कुछ दिन पहले एक फिल्म देखी.. ऐवेटॉर/या अवतार कह लीजिए शुद्ध हिंदी में। आज मन में आया तो कुछ ठेले देते हैं इसी फिल्म पर।
फिल्म समीक्षा मेरे प्याले की चाय नहीं(Not My Cup Of Tea), न ही मेरा ऐसा कोई उद्देश्य है। लेकिन उस फिल्म के भव्य एनिमेशन और भारी-भरकम तकनीक के पीछे कुछ साँस लेता हुआ सा दिखा मुझे, जिसे यहाँ सबके साथ बाँटना मैनें अपना फर्ज़ समझा.. सामयिक भी है।
फिल्म के निर्देशक हैं जेम्स कैमेरॉन.. यह उनकी तीसरी फिल्म थी, जो मैनें देखी। टाइटेनिक और टर्मिनेटर-द जजमेंट डे के बाद। कैमेरॉन को भव्य फिल्में बनाने का शौक है.. इन फिल्मों का कैनवस इतना बड़ा होता है कि दर्शक आत्मविस्मित सा, चौंधियाया सा रह जाता है..! शायद यही इन फिल्मों की सबसे बड़ी ताकत(और कमजोरी भी) है। पूरी फिल्म के दौरान आप कहीं भी इतने खाली नहीं हो पाते कि कहानी किस दिशा में जा रही है, इस बारे में सोच सकें या फिर अभिनेताओं के चेहरे पर आ रहे भावों की सूक्ष्मता/फ्लैट चेहेरों का विवेचन कर सकें..! अंतत: ढाई घंटे बाद जब आप सिनेमाहाल से बाहर निकलते हैं, तब क्षणजीवी अभिनय क्षमता और कथानक की जगह जो चीज आपके दिलो-दिमाग पर हावी होती है, वह है आतंकित कर देने वाली तकनीक!
टाइटेनिक में भी भीमकाय सेट्स, हिमखंड और ग्राफिक्स के अतुलनीय बोझ तले साँस लेती एक मासूम सी कहानी थी.. बंधनों को तोड़ने को आतुर एक लड़की ‘रोज’, जो दुनिया को नये ढंग से देखना चाहती है.. जो दुनिया को हमेशा अपनी पारिवारिक दौलत के चश्मे से देखती-देखती ऊब चुकी है.. समाज का अभिजात्य बंधन उसे खुलकर साँस लेने का स्पेस जब मुहैया नहीं करा पाता, तो अपनी आज़ादी का रास्ता उसे आत्महत्या में ही नजर आता है!
इसी मोड़ पर आता है ‘जैक’.. दुनिया देखा हुआ, समझता हुआ..! उसके साथ रोज साँस लेना सीखती है, खुलकर हँसना सीखती है.. वर्जनाओं को तोड़ने की मुहिम उसे समंदर में दूर तक थूकने से लेकर स्वच्छंदता के नये आयाम स्पर्श करने की ललक पैदा करती है..!
और फिल्म यहीं राह भटक जाती है.. भव्य जहाज का डूबना इतना आतंकित कर जाता है कि जीवित बची रोज जब लकड़ी के तख्ते पर जम चुके जैक के हाथों को छुड़ाती है, तो जमी बर्फ के टूटने के साथ आने वाली खट की आवाज के साथ उसके चेहरे पे आने वाले भाव किसी शून्य में विलीन होते से लगते हैं..
ऐवेटॉर का कथानक सीधा सा है..सन 2050, साढ़े चार प्रकाश वर्ष दूर एक ग्रह के सैटेलाइट ‘पंडोरा’ पर जीवन की खोज हो चुकी है.. धरती पर ऊर्जा के तमाम परंपरागत स्रोत शुष्क हो चुके हैं..! गैरपरंपरागत स्रोत भी अब मानव की ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति करने में अक्षम हो चुके हैं..! ऐसे में वरदानस्वरूप एक तत्व ‘अनऑब्टेनियम’ का पता चलता है, जिसका विशाल भंडार पंडोरा वासी (जिन्हें ना’वी कहते हैं) लोगों के गाँव के नीचे दबा पड़ा है। विश्व के बड़े-बड़े उद्योगपतियों के अनुदान से एक प्रोजेक्ट चलाया जाता है, जिसमें कुछ मानवों के डीएनए में पंडोरावासियों का डीएनए मिलाकर उन मानवों के ना’वी प्रतिरूप(अवतार) तैयार किये जाते हैं.. ये प्रतिरूप देखने में बिलकुल ना’वियों जैसे हैं, और कंट्रोल सेगमेंट में लेटे हुए अपने आधे डीएनए के मालिक मानवों द्वारा मानसिक लिंक की सहायता से संचालित किये जा सकते हैं..
इनमें से एक है जैक सली(Jack Scully).. उसके वैज्ञानिक भाई का डीएनए भी अवतार प्रोजेक्ट के लिये चयनित होता है.. जिसके असमय मृत्यु हो जाने के बाद जैक को इस प्रोजेक्ट के लिये ले लिया जाता है..!
मानव सेना का कमांडर शक्ति बल के जरिये अनऑब्टेनियम पाने में यक़ीन रखता है..(टिपिकल अमेरिकन आर्मी).. जैक को अतिरिक्त कार्य सौंप दिया जाता है, अपने अवतार रूप द्वारा परंपरागत निवासियों की गुप्तचरी करने का.. उनकी कमजोरियों का पता लगाने का, जो उनके खिलाफ़ युद्ध में काम लाई जा सकें..
लेकिन जैसे-जैसे जैक ना’वियों को नजदीक से जानने लगता है, उसके विचारों में परिवर्तन आने लगता है। उन लोगों की प्रकृति के साथ सहजीविता.. पेड़ों के साथ बातें करना.. चिड़ियों की भाषा समझना, उन्हें अपनी भाषा समझाना... घोड़ों के साथ मानसिक-हार्दिक बन्धन जोड़ना.. उन्हें मन:शक्ति से निर्देश देना.. सब कुछ इतना निर्दोष है, इतना निश्छल, कि जैक को प्यार हो जाता है.. उनकी संस्कृति से, उसी संस्कृति में पली बढ़ी एक ना’वी युवती से..! शेष स्पष्ट हो गया होगा.. फिर वही तीर धनुषों के सहारे उन्नत तकनीक वाली मानव सेना का मुकाबला और उन्हें परास्त करना.. एवरग्रीन सत्य की विजय टाइप।
लेकिन बात "सत्यं वद, धर्मं चर" की ही नहीं है.. बात है, मानव की अनथक लिप्सा में चरमरा रहे पारिस्थितिकीय संतुलन(Ecological Balance) की.. तेजी से बिगड़ती खाद्य श्रृंखला की.. विलुप्त होती प्राकृतिक संपदा की... समाप्त होते ऊर्जा स्रोतों की.. और सबसे बढ़कर कभी न सुधरने वाली मानव प्रजाति की नित नई अक्षम्य भूलों की..
ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति ने उसकी अन्य कृतियों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है.. यह वह प्रजाति है, जो अपनी ही थाली में छेद करती जा रही है। अपनी ही जीवन-सप्लाई बंद कर रही है। अपने ही हृदय तक रक्त ले जाने वाली नसों को काट रही है..
प्राचीन भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ समन्वय के असंख्य उदाहरण हैं..ये उदाहरण तेजी से ‘तरक्की(?)’ कर रही मानव जाति में भी लोक-श्रुतियों के रूप में, ग्राम्य परंपराओं के रूप में आज भी रचे बसे हैं.. कृषि के लिये हँसिये, थ्रेशर से होते हुए आज हम कम्बाइन हार्वेस्टर तक पहुँच तो गये हैं.. लेकिन बैसाख की जुताई से पहले खेत की मिट्टी की पूजा आज भी हलषष्ठी (हरवत मूठ) के दिन होती है.. "त्वदीयं वस्तु गोविन्दम" की तर्ज पर अपने खेत में उगे गन्ने, गंजी, सुथनी का उपभोग किसान चौथ से पहले नहीं करता.. पति - पुत्र का स्वास्थ्य ‘बर-बरियार’ पेड़ से शाश्वत ढंग से जुड़ गया है..
तेजी से विलुप्त होती परंपराओं के बीच, और ज़बर्दस्त कॉमर्शियलाइजेशन के साथ ये परंपरायें भले ही लोक जीवन से विलुप्त होती जा रही हों, लेकिन उनका संदेश नहीं विलुप्त हो सकता.. प्रकृति से उतना ही लो, जितना आवश्यक हो- "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा"... लेकिन मानव ने इस संदेश का पालन कब किया!!
चाहे ओजोन परत का क्षरण हो, चाहे ध्रुवीय बर्फ़ का पिघलना... कॉलोनाइजेशन के लिये किये जा रहे वनोन्मूलन के फलस्वरूप बढ़ रहे मनुष्य-वन्यजीव संघर्ष, जिनमें अंतत: नुकसान अ-मानवीय पक्ष को ही उठाना पड़ता है.. ये सब असंख्य उदाहरण हैं मानव की चिर अभीप्सा के, जो अभी तक शान्त नहीं हो पाई है, और शायद इस ग्रह की आहुति लिये बिना शान्त होगी भी नहीं..!
वर्ष 2009 बीत रहा है.. कुछ क्षणों का मेहमान यह वर्ष और किसी बात के लिये जाना जाय या नहीं.. यह ‘कोपेनहेगन’ के रूप में समूची मानव जाति की हार के रूप में इतिहास के पन्नों में स्थायी रूप से अंकित हो गया है..! संभवत: इस शताब्दी की सबसे बड़ी हारों में से एक.. मानव जाति ने सर्वसम्मति से इस ग्रह को ऐसे विनाशपथ पर ठेल दिया है जिसकी परिणति केवल अपने जीवन के कुछ अंतिम वर्ष गिनने में होने वाली है.. हमारी आने वाली पीढ़ियाँ (अगर कोई आईं तो) अपने पुरखों का नाम जुगुप्सा से लेंगी कि उनके पास मौका था इस मरते ग्रह का इलाज कर पाने का.. अब तो बीमारी टर्मिनल स्टेज में है..!
कोपेनहेगन वार्ता में कई द्वीपीय देश थे- मालदीव, सूरीनाम, सेशेल्स जैसे..! उनकी पुकार कैसे अनसुनी कर सकता है भला कोई? 2 डिग्री सेंटिग्रेड की सीमा भी जिनके देशों को ज्यादा समय तक नहीं बचा सकती थी, जिन्होंने 1.5 की सीमा तय करने की माँग उठाई थी, उन्हें 2 डिग्री की सीमा भी मयस्सर नहीं हुई.. विकसित देशों की भूख सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है.. उन्होंने इस ग्रह को जितना नुकसान पहले डेढ़ सदियों (1800-1950) में पहुँचाया, उतना पिछले पचास सालों में सारे विकासशील देश मिलकर नहीं पहुँचा पाये। विकासशील देशों को अपनी पहले से ही भूखी-नंगी जनता के लिये रोटी-पानी की व्यवस्था करनी है, सोलर कुकर तो बाद में बाँटेंगे..! विनष्ट होने के लिये सर्वसम्मत तो होना ही था।
ऐसा नहीं कि अब कुछ हो ही नहीं सकता..आवश्यकता दृढ़ निश्चय की है.. पिछले 62 सालों में जिनका ‘असली’विकास हुआ है, ऐसे अम्बानियों, बिड़लाओं, मित्तलों, सहाराओं को अपनी जेब ढीली करनी ही होगी.. पर्यावरण-मित्र तकनीकें अपनानी होंगी। ज्वलन्त उदाहरण हैं- रतन टाटा, और उनकी फाउंडेशन द्वारा चलाई जा रही ‘टाटा मार्गदीप’ परियोजना.. जो हर गाँव को पिचहत्तर फीसदी सब्सिडी पर सोलर पॉवर प्लांट मुहैया कराने के लिये कटिबद्ध है.. ऐसे प्रयास और भी होने चाहिये।
मुझे फिल्म के एक किरदार का बार-बार कहा जाने वाला कथन नहीं भूलता- यह सारी जीवन ऊर्जा प्रकृति की दी हुई है, जो उसे एक दिन लौटानी होगी। अब हमें तय करना है कि उस दिन प्रकृति के सम्मुख हम कैसे खड़े होंगे.. सर झुकाये हुए, या गर्व से कहते हुए- "जस की तस धर दीन्हि चदरिया"
अब से मनुष्य की इस ब्रह्माण्ड में जीवन की खोज करने के प्रयत्नों का धुर विरोध होना चाहिये.. इस ग्रह को विनाश के कगार तक हम लाये, अब इसे कायरों की भाँति नहीं छोड़ सकते.. दूसरे किसी ग्रह को ढूँढकर अपनी लालसा में विनष्ट करने से बेहतर है कि यह अहसानफरामोश मानव जाति इसी ग्रह पर आखिरी सांसे गिने..
किसी का कथन याद आ रहा है- ये प्रकृति हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में तो सक्षम है, लेकिन हमारी वासनाओं की पूर्ति में नहीं..!
पुनश्च: परीक्षाओं में व्यस्तता के कारण आपकी पोस्टों को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहा.. क्षमाप्रार्थी हूँ..
और इसी पोस्ट के बहाने हमारी तरफ से नव-वर्ष की अग्रिम बधाई स्वीकार की जाये.. नये साल में मिलते हैं।