाम झूठा इस्लाम और चूतियों का वर्गीकरण

हमारी गँधाती राजनीति में मुल्ला मुलायम सिंह यादव जैसों के पास पूरी जौहर युनिवर्सिटी खड़े करने के पैसे हैं। लेकिन चालीस हजार संस्कृत पाठशालाओं के शिक्षकों को वेतन के नाम पर देने के लिये एक धेला नहीं है; अलबत्ता मदरसों की सालाना ग्रांट में एक से दो दिन की देरी नहीं होती। जबकि तुलना के तौर पर देखें तो पाठशालाओं में शास्त्र-स्मृति के साथ-साथ साहित्य, विज्ञान और कला भी पढ़ाई जाती है। जरा मदरसों के पाठ्यक्रम को रिवाइज करने की बात कर लीजिये- दंगे भड़क उठेंगे।

आजकल बहुत अजीब सी प्रवृत्ति देख रहा हूँ। पढ़े-लिखे मुसलमानों में भी कट्टरता व्याप्त होने लगी है। बी.टेक. कर रहे ब्राईट और प्रामिसिंग लड़के अगर पंद्रह अगस्त की सुबह नींद न खुल पाने की वजह से ध्वजारोहण में भाग न ले पायें, कोई बात नहीं, लेकिन वही शख्स अगर दिसम्बर के जाड़े में अलस्सुबह उठकर फ़ज़र की नमाज अता करने कैंपस से एक किलोमीटर दूर जाने में जरा भी न अलसाये तो ??

उसपर लोग कहते हैं कि शिशु मन्दिरों में आतंकवादी तैयार हो रहे हैं। मेरी शिक्षा-दीक्षा सरस्वती शिशु मन्दिर में हुई। संघ की शाखा में न सिर्फ़ गया हूँ, बल्कि एक शाखा का प्रशिक्षक भी रहा हूँ। स्वयंसेवक प्रशिक्षण वर्ग भी पूरा किया मैनें, और इस बात का गर्व है मुझे


लेकिन संघ की कई नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखता हूँ। बजरंग दल, शिवसेना, श्रीराम सेना, और कभी कभी भाजपा की टुच्ची हरकतों पर जितना खून मेरा खौलता है, उतना नेट पर मौजूद इन मौलानाओं का नहीं खौलता होगा, मुझे इस बात का पूरा यकीन है। मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होती यह बताने में, कि मेरे दोस्त उमैर की माँ मेरी माँ से अच्छी दाल बनाती हैं। मुझे उसके मुँह का निवाला छीनकर खाने में भी कोई गुरेज नहीं, क्योंकि मजहब से पहले मुल्क़ के बारे में वह भी सोचता है, मैं भी।

बीस दोस्त सर्दियों में वैष्णो देवी जाने का कार्यक्रम बनाते हैं। उनमें से एक जुनैद अहमद भी है.. शायद सबसे ज्यादा रोमांचित। इससे पहले कइयों के साथ पूर्णागिरि माता के दरबार भी जा चुका है।

होली में गाँव के शिवाले में आनन्दमग्न इजहार मुहम्मद के हाथों की थाप जब ढोलक पर पड़ती है, और मुँह से बोल फूटते हैं..”सिरी गिरिराज किसोरी, श्याम संग खेलत होरी”, तो वह मेरी नजर में तोगड़िया और उमा भारती जैसों से लाख दर्जे उपर उठ जाता है। बावजूद इसके कि वह पाँच वक्त का पक्का नमाजी है। इन्हीं जैसे मुसलमानों की जान बचाने के लिये मेरे पिता के नेतृत्व में ‘बाँसपार मिश्र’ गाँव के लोग योगी आदित्यनाथ और हिन्दू युवा वाहिनी के काफिले के सामने सीना तानकर खड़े हो जाते हैं। बावजूद इसके कि योगी के प्रखर राष्ट्रवाद के सभी कायल हैं, बावजूद इसके कि इजहार की ही क़ौम के किसी पिशाच ने 12 साल की बच्ची…………

लखनऊ महोत्सव 2005 में अहमद हुसैन-मुहम्म्द हुसैन बन्धुओं का कंसर्ट सुनने पहुँचता हूँ। चार घंटे दिसम्बर की ठंडी रात में ओस में भीगते हुए— “चल मेरे साथ ही चल, ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल” जितना असर छोड़ता है, उससे कहीं ज्यादा तब, जब वे कंसर्ट की शुरुआत करते हैं गणेश वन्दना से- “गाइये गणपति जग वन्दन”। कंसर्ट के बाद मैं ऑटोग्राफ़ लेने के लिये अपनी डायरी आगे करता हूँ। हुसैन बन्धु अचकचा जाते हैं- उन्हें आदत नहीं है इसकी। अहमद हुसैन निरक्षर हैं, मुहम्मद को सिर्फ़ अपना नाम लिखने आता है, वह भी उर्दू में। पूछता हूँ- गणेश वन्दना कैसे पढ़ पाते हैं! बेहद शर्मीले अहमद हुसैन मुस्कराकर जवाब देते हैं- फारसी लिपि में लिखकर मुहम्मद ने याद किया, उन्हें करवाया।

ग़ुलाम अली हाजी हैं, लेकिन एक बार शराब जरूर पीते हैं- किसी कंसर्ट में कालजयी “हंगामा है क्यूँ बरपा” गाने से पहले। पूछने पर कहते हैं- बिना सुरूर के यह ग़ज़ल ऑडियंस को चढ़ेगी नहीं..। ग़ज़ल की शुरुआत में यह भी जोड़ देते हैं- “जाम जब पीता हूँ, तो मुँह से कहता हूँ बिस्मिल्लाह/ कौन कहता है कि रिन्दों को ख़ुदा याद नहीं”

स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ पाँच वक्त के पक्के नमाजी होने बावजूद संकटमोचन और बाबा विश्वनाथ के प्रेम में अपने सुर-पुष्प अर्पित कर सकते हैं, मौलाना कल्बे सादिक़ कुम्भ में डुबकी लगा सकते हैं, कलाम साहब गीता पढ़ सकते हैं तो आम भारतीय मुसलमान अपने चहक चूतिये* उलेमाओं (उल्लूमाओं) के चूतड़ों पर चार लात जमाकर एक समरस समाज की संकल्पना में भागीदार क्यों नहीं हो सकते? उनका इस्लाम कहाँ खतरे में पड़ जाता है?

मुझे कल्बे सादिक़ के भारतीयत्व पर कोई शक़ नहीं, शक़ है इन इस्लाम के रहनुमा बने हाजी याक़ूब क़ुरैशी, अन्तुले और रूबिया सईद जैसों पर।

रही बात ब्लॉगजगत की, तो सारा गुबार बस इतने से ही निपटाना चाहूँगा कि तीन ठलुओं की किताबें ‘स्क्रिब्ड’ पर अपलोड कर, मरे हुओं के इस्लाम कुबूलने की खबरें छापकर और किसी सनकी (खल)नायक की रटन्तु विद्या को यहाँ वहाँ से कॉपी-पेस्ट कर डालने से इस्लाम का घंटा भला नहीं होगा, इस्लाम का सच्चा भला चाहते हैं तो सहिष्णुता सीखें, अपने पिछड़े-अनपढ़ भाइयों को दुनियावी तालीम दें, और देश को मजहब से पहले रखना सीखें। और इतना जरूर याद रखें-

इन फ़सादात को मजहब से अलग ही रखो

क़त्ल होने से शहादत नहीं मिलने वाली


ठेलनोपरांत:

#1: यहाँ पर चूतियों का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है-

A) चहक चूतिया: जिसकी बातों से चुतियापा टपकता हो।

B) चमक चूतिया: जिसकी शक्ल से ही चूतियापा झलकता हो।

C) चटक चूतिया: जिसके अंग-प्रत्यंग में चूतियाप व्याप्त हो।

#2: जब यह पोस्ट पब्लिश होगी, तब मैं अपनी अग्रजा शाम्भवी के शुभ विवाह में व्यस्त हूँगा, अस्तु किसी प्रश्न-प्रतिप्रश्न का उत्तर नहीं दे पाऊंगा। आपसे निवेदन है कि प्लेटॉनिक आमंत्रण स्वीकार करें, तथा नवदम्पति को शुभाशीष दें- “अजितशाम्भवीभ्याम सर्वान देवान शुभाकरान


रोटी-पानी-बिजली-सड़क चाहिये, या पेशाब के बाद सुखाने के लिये ढेलों पर सब्सिडी ? (वहाबी आंदोलन के बहाने)

कल के ‘द हिन्दू’ में एक लेख पढ़ा। प्रसिद्ध विधिवेत्ता राम जेठमलानी ने नई दिल्ली में आतंकवाद पर हुए कानूनवेत्ताओं के एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में ‘वहाबी आन्दोलन’ और उग्रवाद में तार जोड़ने की कोशिश क्या की, सउदी राजदूत फैसल-अल-तराद ऐंठकर वॉकआउट कर गये। बाद में विधिमंत्री वीरप्पा मोइली को यह स्पष्टीकरण देना पड़ा कि यह भारत सरकार के आधिकारिक विचार न समझे जायें। पूरा लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

मैं ऐसे किसी विषय पर लिखना नहीं चाहता था, जिससे विवादों की बू आये। विगत कई दिनों से
ब्लॉगजगत में चल रहे काल-कलौटी (कीचड़-मिट्टी-गू उछालने) और ‘मैं’ की प्रवृत्ति को तुष्ट होते देख रहा था। हँसी आती थी कि इन्हें बचपन में मम्मी ने शायद ‘कॉम्प्लान’ नहीं पिलाया, तभी आज भी ‘बड़े’ (मानसिक रूप से) नहीं हो पाये। लेकिन अब तो हद ही हो गई। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी अब कुट्टी-कुट्टी होने लगी।

दु:ख इस बात का है कि मोइली साहब को यह वाहियात स्पष्टीकरण देने की जरूरत क्यों आन पड़ी? मरहूम मुहम्म्द इब्न अब्द-अल-वहाब से ही धर्मचक्र प्रवर्तन की शिक्षा लिये उनके शागिर्द आज जो ‘क़त्ताल’, ‘कुफ़्र’, और जिहाद-जिहाद खेल रहे हैं, वह क्या किसी से छुपा है??

सुधारवादी आंदोलनों की प्रवृत्ति अंतर्मुखी होती है- होनी चाहिये। सनातन धर्म में सतत सुधार के लिये जगह है। व्यक्तिगत अवधारणाएं हैं। कुरीतियां भी हैं, भले ही ज्यादातर सामाजिक हों। इतना कुछ है, इसलिये सुधार भी हैं। स्वामी दयानन्द ने कभी कहा था- “हमारे समाज की परंपरा थी कि कुप्रथाओं को, ग़लत कार्य करने वालों को, कुरीतियों को सड़ी उंगली की तरह काट कर फेंक दिया जाता था। यह वाजिब भी था। जबसे हमने गलितांग को अपना ही अंग मानकर काट फेंकने से इनकार किया है, तबसे यह विष समूचे शरीर में व्याप्त हो गया है।”

लेकिन कभी इन कुरीतियों का जिम्मेदार बाहरी कारकों को मानकर अपना पल्ला झाड़ लेने की कोशिशें नहीं हुईं। कभी अपने को घोंघे के कवच में क़ैद कर दुनिया को अपना दुश्मन मानने का प्रयास नहीं किया गया।

लेकिन वहाबियों ने अपने धर्म के पिछड़ेपन का जिम्मेदार ख़ुद को छोड़कर पूरी दुनिया को माना। भारत में इनके इतिहास का विवेचन करें तो पता चलता है कि सिख राज्य, जिसके अंतर्गत ये आते थे, के खिलाफ़ इन्होंने जिहाद छेड़ा था। जीर्ण-शीर्ण सिख राज्य वैसे ही पतन की कगार पर था। अंग्रेजों के दो धक्कों में भहरा गया। पंजाब के विलय के बाद जिहाद का मुँह अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ मोड़ दिया गया, जिसकी वजह से इन्हें तथाकथित रूप से देशभक्ति का तमगा मिल गया। लेकिन जब सिखों से कई गुना सशक्त और परिमार्जित सैन्य वाले अंग्रेजों ने इन्हें कुत्तों की तरह दौड़ा कर मारना शुरु किया, तो बड़ी मुश्किल से इन्हें मस्जिदों में पनाह मिली। वहाबियों ने स्वधर्मियों पर भी कोई कम जुल्म नहीं ढाये। यहाँ तक कि पैगंबर मुहम्मद की क़बर भी खोद डाली गई, ताकि उसपर भी मजार न खड़ी हो जाय।

और इसी गौरवशाली(?) विरासत का दंभ भर रहे सउदियों को आईना दिखाना बहुत बुरा लगता है, क्योंकि उसमें उनकी सच्ची और विद्रूप शक्ल प्रतिबिम्बित होती है। मुस्लिम जगत को यह बात आँख-कान खोलकर देख-समझ लेनी होगी कि पेट्रो-डॉलर में आकंठ डूबे ये शेख-सुल्तान इस्लाम की तरक्की के लिये क्या कर रहे हैं?

ये माइल-हाई टॉवर बना रहे हैं, पॉम आइलैंड बना रहे हैं, शारजाह-अबूधाबी में बैठकर मैच फिक्सिंग के रैकेट चला रहे हैं, घुड़दौड़ में पैसे लगा रहे हैं, आदि आदि…

और मजहब की तरक्की के लिये सिमी और हूजी जैसे संगठनों को आर्थिक मदद से महराजगंज, सिद्धार्थनगर, आजमगढ़, लखीमपुर, बहराइच जैसे भारत-नेपाल सीमा से सटे इलाकों में धड़ाधड़ मदरसे खुलवा रहे हैं। ये मदरसे क्या सिखा-पढ़ा रहे हैं, यह ‘जगजाहिर रहस्य’ है। एक पूरी की पूरी पीढ़ी ख़म की जा रही है शाने-ख़ुदा में।

भले ही नाइजीरिया, अंगोला, सोमालिया में लाखों मुसलमान भूख से मर जायें, कोई शेख अल्लम इब्न सल्लम एक धेला वहाँ उनकी रोटी के नाम नहीं दे सकता वर्ल्ड फूड प्रोग्राम में। कहाँ चली जाती है ‘मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा’ की इक़बालिया बाँग??

मुस्लिमों के पास विकल्प है- मुख्यधारा में आने का। लेकिन पहले उन्हें इन उलेमाओं को आईना दिखाना होगा। उन्हें तय करना होगा कि रोटी-पानी-बिजली-सड़क चाहिये, या पेशाब के बाद सुखाने के लिये ढेलों पर सब्सिडी छुई-मुई न बनें, सीना तान कर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हों। किसी अब्दुल कलाम को, अल्ला रक्खा रहमान को, ज़हीर खान, आसिफ इक़बाल को राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देने की जरूरत नहीं है; किसी आम मुसलमान को भी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। मुस्लिमों को यह प्रमाण अपने बात-बेबात फतवे देने वाले उलेमाओं और मुफ़्तियों से माँगना चाहिये।

एक ईमानदार कोशिश जारी है इंट्रोस्पेक्शन की। एक मर्द मोमिन है। खुद को उम्मी कहता है। खुलकर सामने आ जाये तो नेट पर मौजूद मौलाना लोग उसके सर पर भी ईनाम रख देंगे। लोग उसे काफ़िर तक कह गये, लेकिन डटा हुआ है। उस शख्स के हौसले को सलाम कीजिये…… हर्फ़-ए-ग़लत।

ठेलनोपरांत: एक पारिवारिक आयोजन में व्यस्तता के कारण अभी कुछ दिन अनियमित रहूँगा। यह पोस्ट भी स्वयं टाइप नहीं कर पा रहा, ।आपकी पोस्टों पर टिप्पणी तो दूर की बात है। क्षमाप्रार्थी हूँ।

एक बात और... गिरिजेश जी को धन्यवाद! हर्फ़-ए-ग़लत तक ले जाने के लिये

हजार रुपये का चालान, 45 रुपये की ब्रांडी और बर्फ़ का नामोनिशान नहीं…. लब्बोलुआब- मनाली मत जइयो गोरी राजा के राज में।

बहुत देर से सोच रहा था कि क्या शीर्षक रखूँ। फाइनली ये ग़दर शीर्षक दिमाग में भक्क से चमक उठा और हमने उसे यहाँ ला धरा।

सबको दुआ-सलाम। इतने दिन से गायब रहने के कारण दो थे- एक गोबरपट्टी में बसे अपने गाँव की यात्रा, दूसरी लौटते ही बर्फ़पट्टी© में बसे मनाली की यात्रा।

DSC00721असल में बारहवीं में गणित पढ़ने के जुर्म में बी.टेक. करने की जो सजा मिली, वो माशाअल्लाह ख़त्म होने के कगार पर है। तो हमने भी सोचा कि पारी के सेकेंड लास्ट ओवर में यार-दोस्तों के साथ कहीं घूम आयें। लेकिन पता नहीं किस बीरबावन घड़ी में प्रोग्राम बनाया था! सब कुछ फ़रिया जाने के बाद निकलने के एक दिन पहले किसी ब्लूस्टार कंपनी का नोटिस आया कि आपके कॉलेज के बी.टेक. बेरोजगारों की गिनती में कुछ कमी करने के इच्छुक हैं…. चिरंतन ग्रीष्म के पश्चात सावन की पहली फुहार की तरह आई प्लेसमेंट की आकांक्षा ने आर्थिक मंदी की मार में झुलसे दारुण, दुःख विगलित हृदयों पर अपनी कृपादृष्टि फेरी तो सालों के भूखे-नंगे अनप्लेस्ड बन्धु फेशियल कराके क्लीन शेव हो अपनी-अपनी सीवी में लिखाने लगे…To Carve a Niche In Your Prestigious Organization …..

DSC01113परम दलिद्दरई की घनघोर कालिमा में साक्षात भगवान अंशुमालि की तरह उदित इस दैदीप्यमान कंपनी के शुभागमन की सूचना ने 39 यायावरों की लिस्ट से 17 के पत्ते काट दिये। टूर तो कैंसिल होना नहीं था, बस पर-हेड बजट ड्यौढ़ा हो गया।

लेकिन इन सत्रह नसुड्ढों की हाय ऐसी लगी कि कस्सम से पूरा टूर सत्यानाश हो गया।

चरण १: बरेली से चंडीगढ़

बहुत आलीशान यात्रा रही। शहर से बाहर निकलते ही ग़दर ट्रैफिक जामDSC00777 मिला। तीन घंटे इस जाम में ही निकल गये। उसके बाद किसी तरह भोर होते होते बिजनौर पहुँचे, तो वहाँ से चंडीगढ़ की 200 किमी की यात्रा में ‘पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि’ ड्राइवर ने 10 घंटे लगाये। कुल मिलाकर शाम के पांच बजे पंचकुला के ‘गुरुद्वारा नाढा साहिब’ पहुँचे। अब इसे हमारी Austerity Drive समझिये या बजट बचाने की कवायद, 39 से 17 होते ही सारे पड़ाव होटल से गुरुद्वारों में, और सारे रेस्त्रां-भोज लंगर में तब्दील हो चुके थे।

खैर, दर्शन करने और प्रसाद पाने के बाद चंडीगढ़ घूमने निकले तो पता चला कि सारे गार्डन बंद हो चुके हैं। बचा एक सेक्टर घूमने का कार्यक्रम तो हमें बताया गया था कि सेक्टर सेवेनटीन घूमना, और यहाँ ड्राइवर अड़ गया कि उसे सिर्फ़ सतारा घुमाने को कहा गया था। बड़ी जद्दोजेहद के बाद पता चला कि पंजाबी में सत्रह को सतारा कहते हैं।

चंडीगढ़ में प्रसिद्ध है कि शाम को राशन से पहले ठेके की दुकान खुलती है, वो भी शेष भारत से लगभग आधे दाम पर। DSC00746फिर क्या था, सतारा में बस रुकते ही दिन भर के प्यासे चकोरों का झुंड लक्ष्य की तरफ भागा। स्वाति की पहली बूँद हलक के नीचे उतरी भी नहीं थी कि एक ठुल्ले (पुलिसवाले) ने सारे तृषार्त बन्धुओं को धर दबोचा। पता चला कि बेटा ये यूपी नहीं है जहाँ सड़क को शौचालय बनाओ या मधुशाला, कोई फ़िक्र नहीं। चंडीगढ़ में सार्वजनिक स्थानों पर धूम्र-मदिरा-पान पर सख्ती से रोक है। इस सच्चाई से रू-ब-रू होने में बच्चों के हजार-हजार रुपये लगे। फिर तो उन्होंने कितनी भी पी, नशा हुआ ही नहीं।

जिन्हें खाना था वे खाकर, और शेष लोग पीकर आगे की यात्रा के लिये सवार हुए। यह तय हुआ, कि लौटानी में समय रहा तो चंडीगढ़ फ़िर घूमेंगे।

चरण २: चंडीगढ़ से मनाली

लगभग 350 किमी की यात्रा ड्राईवर साब ने १० घंटे में पूरा करने का वचन दिया। सड़क बहुत बेहतरीन थी। रात में अहसास ही नहीं हुआ कि बस चल भी रही है। सुबह उठने पर पता चला कि वाकई चल नहीं रही थी। सबको सोता देखकर पेचिश-आंत्रशोथ आदि बहु-बीमारी पीड़ित ड्राईवर साब ने भी चार घंटे की नींद मार ली।DSC00799

हिमाचल के पहले जिले मंडी में एक ढाबे पर सुबह का नाश्ता इत्यादि करते हुए सभी शाम ५ बजे मनाली पहुँचे। भूख से आंते सिकुड़ गईं थी। होटल में नहा धोकर सब खाने-पीने निकले। लेकिन उन 17 नसुड्ढों की हाय ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा। पता चला कि एक प्रागैतिहासिक मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ है, जिसके उपलक्ष्य में समूचा शहर बंद है और सभी लोग विशाल भंडारे में भोजन करेंगे। जिसे जल्दी है, या भंडारे में सड़क पर पालथी DSC00879मारकर सुबह से बिखरे हुए चावल-सब्जियों के ढेर में बैठकर नहीं खा सकता, वो भूखा मरे। वा ह रे गुंडागर्दी…….

सॉफीस्टिकेटेड लड़्कियों ने अखबार दिये- बैठने को भी, बिछाने को भी। तब जाकर कहीं युगों की क्षुधा शांत हुई। पर सच्ची में, खाना कतई चीता बना था। मजा आ गया। रात्रि विश्राम हुआ। तय हुआ कि अलस्सुबह रोहतांग के लिये निकल चलेंगे।

चरण ३: मनाली से रोहतांग

मनाली से रोहतांग करीबन DSC0089755 किमी दूर है। भारत और चीन के बीच प्राचीन रेशम मार्ग (Silk Route) का एक महत्वपूर्ण पड़ाव। भारत को तिब्बत से जोड़ने वाला दरवाजा- रोहतांग दर्रा। मनाली के आगे केवल विशेष टूरिस्ट बसें, ट्रैवेलर या स्कॉर्पिओ जैसी गाड़ियाँ जाती हैं। लगभग दो घंटे का रास्ता, लगातार चलते रहे तो।

रास्ते में एक जगह भू-स्खलन की वजह से रुकना पड़ गया। जेसीबी अपना काम कर रही थी। मेरी नजर आसपास के पत्थरों पर पड़ी। स्थानीय लोग इन्हें चाँदी के पत्थर कहते हैं। बेहद चमकदार सोने-चाँदी जैसे पत्थर, और DSC00999रेत भी उतनी ही महीन चमकदार। एस्बेस्टस और मैंगनीज से भरपूर। इतना ज्यादा मिनरल-कंटेंट कि पत्थर तो लगे ही नहीं। लोगों ने बताया कि अभी यहाँ कहाँ, असली खजाने तो लद्दाख में हैं। समझ में आया कि इस इलाके पर चीन की लार क्यों टपक रही है! सोचा कि एकाध पत्थर उठाकर घर ले चलूँ, लेकिन हिमाचल प्रदेश पर्यटन निगम इस मामले में बहुत सख्त है। यह सोचकर रख दिया कि कहीं लेने के देने न पड़ जायें।

मुख्य रोहतांग पर तो बर्फ़ के नामोनिशान नहीं थे। इससे ज्यादा बर्फ़ तो रास्ते में थी। जमे हुए झरने, नदियाँ। पता चला DSC00992कि चार दिन पहले उपर के पहाड़ों पर बर्फ़ गिरी है। फिर क्या था! नि कल लिये उपर की तरफ। वहाँ बर्फ के दर्शन हुए। पर्याप्त बर्फ़ थी। दो-एक घंटे बर्फ़ के गोलों से लड़ाई भी हुई। मन अघा गया लेकिन असलहे ख़त्म नहीं हुए।

जबर्दस्त ठंड थी वहाँ। चटख धूप में भी हाथ-पैर गल रहे थे। दो-चार भाई लोगों ने मनाली से ली हुई ब्रांडी के घूँट लिये, तो बर्फ़ हाथों में आकर पिघलने लगी। अपने साथ तो यह सुविधा भी नहीं थी..

DSC01082कहते हैं बी.टेक. 3 B के बिना अधूरा है। (B)ike, (B)eer, और (B)abe. वतन से इतनी दूर बाइक का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। एक मोपेड थी तो वह घर पे जंग खा रही है। दूसरी B या उसके वैरिएंट आजमाने की हिम्मत आज तक नहीं हुई। रही बात तीसरी B की तो वो अभी अंडर-कंसिडरेशन है। तो मसला ये हुआ कि हम कोई रासायनिक क्रिया तो करते नहीं इसलिये भाई लोग हर दस मिनट पर मुझे हिला-हिलाकर चेक करते रहे कि भइया हो ना…….

सारी स्नो-फाइटिंग के पश्चात वापस मनाली लौटे। रात्रि विश्राम के पश्चात सुबह वापस चंडीगढ़ लौटने का कार्यक्रम था।

चरण ४: मनाली से बरेली

यात्रा के इस चरण में सुबह छः बजे निकलकर शाम 3 बजे तक चंडीगढ़ पहुँचने का कार्यक्रम तय था। फ़िर चंडीगढ़ घूमकर रात-बिरात बैक टू पैवेलियन लौटने का कार्यक्रम था। लेकिन बुजुर्गवार ड्राईवर की कृपा सेDSC01116 यह सब संभव नहीं हो सका। चंडीगढ़ पहुँचते पहुँचते फिर 5 बज गये। सौभाग्यवश एक पिंजौर गार्ड्न घूमने को मिल गया। और उन 1 7 नसुड्ढों की हाय फिर लगी। गुरुवार की वजह से सारे अच्छे सेक्टर बंद मिले। सो मन मसोसकर वापसी की यात्रा प्रारंभ हुई। चूँकि अगले दिन एक और बुकिंग थी, इसलिये जो रास्ता जाते समय 17 घंटे में तय हुआ था, वापसी में वही चंडीगढ़-बरेली मार्ग 9 घंटे में तय हुआ। लौट के फिर वही कॉलेज, फिर वही कुंजो-क़फ़स, फिर वही सैयाद का घर…

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ठेलनोपरांत: कल पता चला कि ब्लूस्टार ने जिन बच्चों को सेलेक्ट किया था, अब उनसे 25000 माँग रही है ट्रेनिंग के वास्ते। फिर उन्हे तीन महीने 10000 के भत्ते पर रखकर उनके टैलेंट को परखा जायेगा। फिर जो चीते बचेंगे, उन्हें नौकरी दी जायेगी। लब्बोलुआब ये कि वे सारे नसुड्ढ अब प छता रहे हैं कि घूम क्यों नहीं आये। हमें तो बस अटल जी की एक कविता की पहली लाइन याद आ रही है-

मनाली मत जइयो गोरी राजा के राज में..

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राष्ट्रीय पर्व से ड्राई-डे का सफ़र…(भाग-२)

गाँधीजी का मक़सद स्पष्ट था- ब्रिटिश सत्ता से सबसे निचले स्तर पर संघर्ष करना। और गाँधी की सबसे बड़ी असफलता भी यहीं रही।

सत्य तो यह था कि कुटिल ब्रिटिश शासन ने भारतीय जनता का शोषण सीधे नहीं किया, बल्कि सामंतों-जमींदारों जैसे बिचौलियों के माध्यम से। फिर भी किसान की पैरवी करने के बावजूद गाँधीजी उसे जमींदार के ख़िलाफ़ खड़े होने से लगातार मना करते रहे। जब मिदनापुर और गुंटूर के किसानों ने अंग्रेजों के साथ-साथ जमींदारों को भी लगान देने से मना किया*, तो गाँधीजी गृहयुद्ध जैसी स्थिति की कल्पना से भयभीत हो उठे। कईयों की भाँति मेरा भी मानना है कि गाँधीजी ने वर्ग-संघर्ष को मूर्त होने से रोकने के लिये असहयोग आंदोलन को स्थगित किया, चौरीचौरा तो एक साइड रीजन था। यहीं बूर्ज्वा के अलंबरदार होने का ठप्पा गाँधीजी पर कुछ यूँ लगा कि बिरला भवन में मरने के बाद से आज तक धुल् नहीं पाया। और इसका दूरगामी परिणाम यह हुआ, कि आजादी मिलते ही सारे रायबहादुर, रायसाहब, जमींदार, राजे-महराजे प्रिंस सूट को खद्दर से स्विच ओवर कर चरखे पे बैठ गये। अंग्रेजों के जाने के बाद पूर्ण स्वराज की क्रांति की धारा जिनके विरुद्ध मोड़नी थी, वही शासक बन बैठे। गोरे साहब गये तो ‘काले साहब’ गद्दीनशीन हुए। एक अभूतपूर्व क्रांति का ऐसा अभूतपूर्व बंटाधार इतिहास में और कहीं नहीं मिलता।

कुछ लोग मेरी इस बात से असहमत होंगे और सत्य भी है कि ग्राम स्वराज की बात करने वाले गाँधी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनका मुख्य प्रोटेगोनिस्ट किसान इतना मजबूर, इतना मजलूम हो जायेगा। लेकिन मेरा मानना है कि यह भारतीय बुर्जुआ वर्ग को काँग्रेस के साथ जोड़ने के प्रयासों का ही प्रतिफल है कि आज स्थिति पहले से ज्यादा बदतर है। संसाधनों का वितरण इतना असमान और असंतुलित हो गया है कि पचास-एक लोगों के पास इतनी दौलत है कि तीसरी दुनिया के आधे मुल्क़ खरीद लें, तो चालीस फीसदी जनता के पास एक ही रोटी है- तय करना पड़ता है कि सुबह खायेंगे या शाम को।

गाँधीजी को शायद इस भवितव्य का आभास हो गया था। संभवतः इसी कारण उन्होंने काँग्रेस को डिजॉल्व करने की बात की थी। लेकिन अन्य नेताओं में इतना साहस नहीं था। स्वयं नेहरू ने एडविना माउंटबेटन से यह बात कही थी**-

We had lost all our faith in the divine cause of struggle for independence. We were praying that all this may get over soon. We had forgotten the loving caresses, family and all. I don’t think that any of us were ready to be tried and tested again. ” (स्वतंत्रता के लिये संघर्ष में हमारी आस्था समाप्त हो चुकी थी और हम बस दुआ कर रहे थे कि यह सब जल्द खत्म हो। हम स्नेहिल स्पर्श, परिवार और प्रेम भूल चुके थे और शायद ही हममें से कोई पुनः ऐसी परीक्षा देने को तैयार रहा होगा।)

यही हुआ कि थके हुए नेताओं ने जब मिली, जैसे मिली, जिस कीमत पर मिली, आजादी को स्वीकार किया और इतिहास के दृष्टिकोण से नवजात, लेकिन मानसिक रूप से बूढ़ा, आत्मबल-हत भारतीय समाज जैसे-तैसे रेंगता आगे बढ़ने लगा।

यशपाल अपने उपन्यास ‘झूठा सच’ में लिखते हैं कि 1948 में नेहरू जी की पुकार- अब नये सिरे से शुरु करना है/अपनी तक़दीर के मालिक हम ख़ुद हैं/ आदि राष्ट्र को उनके समान ही स्वप्न देखने पर मजबूर कर देती थी। लेकिन जब 15 साल बाद भी बूढ़े हो रहे नेहरू जी के शब्द नहीं बदले, तो समझ में नहीं आया कि धोखा कहाँ हुआ ! और तबसे आजतक ६० साल में भी कुछ भी तो नहीं बदला। नये सिरे से शुरुआत कभी नहीं हो पाई, और देश की जनता की तक़दीर आज भी उच्चवर्ग और नेता की दुरभिसंधि में कहीं बंधक है।

कहीं सुना था कि एक सच्चे महात्मा के पीछे हजारों पाखंडियों की भीड़ होती है। गाँधीजी के चेलों ने उनसे नैतिकता, चरित्र, पारदर्शिता, संयम और आत्मबल भले ही न सीखा हो, लेकिन लड़्कियों के कंधे पर हाथ रखना और गाल थपथपाना जरूर सीख लिया है। एक दार्शनिक विचारधारा की ऐसी ही परिणति होगी, अगर उसे सच्चे उत्तराधिकारी न मिल सके।

आज गाँधी नहीं हैं लेकिन विचार ज़िन्दा है। गाँधीवाद न सही, गाँधीगिरी ही सही। दिलों में न सही टी-शर्ट पे ही सही, उनकी तस्वीर अँकी तो है। लेकिन गाँधीजी जो प्रश्न हमारे लिये छोड़ गये थे, हम आज तक उनके समीकरण ही नहीं बना पाये हैं। गाँधी को राष्ट्र्पिता का दर्जा देकर हमने उन्हें पूजनीय तो बना दिया है लेकिन हमारे पापों के लिये अपना खून बहाने वाले उस शख़्स के चरित्र से, यहाँ तक कि उनकी गलतियों से जबतक यह देश सबक नहीं लेगा, इंडिया और भारत के बीच की खाई चौड़ी होती ही जायेगी। (..समाप्त)

सन्दर्भ: * इंडिया टुडे (आर.पी. दत्त)

** एडविना एंड नेहरू (कैथरीन क्लैमां)

ठेलनोपरांत- राजीव गाँधी अगर दो साल और जी लिये होते तो हमारे गाँव में भी इंटरनेट कनेक्शन होता। लिट्टे (अल्लाह मियाँ उन्हें जन्नत नसीब करे) की साजिश के चलते अगले दस दिनों के लिये सम्पर्क टूट रहा है। पटाखे फोड़ने हर साल की तरह इस साल भी गाँव जा रहा हूँ। देखते हैं इस साल महँगाई का गेहूँ की बालियों की खुशबू पर क्या असर पड़ा है।

राष्ट्रीय पर्व से ड्राई-डे का सफ़र..(भाग-१)


आज उस शख्स पर कुछ लिखने का मन कर रहा है, जो व्यक्तित्व की सीमाओं से परे उठकर एक विचारधारा, एक ‘वाद’ बन चुका है। जिसे दो महाद्वीपों की जनता ने एक काल में पूजा, दो देशों की संसदों ने जिसे धर्म प्रचारकों ईसा, हजरत, बुद्ध के बाद गुजरी सहस्राब्दि तक का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व घोषित किया; फिर भी जिसका फंतासी चरित्र इतना विवादास्पद और विरोधाभासी रहा कि उसकी मृत्यु के ६० साल बाद भी हम आज तक तय नहीं कर पाये कि कि क्या गाँधी सचमुच ‘महात्मा’ थे..?

मैं तो उस पीढ़ी की पैदाइश हूँ, जिसमें गाँधी को गाली देना एक आम फैशन है। वह पीढ़ी जो अस्तित्व के अभूतपूर्व संकट का सामना कर रही है। जो अभी तक यह तय नहीं कर पाई है कि गियर कैसे बदला जाय कि मूल्य, भावनाएं और विरासत पीछे न छूट जायें.. और सबसे बढ़्कर, इस सफ़र में उन्हें साथ ले चलना भी है या नहीं!

व्यक्तिपूजा मुझे बिलकुल बर्दाश्त नहीं. इसलिये मैं गाँधीजी को अतिमानवीय नहीं मान सकता। आम आदमी की तरह गाँधीजी के चरित्र में भी खामियाँ थीं, कुछ तो बेहद बड़ी। इसके बावजूद गाँधी का समग्र मूल्याँकन एक ऐसे चरित्र को सामने लाता है, जिसमें अच्छाइयों ने चरित्रगत दोषों को ढकने में सफलता प्राप्त की है।

गाँधी की सबसे बड़ी सफलता इसीमें थी कि उन्होंने ३० करोड़ दबे-कुचले, शोषित, भीरू और स्वभावतः कायर लोगों के मुल्क को आत्मबल, अहिंसा और सत्याग्रह जैसे अमोघ अस्त्र दिये। वरना यही मुल्क है जिसे १८५७ की सशस्त्र क्रांति को प्रथम स्वातंत्र्य संघर्ष का नाम देने को लेकर अब भी मतभेद है। मुझे नहीं लगता कि सदियों से कुचली, आत्मगौरव विस्मृत जनता का 0.001 फ़ीसदी तबका भी सशस्त्र क्रांति के तरीकों को सलीके से सब्स्क्राइब कर सकता था। क्रांति सिर्फ हथियार उठाने से ही संभव नहीं हो जाती, अपितु उस हथियार की विचारधारा को भी आत्मसात करना होता है। वरना क्या कारण है कि भगत सिंह को ‘बम की फिलासफी’ नामक पर्चा लिखना पड़ा। क्या कारण है कि एक समय राष्ट्र की सर्वोत्कृष्ट मेधा द्वारा पोषित नक्सली विचारधारा राह भटककर आंतरिक शांति के लिये सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। कानू सान्याल से छत्रधर महतो के सफ़र में हथियारों की सॉफीस्टिकेशन तो बढ़ी है, लेकिन विचारधारा का अभूतपूर्व ह्रास हुआ है। सशस्त्र क्रांति और आतंकवाद के बीच एक बड़ा महीन फ़र्क होता है- विचारधारा का।

मुझे नहीं लगता कि तत्कालीन जनता इस फ़र्क को तमीज से समझ पाती। इसीलिये इस मुल्क़ को गाँधीवाद की सख्त जरूरत थी।

और यही वजह थी कि देश ने गाँधीजी को हाथोंहाथ लिया, सर-आँखों पर चढ़ाया, और यही गाँधी की कमजोरी भी बना। गाँधीजी ने कभी बहुजन की बात नहीं की, सर्वजन की बात की। इसीलिये उन्होंने ख़िलाफ़त जैसे सांप्रदायिक आन्दोलन का समर्थन किया। जिन्ना, रहमत अली, शौक़त अली और सुहरावर्दी जैसे वैमनस्य के बीजों को पनपने का मौका दिया और उस छोटे से तबके के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाकर नासूर को कैंसर बन जाने दिया। किया तो उन्होंने यह सब येन-केन-प्रकारेण राष्ट्रीय एकता को बरकरार रखने के लिये। दोनों समुदायों को किसी भी प्रकार संयुक्त परिवार की तरह रखने के लिये। लेकिन बात बेहद बढ़ जाने तक शायद वे यह नहीं समझ पाये कि कैंसर का इलाज़ वैद्य या हक़ीम के पास नहीं, शल्य-चिकित्सक(Surgeon) के पास होता है। काश उस समय गाँधीजी ने बहुजन की कीमत पर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को बढ़ावा नहीं दिया होता तो मुल्क़ की तस्वीर आज कुछ और होती।

(जारी….)

7 महीने 16 दिन बाद…

27 जनवरी-12 सितम्बर.. 7 महीने से उपर हो चुके कुछ लिखे; और आज न लिखने का व्रत तोड़ बैठा।

ऐसा नहीं है कि कुल जमा 17 पोस्टों में अपनी समस्त सोच उड़ेलकर खाली हो गया था इसलिये किनारा कर लिया। ऐसा भी नहीं है कि आज्ञाकारी बालक की तरह ‘काकचेष्टा बकोध्यानम’ में तल्लीन हो गया होऊँ।

कहीं सुना था कि सबसे बड़ी तकलीफ़ आस्था टूटने की होती है। और जब किसी और में नहीं, स्वयं में आस्था भंग होने लगे तो क्या किया जाय, इस प्रश्न पर क्या कभी किसी ने विचार किया?

स्वयं में आस्था का भंग होना कोई ऐसी (दु:)घटना नहीं, जो रोज घटती हो। शायद इसीलिये इसका आभास मिलते ही लगने लगता है कि कुछ बहुत ग़लत हो रहा है।

ऐसा नहीं कि मेरे साथ कुछ ऐसा घटित हुआ हो। हाँ, इतना जरूर है कि परिवार, समाज, और अन्य की तो दूर, जब स्वयं की स्वयं से की गयी उम्मीदें भी सार्थक होती न दिखाई दें, ऐसा समय आने-सा लगा था। और उन्हीं क्षणों में निर्णय ले बैठा-‘टू कलेक्ट एंड बर्न एवरीथिंग, एंड अगेन स्टार्ट फ्रॉम एशेज..’। और यही वजह थी इस प्रकार ‘हाइबरनेट’ मोड में चले जाने की।

ख़ैर छोडि़ये, कहाँ से ये फालतू की बातें ले बैठा। असल में बड़े ‘ग्रे’ मूड में ये पोस्ट लिखने बैठा था। अब डर रहा हूँ कि इस आयतुल फारसी को पढ़ने की फ़ुरसत किसके पास होगी! सो अपने स्व में वापस लौटने का प्रयास करता हूँ।

कहाँ तो ब्लॉगजगत को ‘ले लो अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो’ कहकर बंदा पढ़ने-लिखने में मशग़ूल होने का भ्रम पाले बैठा था, कहाँ इतने दिनों बाद क़तई भावुक कर देने वाली पोस्ट और टिप्पणी पढ़कर फिर लकुटि कमरिया उठाने दौड़ पड़ा हूँ। ब्लॉगिंग की शुरुआत में सारथी जी की एक पोस्ट पढ़्ने को मिली थी, जिसमें उन्होंने ब्लॉगरों का वर्गीकरण किया था। पाँचवी श्रेणी के ब्लॉगर वे थे जिनके बारे में कहा गया था कि ये चार दिन की चाँदनी की तरह हैं। मैं भी उसी श्रेणी में गिना जाने लगा होऊँगा, ऐसी उम्मीद है।

ब्लॉगजगत में मेरे पथप्रदर्शक ‘सिद्धार्थ जी’ ने अपनी पहली टिप्पणी में ही कहा था- जितना लिखो, उससे कई गुना ज्यादा पढ़ना। और ऐसा मैनें किया भी। अगर किसी की पोस्ट पूरी ईमानदारी से पढ़कर उसपे कोई सार्थक टिप्पणी न करो, तो अपनी पोस्ट पर किसी की टिप्पणी अगोरने में अपराधबोध महसूस होता था। अस्तु, तीन-चार घंटे दैनिक की ब्लॉगरी के बाद जो बचे-खुचे पलछिन नसीब हुए, उसमें क्या पढ़ें और कितना पढ़ें? ये तो वही बात हुई कि ‘एकै लंगोटी, का धोयें का सुखायें’। हुआ बस इतना कि पाँचवे सेमेस्टर में इकसठ अशारिया छ: फ़ीसद नम्बर पाकर टापते रह गये। अब्बा हुजूर की नश्तर-ए-नजर ने कुछ यूँ भेदा कि ब्लॉगजगत को..‘तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर’

लेकिन नहीं साहब, अब बी.टेक. के चौथे(और आखरी) साल में आकर ब्लॉगरी का चूहा फ़िर से पेट में दौड़ने लगा। और तीन घटनाएं ऐसी हुईं, जिन्होंने कलम में फिर से जान फूँक दी।

पहले दो तो फैमिली मैटर हैं- एक- सत्यार्थमित्र की क़िताब छपकर आना, दूसरी- सिद्धार्थ जी की सारी सफलता का(और सर के लगातार कम होते बालों का भी) राज़ उनकी श्रीमती जी, और हमारी अग्रजा ‘रचना जी’ का उनसे पृथक एक ब्लॉग- ‘टूटी-फूटी’ का निर्माण। ऐसा करके उन्होंने निश्चित ही स्वयं को बेटर-हॉफ़ सिद्ध किया है, लेकिन गर्व इस बात का है कि उनके इस क़दम से ‘सत्यार्थमित्र’ का रंग भी फीका हुआ है। सर्वहारा ने भी शासन में घुसपैठ की है, अब मॉस्को दूर नहीं…

तीसरा तो निहायत ही संजीदा मसला है। हमारे गिरिजेश जी को जाने कहां से हमारे ब्लॉग का पता मिला, और अपने चिठ्ठे पर उन्होंने मेरी तारीफ में जाने क्या-क्या लिख मारा कि मियाँ लोग हमारे ताबूत से भी कीलें उखाड़कर हमें निकाल लाये।

देखिये, मैं गिरिजेश जी को जानता भी नहीं हूँ। यह सिर्फ मुझे एक संजीदा ब्लॉगर सिद्ध करने का कुत्सित प्रयास है, और कुछ नहीं। लंठ जी को कोई ग़लतफ़हमी हुई है। ये दीग़र है कि उनकी इस ग़लतफ़हमी का हमने काफ़ी फायदा उठाया। उस पोस्ट की लिंक सबको सीना फुलाकर ई-मेल की। इस तुर्रे के साथ… हजारों साल नरग़िस अपनी बेनूरी पे रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा..

और हाँ पाबला साहब, आशंकित होने की कोई बात नहीं। हम सर्वथा स्वस्थ-सानंद हैं, ब्लॉग पर तो हलचल होती रहेगी।

जो भी हो, एक पोस्ट तो हुई। भले ही 26 जनवरी से 15 अगस्त हो गये। शेष फिर कभी..

  • ठेलोपरांत- और हाँ, हम केवल शनिवार और रविवार को ब्लॉगिंग करेंगे। बहुत हुआ तो किसी-किसी सोमवार को। देखते हैं ये प्रतिज्ञा कितने महीने/दिन/घंटे चलती है।

किस जन-गण-मन अधिनायक की स्तुति करें..? किस भाग्यविधाता के आगे झंडी लहरायें..?

एक और छ्ब्बीस जनवरी बीत गई। सेना के तीनों अंगों के जवान एक बार और कदमताल मिलाकर चल लिये, उँची इमारतों पर तिरंगा एक बार और फहर गया, मिठाइयां फिर बँट गईं, जन-गण-मन अधिनायक की स्तुति एक बार और हो गई, एक और छब्बीस जनवरी बीत गई।

लेकिन यह गणतंत्र है किसका..? क्या इसी गणतंत्र का सपना देखतीpic हमारे राष्ट्रनायकों की आँखें मुंदी थीं..? उनसठ साल पहले ही क्या हम ग़लत रास्ते पर चल पड़े थे या इन लम्बी, अँधेरी, कुहासे भरी राहों में कोई मोड़ जो लेना था, वह छूट गया..? कुछ तो ग़लत है वरना मेरे आगे ये दीवार कैसी..? कोई रास्ता क्यों नहीं सूझता..?

कालाहाँडी और पलामू के आदिवासी जो भूख मिटाने के लिये बच्चे बेच रहे हैं, बन्दर-साँप-चूहे और पेड़ की पत्तियाँ खा कर गुजारा कर रहे हैं वे किस जन-गण-मन अधिनायक की स्तुति करें..? खेलने-कूदने की उम्र में जो हाथ प्लेटें साफ कर रहे हैं, पटाखे बना रहे हैं, दुकानों में/कालीन उद्योग में ज़िन्दगी गर्क़ कर रहे हैं वे किस भाग्यविधाता के आगे झंडी लहरायें..? निजीकरण के नाम पर फ़ीसें बढ़ाकर, शिक्षण संस्थाओं को दौलतमंदों के नाम आरक्षित कर जिन छात्रों की प्रतिभा दौलत और सियासत के जूतों तले रौंदी जा रही है, वे तव शुभ आशिष माँगें या भविष्य को उज्जवल बनाने के लिये समय रहते हाथों में जस्ते का कटोरा थाम लें..? कहाँ है इनका गणतंत्र..?

मेरा कश्मीरी विस्थापित दोस्त कहता है हमारे बगीचे में जो सेब होते थे, काश तुझे खिला सकता। तब शायद तू समझ पाता ये मेस में मिलने वाले फल सेब नहीं कुछ और हैं.. उमर अब्दुल्ला कहते हैं वादी में ’हिन्दुस्तानी’ सीआरपीएफ़ के चलते कश्मीरी एलियनेशन(alienation) फील कर रहे हैं। शायद मेरे दोस्त को भी फील होता होगा..

तथाकथित ’फ़ेक’ जामिया एनकाउन्टर में मारे गये इंस्पेक्टर शर्मा को अशोक चक्र दिया जाता है। उनकी विधवा राहत की साँस लेती हैं। पतिदेव अब जाकर ’ऑफिशियली शहीद’ हुए हैं। शायद अब सवाल कम हों।

सिर्फ एक अनजाना डर दिखाकर, धर्मभीरुता का फायदा उठाकर एक पूरी क़ौम को रोटी-पानी-मकान-बिजली-सड़क से महरूम रखा गया, नतीजा उनकी रग-रग में कट्टरता लहू के साथ रवाँ है। और आज उनके मजहबी अंधेपन का आलम यह है कि किसी को ग़जा पर हुए हमले पड़ोसी की ब्लास्ट में मौत से ज्यादा तक़लीफदेह लगते हैं। इतना हौवा खड़ा कर दिया जाता है कि देश के सर्वाधिक विकसित प्रान्त को विकास के चरम तक ले जाने वाला करिश्माई, आज की तारीख में राष्ट्रीय नेतृत्व का सबसे ’प्रामिसिंग’ दावेदार उन्हें सिर्फ ’मौत के सौदागर’ के रूप में ही स्वीकार्य है..। 

अठारह घंटे प्रतिदिन काम करके पैसे कमाने वाला एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर जब इनकम टैक्स देता है तो उसे पता नहीं होता कि यह गाढ़ी कमाई राष्ट्रनिर्माण की बजाय चंद सब्सिडी, लॉलीपॉप देने में जाया हो रही है। ग़रीब किसान के नाम पर भू-माफियाओं को, सहकारिता के बड़े मगरमच्छों को 84000 करोड़ का चारा देने में खर्च हो रही है।

एक सरकारी विभाग में कर्मचारी ’भयमुक्त समाज की पहरुआ’ के जन्मदिन पर प्राणों का उपहार देता है। उस आपराधिक मुख्यमंत्री की राजधानी से चुनाव मैदान में विरोधी पार्टी उसे खड़ा करती है जो मुंबई धमाकों का सजायाफ़्ता मुजरिम है। लोहिया, जयप्रकाश, महामाया बाबू की पार्टी आज पूंजीवादियों और सीमा परिहार, मुख्तार अंसारी, और आज़म खाँ जैसों की जेब में है।

गणतंत्र सठिया रहा है। नहीं, अभी तो युवा है। राजनीति ने युवा की परिभाषा ही बदल दी है। मुल्क़ की आधी आबादी 40 वर्ष से नीचे है, उसका नेतृत्व करने के लिये अस्सी साल के युवा दम ठोंककर पाले में खड़े हैं, सभी कह रहे हैं-अभी तो मैं जवान हूँ।

युवा पीढ़ी यौवन में मदमस्त है। भगत सिंह के साथ ब्रिटिश शासन की चूलें हिला देने वाला, जयप्रकाश के साथ भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ बिगुल बजाने वाला युवा आज रोलिंग स्टोन के साथ कूल्हे मटकाने के लिये पुलिस के डंडे खाने को भी तैयार है। जातिवाद, आरक्षण की राजनीति के खिलाफ एक राजीव गोस्वामी संसद के सामने आत्मदाह कर लेता है, तो उसी का समवयस्क शराब न पेश करने पर जेसिका लाल को गोली से उड़ा देता है, प्रपोजल न स्वीकार करने पर प्रेमिका को एसिड से जलाकर मार देता है। वहीं एक लड़की नये प्रेमी के साथ मिलकर पुराने प्रेमी के शरीर के 300 टुकड़े कर देती है।

प्रश्न वहीं है- कहाँ रास्ता भूले हम..? कहाँ से ये दीवार आई सामने..? कहीं सुना है.. हर डेड-एंड से भी एक रास्ता निकलता है। वह है यू-टर्न का। 

क्या वक़्त आ गया है यू-टर्न लेने का..? इज इट टाइम टू कलेक्ट एंड बर्न एवरीथिंग, एंड टू स्टार्ट अगेन फ्रॉम द एशेज टू ग्लोरी..?

शायद कोई और रास्ता है भी नहीं। किसी प्रसिद्ध कवि की पंक्तियां याद आ रही हैं--

भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिये आज भी सजा मिलेगी फाँसी की.
जनता की यदि बात करोगे, तो गद्दार कहाओगे,
बम्म-सम्म की छोड़ो, भाषण दिये कि पकड़े जाओगे..

हम आज तक अपने आप को माफ़ नहीं कर पाये कि भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ, वे कैसे दुनिया से नजर मिलायेंगे जिनके घर-घर में अफ़जल गुरु हैं..........

मैनें खिड़की से बाहर देखा तो रामपुर स्टेशन बीत रहा था। चलो गनीमत है अभी तक तो सही-सलामत चल रही है, अब समय से दिल्ली पहुँचा दे तो सही है।

25 दिसम्बर की सुबह मैं बरेली से दिल्ली कुछ कार्यवश जा रहा था, रात 12 बजे की श्रमजीवी एक्सप्रेस 9 घंटे के विलम्ब के बाद सुबह रवाना हुई थी। बेंच की चौड़ाई के साढ़े चार इंच हिस्से में सो-कर, उंघकर रात बिताने के बाद मैं अपनी आरक्षित बर्थ पर फैला हुआ उसकी चौड़ाई का आनंद उठा रहा था कि मेरे कानों में ये शब्द पड़े।

स्वाभाविक उत्सुकतावश मैनें देखा- एक 50-55 वर्ष की अवस्था के सिख सज्जन एक अन्य बुजुर्गवार से बातें कर रहे थे। बुजुर्गवार की वय 80 से उपर तो रही ही होगी, खादी की जैकेट-कुरता-धोती, माथे पर गाँधी टोपी, खासा प्रभावशाली व्यक्तित्व था दोनों का।

बुजुर्ग सज्जन मेरे साथ ही सवार हुए थे, और मुझे बाद में पता चला कि जिस कूपे में हम तीन यात्रा कर रहे थे उसी में एक सज्जन को धूम्रपान करता देख उन्होंने सहज ही प्रश्न कर डाला-

क्यों भाई, सिगरेट क्यों पी रहे हो?

अचकचाये सज्जन बोले- यूँ ही, बस टाइम पास के लिये।

अरे अगर टाइम पास करना है तो मुझसे गप्पें ही लड़ा लो, क्यों इसपर अपना पैसा भी जाया कर रहे हो और सेहत भी?

उसके बाद उन सज्जन का तो पता नहीं पर सारे कूपे की रुचि बुजुर्गवार में जागृत हो गई उन सिख सज्जन की भी, जो अबतक चुपचाप बैठे हुए थे। उनमें बातें शुरु हो गईं और जब इन्हीं बातों के दरमियान मैनें ये शब्द सुने तो आँखों ने सोने से इस्तीफा दे दिया।

मैं चुपचाप दोनों की बातें सुनता रहा, थोड़ी देर बाद उपयुक्त अवसर पर मैं भी चर्चा में शामिल हो गया। वहाँ जो सुना, वही स्मृति के आधार पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।

बात चल रही थी धार्मिक कट्टरता तथा अल्पसंख्यक(पढ़ें मुस्लिम) तुष्टिकरण की। जब वे सज्जन बोल उठे-

बाबूजी, सन 71 में किसी ने मुझसे सिख की परिभाषा पूछी। मैनें जवाब दिया ’वी आर नो वन एल्स बट द बेस्ट ऑफ हिन्दूज’. जब हमारे हिन्दू धर्म पर संकट आया, तब हमारे दशमेश ने हमें ये बाना दिया। वे भीड़ में छुपकर मारते थे, हमारे गुरु ने हमें सजाया और बोला तुम सामने से लड़ना। वी सिंबलाइज्ड द माइट ऑफ हिन्दुइज्म टू देम एंड डेयर्ड देम टू अटैक ऑन अस, क्लीयरली डिस्टिन्ग्विशेबल इन द क्राउड। हम तो बस अपने हिन्दू धर्म की आर्मी थे।

इसके बावजूद हम आज तक अपने आप को माफ़ नहीं कर पाये कि भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ, वे कैसे दुनिया से नजर मिलायेंगे जिनके घर-घर में अफ़जल गुरु हैं..... वैसे भी भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ था जरूर, लेकिन उसे हमारे उपर थोपा तो आपने ही था। फिर भी हम अपनी ग़लती मानते हैं कि उसकी इन हरकतों के बावजूद हमने उसे डिसओन(Disown) क्यों नहीं किया। मैं तो आर्मी को भी दोष नहीं देता कि अकाल तख्त को चोट कैसे आई! गलती हमारी है कि हमने उस देशद्रोही, पंथद्रोही को अपने हरमंदिर साहिब में घुसने कैसे दिया उस अकाल तख्त पर बैठने की इजाजत कैसे दे दी जिसपर दशमेश भी नहीं बैठे। आपने हमें गाजर-मूली की तरह काटा, स्टेटमेंट दिये कि "बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती तो हिलती ही है.." फिर भी हम ने कोई शिक़वा नहीं किया। हम बस ये सोचते रहे कि कोई दूसरा भिंडरावाले फिर कभी न पैदा होने पाये........

और मैं सोचता रहा अपने नेता की हत्या पर क्रोधित होकर एक पूरी क़ौम का सफाया करने को आतुर हो उठा समाज किन गलियों से गुजरते हुए आज उस मुर्दा हालत में आ पहुँचा है जहाँ आतंकवाद का भी रंग तय होने लगा है। जहाँ ब्लास्ट में सैकड़ों जानें लेने वाले दहशतगर्द सिर्फ़ ’सिरफिरे’ कहला कर बच जाते हैं। ए.के. 47 की गोलियों के मुकाबले ’हीलिंग टच’ की नीति अपनाई जाती है और राष्ट्र की अवधारणा के प्रतीक पर हमला करने वाले गद्दार की फांसी सिर्फ जुमे के नाम पर टाल दी जाती है। आतंकवाद के हर राष्ट्रद्रोही कृत्य को बाबरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया बताने का घिसा-पिटा रेकार्ड अठारह साल बाद भी झाड़-पोंछ कर हर बार चलाया जाता है। कोई यह सोचने की जहमत नहीं उठाता कि अगर सिख अपने उपर हुए अत्याचारों की प्रतिक्रिया करना चाहते तो आज पाकिस्तान के नमकहलाल अन्तुले की कई पुश्तें दोजख़नशीं हो चुकी होतीं, और सोनिया मैडम भी सपरिवार इटली में हवाखोरी कर रही होतीं। क्या किसी को यह नहीं समझ आता कि स्वर्ण मंदिर और अमरनाथ ब्लास्ट की प्रतिक्रियायें अगर होने लगें तो ’प्रपोर्शनेट रिएक्शन’ नाम की कोई चीज़ नहीं होगी। छद्म सेकुलरपंथियों को यह बात जाने कब समझ आयेगी कि हर अहमदाबाद की जड़ में गोधरा होता है।

खैर छोड़िये, विषय से भटकने की आदत होती जा रही है। उन सज्जन ने दिल्ली स्टेशन पर उतरने से पहले एक बात कही थी-

जानते हो, मेरे पिता अविभाजित भारत में लाहौर कालेज में प्राध्यापक थे और बच्चों को आत्मरक्षार्थ बम बनाना सिखाते थे। आजादी के बाद उन्हें सरदार पटेल ने एक रुक्का लिखकर दिया था- "गुरबख्श हिन्दुस्तान की एक बेशकीमती जान है, इसकी हर सूरते-हाल में हिफ़ाजत और मदद की जाय"। मेरे उपर मेरे छोटे बेटे और बीवी की जिम्मेदारी न हो तो मैं तो इस्लामाबाद में मानव-बम बनकर फट जाऊं। और ये जिम्मेदारी खत्म होने दो, कुछ न कुछ तो करुंगा ही।

यह बात मुझे और दुःख दे जाती है। एक शादीशुदा, गृहस्थ के मन में ये जज्बा है। और आज की हमारी पीढ़ी......! मुझे याद आता है टेक्निकल एंट्री स्कीम के तहत रिक्रूट्मेंट के लिये इंडियन आर्मी आती है, कुल 350 योग्य अभ्यर्थियों में से मात्र 32 अपीयर होने पहुँचते हैं। कहीं पढ़ा था- आर्मी में 13000 कमीशंड अधिकारियों की कमी है। समझ में आ जाता है क्यों.......

उन सज्जन का शुभ नाम था श्री गुरमीत सिंह रणधीर तथा सम्प्रति लखनऊ में एक बड़े बैंक में सीनियर मैनेजर(पी.आर.) हैं।

चलते चलते: कल नेताजी का जन्मदिन था। एक व्यक्तित्व जिसने दुश्मन की आँखों में आँखें डालकर देखना सिखाया। इसी आत्मविश्वास की एक खुराक और चाहिये नेताजी......

दयालु सुकुल चाचा, दसविदानिया, 8086 की मैक्सिमम मोड में 8251 से इंटरफ़ेसिंग और बुश को जूते। याने हम हैं ज़िन्दा ये बताने का वक्त आया है..

नमस्कार, सत श्री अकाल, आदाब अर्ज और अंगरेजी वाला हैलो। यह पोस्ट बस ये बताने के वास्ते है कि बंदा अभी ज़िन्दा है और ’वेल इन शेप’ है।

असल में हुआ ये कि कल कई मन्वन्तरोपरांत जब बालक ने अपनी ऑरकुट प्रोफ़ाइल खोली और एक मित्र को कबाड़(Scrap) भेजा तो पलटकर जवाब आया- अरे, अभी तू ज़िन्दा है। आश्चर्य!

तो भईया हमने सोचा कि ग़लतफहमियों को फैलने से बचाने के लिये एकाध ठेलनीय चीज़ का जुगाड़ किया जाय, लेकिन ससुर दिमाग इतना भन्नाया हुआ है कि कौनो आईडिये नहीं आ रहा।

बात यों है कि अपनी खबीस ज़िन्दगानी में हर चार महीने पर मासूमों के शारीरिक और मानसिक शोषण का सरकार द्वारा प्रेरित एक कुत्सित प्रयत्न होता है जिसे हम एंड-सेमेस्टर परीक्षाओं के नाम से जानते हैं। एक बार पुनः उसी कुत्सित साजिश का शिकार होने का मौका आया था जिसने बिलागिंग का भूत तो क्या बड़े-बड़े बरम बाबाओं का भी पानी उतार दिया।

किन्हीं अच्छे दिनों में माँ-बाप का सपना होता था- एक बेटा डाक्टर तो दूजा इंजीनियर। डाक्टरी में तो आज भी गनीमत है, इंजीनियर तो अईसे बे-भाव के पैदा हो रहे हैं कि पूछिये ही मत। बैंगलोर-हैदराबाद में चले जाइये तो देखकर थूकना पड़ता है कि किसी बी.टेक पर न जा गिरे। और अगर गुलाबी पर्चियों का यही दौर जारी रहा तो लाख ढूंढने की कोशिश कर लीजिये, थूकने की जगहिये ना मिलेगी।

पिछ्ले दिनों एक सीनियर पास-आउट से बात हुई। विप्रो में बैठे हैं(अब काम नहीं मिल रहा तो बैठे ही कहे जायेंगे)। चार महीनों से एक सहकर्मिका को ताड़ रहे थे। एक दिन मोहतरमा ने सरप्राइज देने के वास्ते इलू-इलू वाला गुलाबी कार्ड उनकी टेबल पर चुपके से रख दिया। भाई साहब ने देखा तो पछाड़ खाकर गिर पड़े। समझे कि हो गई छुट्टी, आ गया समय झोरा-झंडा बांधकर ’चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है’ करने का। वो तो खोलकर देखा तो जान में जान आई।  अभी ई हाल है तो बाबा वैलेंटाइन की जयंती पर जाने कितने खेत रहेंगे!

तो खैर पँचवी बार इस नरक-चक्र से गुजरना पड़ा।सी आर ओ से खिलवाड़ जब नया-नया बी.टेक ज्वाइन किया था, तो पहली बार CRO देखकर  भी खुशी के मारे सीना गज भर चौड़ा हो गया था, और जब C++ में पहली बार "Hello World" वाला प्रोग्राम बनाया तो सपने में बिल गेट्स और स्टीव जाब्स की कुर्सी भी हिलती हुई दिखाई दी थी। खाली एक सेमेस्टर मैकेनिकल इंजीनियरिंग पढ़नी थी(अपना ट्रेड तो इलेक्ट्रानिक्स था) लेकिन रैगिंग के दरमियान भी छुपते-छुपाते शहर गये और मय एप्रन-ड्राफ़्टर दुनिया भर का साजो-सामान खरीद लाये। तुर्रा यह कि दो-दो सेट खरीदे, ताकि एक के खराब होने की सूरत में वक्त न बर्बाद हो।

ड्राफ़्टर से बमुश्किल पन्द्रह-बीस लाइनें खींची होंगी और दो-तीन बार ही एप्रन पहनकर रन्दा-हथौड़ा चलाया होगा कि पहला सेमेस्टर वीरगति को प्राप्त हुआ।

ड्राफ़्टर का क्या किया जाय, यह दो साल बाद भी यक्षप्रश्न बना हुआ है। अलबत्ता एप्रन पर गणेशवाहन की कृपा देखकर समय रहते पैतृक भृत्य बुन्नीलाल को विंटर-आफर के तौर पर सप्रेम गिफ्ट किया गया। हुए नामवर बेनिशाँ कैसे-कैसे।

इस दुर्घटना के बाद दिल को वह ठेस पहुँची कि फ़िर आज तलक साजो-सामान तो क्या, किताबें खरीदने क विचार भी नहीं आया।

गुरुर्देवो भवःसच तो यह है कि बी.टेक सेमेस्टर-दर-सेमेस्टर व्यक्ति को निस्पृह-निरपेक्ष-निस्पंद रहने का संदेश देता रहता है। तीसरे सेमेस्टर में NS में वो धाक थी कि बड़े-बड़े सूरमा भी अपने आगे चित्त थे। सोचा था राजेन्द्र बाबू के बाद अगला ’इक्जामिनी इज बेटर दैन इक्जामिनर’ पैदा हो चुका है। रिजल्ट आया तो पता चला कि केवल तीन नंबर से बत्ती लगने से बच गये याने तैंतीस नंबर। उसी दिन से सब्जेक्ट विशेष से मोह समाप्त हुआ। पाँचो पेपरों को बराबर टाइम देने लगे, मतलब पढ़ाई ही बंद कर दी। घोर निराशा में चौथा सेमेस्टर दिया तो भी परसेंटेज पर कोई खास फ़रक नहीं पड़ा। फ़िर तो समझो गुरुमंत्र मिल गया।

इस सेमेस्टर में भी खास पढ़ाई नहीं हुई। पढ़ने में सबसे बड़ा नुकसान यह है कि जितनी मेहनत रटने में लगती है, उससे कहीं ज्यादा छः महीने बाद उसे भुलाकर नई चीज़ रटने में। सो भइये हम अपनी हार्ड-डिस्क हमेशा फ़ारमैट रखने लगे।

चलिये भी, क्या रामकहानी शुरू कर दी। खैर, इस बीच तीन ऐसी घटनाएं हुईं कि जी खुश हो गया।

पहली थी- माइक्रोप्रोसेसर के इम्तहान के ठीक पहले देखी गई ’दसविदानिया’। हमारे भूतपूर्व बी.टेक बंधुओं को माइक्रोप्रोसेसर के दुःस्वप्न आज भी याद होंगे। इन्हीं बुरे सपनों के बीच एक खुशनुमा झोंके की तरह आई ’दसविदनिया’. सच्ची मानिये, जी खुश हो गया इतनी खूबसूरत फ़िल्म देखकर। आगे की चर्चा के लिये निकहत क़ाजमी से संपर्क करें।

दूसरी घटना थी- बुश चच्चा के विरुद्ध पादुका-षड्यंत्र। यह बात भी इतनी पुरानी हो चुकी है कि एक पैराग्राफ भी लिख नहीं पा रहा हूँ क्योंकि जानता हूँ आप लोगों के माउस में एक स्क्राल-व्हील भी होगी।

तीसरी युगप्रवर्तक घटना थी अपने अनूप सुकुल जी द्वारा इस नाचीज की(और उसके चेहरे-मोहरे की) तारीफ। आपके सौंदर्यबोध और उपमा अलंकार के घनघोर ज्ञान की क्या बात करें, हम तो आज भी सोचकर लजा जाते हैं। यह दीगर बात है कि हमारे जुल्फ़ें कटवाने के बाद राजेश खन्ना और देवानन्द दोनों ने समर्थन वापस ले लिया और आज की डेट में हम शिबू सोरेन बने घूम रहे हैं। जो भी हो, इस उपमा के लिये धन्यवाद। कामना है कि चौखम्भा सुरभारती का अगला प्रकाशन कालिदास ग्रंथावली न होकर शुक्ल ग्रंथावली हो।

एक-दो-तीन...... कुल ८३ लाइनें हो गईं। चलिये एक पोस्ट का जुगाड़ और हुआ। अब ठेले देता हूँ, किसी को चोट लगे तो आनी मानी दोस।

नये ईसवी वर्ष की मंगलकामनायें

सभी से क्षमाप्रार्थना.... अपरिहार्य कारणों से न तो कुछ नया लिख पा रहा हूँ और न ही आप सबकी पोस्टें पढ़ पा रहा हूँ। जिन्हें पढ़ पा रहा हूँ उनपर टिप्पणी नहीं कर पा रहा। एक साथ कई असमर्थताओं से जूझना पड़ रहा है। परीक्षाओं, वाइवा के साथ-साथ लैपटाप की खराबी और स्वास्थ्य समस्याओं से निबटने के बाद अब सेमेस्टर ब्रेक में अपने गाँव जाना पड़ रहा है जो मेरा प्रिय शगल है, अस्तु मकर संक्रान्ति तक अनुपस्थित ही रहना है, क्योंकि "भाषा में भदेस हूँ, इतना कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ" के पुरबिया गाँवों में अभी टेलीकाम क्रान्ति की बयार इतना खुलकर नहीं पहुंची कि बाँसपार में अंतर्जाल सुविधा का लुत्फ़ उठाया जा सके।

 

खैर, नया वर्ष मुझसे पूछ्कर तो आया नहीं, इसलिये इसके स्वागत में मैं कुछ नया न लिखकर कैलाश गौतम जी की एक ग़ज़ल ही ठेल देता हूँ। लगे हाथ बधाई देने का कोरम भी पूरा हो जायेगा, और न लिख पाने का अपराधबोध भी थोड़ा कम हो जायेगा।

 

नये साल की नई तसल्ली, अच्छी है जी अच्छी है,
दूध नहीं पीयेगी बिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

बातों में मक्खन ही मक्खन, मन में कोई काँटे जी,
आँखों में ये चर्बी-झिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

दाँत गिरे सिर चढ़ी सफ़ेदी, फ़िर भी बचपन नहीं गया,
पचपन में ये कुट्टी-मिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

सूप सभा में चुप बैठा है, देख रहा है लोगों को,
चलनी उड़ा रही है खिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

किसके सिर से किसके सिर, आ गई उछलकर झटके में,
रनिंग शील्ड हो गई दुपल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

रही बात इन गिरे दिनों में, टिकने और ठहरने की
भूसाघर में बरफ़ की सिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

बारूदों, अंगारों, अंधे कुओं, सुरंगों, साँपों को,
झेल रही सदियों से दिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

 

आप सभी को पुनः नव वर्ष की शुभकामनायें... मकर संक्रान्ति के पश्चात मुलाकात होगी।

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